गृहस्थाश्रम भी एक योग साधना है।

December 1964

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गृहस्थ-जीवन बहुत बड़ी जिम्मेदारी और उत्तरदायित्वों का है। कौटुम्बिक एवं सामाजिक महत्व के कार्यों का प्रारम्भ गृहस्थाश्रम में ही होता है। इसी जीवन में मनुष्य अपने परिवार, पड़ोस, समाज के प्रति कर्त्तव्य-पालन करने की स्थिति में होता है। गृहस्थाश्रम तो मानो एक तपोभूमि है। सहनशीलता, संयम, उदारता, त्याग, आत्मीयता के सद्गुणों की साधना इसी में होती है। जो लोग गृहस्थ जीवन को मौजमजा उड़ाने, इन्द्रिय-जनित सुखों को भोगने, में थोड़ा बहुत धन, प्रतिष्ठा आदि कमा लेने का अवसर समझते हैं वे इसके महत्व को कम करते हैं। इसके प्रति लापरवाही प्रकट करते हैं।

गृहस्थाश्रम केवल पति-पत्नी के लिये ही नहीं है। उसकी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति अथवा उनके अपने सुखों के लिए यह संस्था नहीं है। मनुष्य की दुर्दम्य, नैसर्गिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी गृहस्थ जीवन नहीं, वैसे ये बातें इसमें आ भी जाती हों तो भी यह मानव-जीवन को अधिकाधिक विकसित करने, महानता की ओर अग्रसर होने का राजमार्ग है। गृहस्थ-जीवन में पति-पत्नी एक दूसरे के सहायक, सहयोगी बनकर सामाजिक कर्त्तव्यों की पूर्ति में लगते हैं। अपने पूर्वजों से प्राप्त विरासत को बढ़ाकर उसे नई पीढ़ी को देने का—अधिक योग्य बनाने का भार गृहस्थी पर ही होता है। विकास की शृंखला में नव-पीढ़ी के नव-निर्माण का महान् उत्तरदायित्व गृहस्थाश्रम में ही है। यह मानवजाति के संस्करणों को क्रमशः उद्दात्त और मंगलमय स्थिति तक पहुँचाने की सीढ़ी है।

गृहस्थ-जीवन में पति-पत्नी का जीवन एक सूत्र में बंधता है। मानों दो शरीर में एक ही चैतन्य बहने लगता हो फिर इन दोनों से सम्बन्धित परिवार आत्मीयता के सूत्रों में जुड़ते हैं फिर उनसे सम्बन्ध रखने वाले अन्य परिवारों तक यह सम्बन्ध-सूत्र फैलने लगते हैं। परस्पर एक दूसरे को सहयोग, सद्भावनायें मिलने लगती हैं। और एक बहुत बड़ा समाज आत्मीय सम्बन्धों में जुड़ जाता है जिसका प्रत्येक सदस्य एक दूसरे के प्रति कर्तव्य तथा पारस्परिक अधिकारों से बँधा हुआ सा रहता है। इतने बड़े समाज में गृहस्थाश्रम द्वारा सबकी सेवा सत्कार करने का धर्म-कर्तव्य हमारे यहाँ माना गया है। गृहस्थाश्रम एवं पञ्चमहायज्ञ समाज के प्रति इस कर्तव्य-पालन करने के लिये ही बनाये गये हैं। जिनमें देवता, पितर, ज्ञानी, मनुष्य यहाँ तक कि जीवमात्र की सेवा आ जाती है। इतना बड़ा है, हमारा गृहस्थ-धर्म।

गृहस्थाश्रम की सफलता तीन बातों पर निर्भर करती है। पहला गृहस्थ-जीवन के पूर्व की तैयारी, दूसरे पति-पत्नी के दाम्पत्य-जीवन में आने का ध्येय-तीसरा गृहस्थ-जीवन में एक दूसरे का व्यवहार और उनका कर्तव्य-पालन।

ब्रह्मचर्याश्रम गृहस्थ-जीवन में पैर रखने की तैयारी करने का समय है। संसार में आवश्यक और उपयोगी ज्ञान प्राप्त करने के लिये ब्रह्मचर्य की आवश्यकता होती है। इसी समय में मनुष्य अनेक कलायें, ज्ञान, विद्यायें अर्जित करता है तरह-तरह के अच्छे अनुभव संस्कार अर्जित करता है। यह तैयारी ही गृहस्थ-जीवन की सफलता का आधार होती है। जिनका विवाह के पूर्व का जीवन सफल और उपयोगी होता है, वे गृहस्थ-जीवन को भी अधिक सफल बना सकते हैं। ब्रह्मचर्याश्रम का यद्यपि अब पूर्वस्वरूप तो नहीं रहा फिर भी आज का विद्यार्थी-काल गृहस्थ-जीवन का पूर्व समय ही है। इसे भावी-जीवन को भली प्रकार जीने का उपयोगी आधार बनाया जा सकता है। गृहस्थ-जीवन की बहुत कुछ सफलता इस पर निर्भर करती है कि दाम्पत्य-जीवन में प्रवेश करने से पहले मनुष्य ने उसके लिए क्या तैयारी की? शारीरिक, मानसिक , आत्मिक, दृष्टि से सामर्थ्यवान्, गुणवान बनकर गृहस्थ-जीवन में प्रविष्ट होने वाले दम्पत्ति अपना जीवन अधिक सफल बना सकते हैं। और इसकी तैयारी का समय, विवाह के पूर्व का समय ही है। जो अयोग्य, असमर्थ, अविकसित रहकर गृहस्थ में प्रवेश करते हैं उनका जीवन काफी पिछड़ा हुआ, कठिनाई और उलझनों से घिरा हुआ, हीन अवस्था में बीतता है। वे गृह-आश्रम का कोई विशेष लाभ नहीं उठा पाते।

गृहस्थ-जीवन की सफलताएँ और असफलताएँ विवाह-संस्कार, स्त्री और पुरुष का दाम्पत्य-जीवन में प्रवेश करने के उद्देश्य, आदर्शों पर भी बहुत कुछ निर्भर करती हैं। जहाँ विवाह केवल शारीरिक सुख अथवा एक दूसरे के लुभावने आकर्षण या किसी क्षुद्र लोभ के कारण होता है वहाँ विवाह का आदर्श ही नष्ट हो जाता है। और ऐसे वैवाहिक सम्बन्ध अधिकतर असफल ही सिद्ध होते हैं। जिन विवाह सम्बन्धों के पीछे कोई महान् आदर्श, उद्दात्त ध्येय की भावना न हो तो गृहस्थ-जीवन में भी निम्न कोटि के भाव अर्थात् आकर्षण, लोभवृत्ति-आदि पर ही चलता है और फिर गृहस्थ-जीवन में कटुता, क्लेश, अशान्ति का बोलबाला हो जाता है। जो स्त्री पुरुष परस्पर के दैहिक आकर्षण से, धन-सम्पत्ति के लोभ से अथवा निरुद्देश्य या उनके अभिभावकों की ऐसी इच्छा से दाम्पत्य-जीवन में घुसते हैं उनके लिये आगे चलकर निर्वाह करना कठिन हो जाता है। तब वे भली प्रकार अपने गृहस्थ-धर्म को नहीं निभा पाते और जहाँ इस तरह के विवाह सम्बन्ध स्थापित होते हैं, वह समाज कभी उन्नत नहीं हो सकता क्योंकि गृहस्थाश्रम ही उसकी रीढ़ होती है। इतना तो स्पष्ट ही है कि धन, सुन्दरता या अन्य किसी आकर्षण के आधार पर स्थापित विवाह-सम्बन्ध चाहे वर-वधू की इच्छा से हों या उनके अभिभावकों की इच्छा पर, इनसे गृहस्थाश्रम की सफलता सम्भव नहीं होती। इस तरह की प्रवृत्तियाँ दम्पत्ति के साथ-साथ समाज और मानवता के लिये हानिकर सिद्ध होती हैं।

गृहस्थ-जीवन का आधार भौतिक लाभ तात्कालिक सुखोपभोग का दृष्टिकोण, दैहिक आकर्षण तो हो ही नहीं सकते। गृहस्थाश्रम जीवन के पवित्र और उद्दात्त ध्येय की पूर्ति के लिये है। तात्कालिक लाभ और वैयक्तिक सुख को लक्ष्य रखकर चलना गृहस्थ-जीवन की विडम्बना है। इनका परिणाम अन्ततः दुःख, क्लेश, असन्तोष, परेशानियों में ही प्राप्त होता है। गृहस्थाश्रम में ही समाज-संसार की उन्नति साधने का अवसर है। स्त्री-पुरुष एक दूसरे के प्रति व्रतशील बनकर एक निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों का मिलकर पालन करते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इसमें संयम की उपासना करते हुए चञ्चलता एवं असंयम का पूर्णतया त्याग करके एक दिन गृहस्थ-जीवन को विशुद्ध बनाने की स्थिति में भी पहुँच जाना ही आवश्यक होता है।

आज गृहस्थाश्रम का कोई पवित्र उद्देश्य हमारे समक्ष नहीं रह गया है। अभिभावकों की इच्छा या दहेज के लोभ अथवा दैहिक वासनात्मक आकर्षण आदि से प्रेरित होकर विवाह सम्बन्ध स्थापित होते हैं। फिर गुजारा करने लायक कोई काम धन्धा कर लेना, बाल-बच्चों का जैसे-तैसे गुजारा कर लेना, थोड़ा बहुत पैसा या पद प्रतिष्ठा अर्जित कर लेना ही गृहस्थ-जीवन का उद्देश्य रह गया है। इससे परे कोई उच्च-उद्देश्य, उच्च-विचार, उत्तम संस्कार, उदात्त भावनाओं को कोई स्थान नहीं होता। अपनी इच्छा, वासना, कामनाओं से प्रेरित होकर आदर्शहीन जीवन बिताने की साधारण-सी जीवन-पद्धति होती है, आज के अधिकाँश गृहस्थियों की। लेकिन इससे व्यक्ति और समाज दोनों का कोई हित साधन नहीं होता। हर वर्ष लाखों दम्पत्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं और वे अपने से पहले की पीढ़ी की तरह गलतियों को दुहराकर निरुपयोगी जीवन बिताते हैं। इस गलत परिपाटी को सुधारने की आवश्यकता है। गृहस्थाश्रम को मनुष्य के विकास और उत्कर्ष का आधार बनाने के लिये हमें इसके महत्व को समझना चाहिये।


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