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December 1964

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नित्यं प्रबुद्ध चित्तास्तु कुर्वन्तोऽपि जगत्कियाः।

आत्मैकतत्व सन्निष्ठाः सदैव सुसमाधमः॥

-योग वाशिष्ठ। 5।62। 5

जिसका मन प्रबुद्ध है, जो संसार के कर्म करते हुए भी आत्मा में स्थिर रहता है वह सदा समाधि में ही है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि धन को सर्वोपरि स्थान देने पर मनुष्य का वैयक्तिक, सामाजिक, नैतिक जीवन दूषित हो जाता है। जिस व्यक्ति में धन की लालसा घर कर लेती है, उसका सचाई के मार्ग को छोड़कर अनीति का मार्ग ग्रहण कर लेना उतना ही सत्य है जितना कमल को तोड़ने के प्रयत्न में जल-कीचड़ में उतरना। हमारे सामाजिक जीवन में फैली हुई बुराइयाँ, रिश्वत, भ्रष्टाचार, अनीति, अन्याय, चोरी, डकैती, लूट, हत्या आदि अपराधों के मूल में पैसे का महत्व ही काम कर रहा है। कितने ही कानून बना दें, दण्ड की व्यवस्थायें कर दें, लेकिन जब तक हमारे जीवन की कसौटी पैसा है तब तक अपराध, विग्रह बुराइयाँ मिट नहीं सकतीं क्योंकि यह भी इनके मूल में एक बहुत बड़ा कारण है।

मनुष्य का जीवन अमूल्य है, सुर दुर्लभ है। यह इसका मूल्य रुपये पैसे में करना, इसे पैसे के लिए ही खपा देना, बुद्धिमानी नहीं वरन् बहुत बड़ी मूर्खता है। जीवन निर्वाह और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धनोपार्जन आवश्यक है अनिवार्य भी। लेकिन इसे ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य बना देना तो बुद्धिमानी नहीं है। मनुष्य पैसे के लिए नहीं है, पैसा मनुष्य के लिए है। हम अपने मूल्याँकन के आधार को समझें, पैसे को बड़प्पन का आधार मानना बुजुर्वा प्रणाली है, असभ्यता की निशानी है। चरित्र में बट्टा लगाकर प्राप्त किया गया धन नैतिकता के समक्ष अपराधी बनकर कमाया गया, दो कौड़ी का है।


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