पैसे को ही परमेश्वर मत मानते रहिये

December 1964

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एक समय था जब लोग जीवन में परमेश्वर को ही सर्वोपरि समझते थे उसकी प्राप्ति के लिए लोग धन-वैभव सम्पत्तियों का त्याग करने में नहीं चूकते थे। सारे जीवन की बाजी परमात्मा के लिए लगा देते थे। आज स्थिति इससे भिन्न है। लोग पैसे को ही परमेश्वर समझने लगे हैं। वैसे कुछ सत्पुरुष ऐसे भी हैं जो अब भी ईश्वर को ही सब कुछ समझते हैं। लेकिन बहुमत पैसा वादियों का ही अधिक है। तथा कथित मुद्रा आज के संसार की सर्वोपरि उपासनीय वस्तु बन गई है। पैसे के लिए मनुष्य सब कुछ करने को तैयार रहता है।

पैसा कमाना कैसे भी हो चाहे नीति से या अनीति से, हमारे स्वभाव का एक अंग बन गया है। पैसे के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते। चोरी, रिश्वत, ठगी, धोखा-धड़ी, मिलावट, गिरहकटी, अनैतिक मुनाफा खोरी, काला बाजार सब पैसे के लिए ही तो होते हैं। पैसे के लिए लोग अपना धर्म-ईमान बेचते हैं। आज का मनुष्य सिर्फ एक लक्ष्य बना रहा है वह है—पैसे के लिए ही शिक्षा पाई जाती है। ज्ञान-विज्ञान कला-कौशल पाण्डित्य, राजनीति सब पैसे के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। पैसे के प्रश्न को लेकर संसार दो खण्डों में बँट गया है, पूँजीवाद और साम्यवाद। हमारे धर्म, पूजा, उपासना, कर्म-काण्ड यहाँ तक कि लोगों ने स्वयं भगवान के नाम को भी पैसा कमाने का साधन बना लिया है। जगद्गुरु आजकल कौन हैं? जिनके पास बड़े-बड़े मठ हैं, जो सोने, चाँदी के बर्तनों का उपयोग करते हैं, बहुत से नौकर हैं, रेशम पहनते हैं, बड़े ठाट-बाट के साथ जिनकी हाथी, मोटरों पर सवारियाँ निकलती हैं। समाज में बड़ा किसको माना जाता है? जिसके पास पैसा है। निर्धन किन्तु भले आदमियों की कहाँ पूछ होती है? घर में या बाहर देश में या विदेश में, जन-समाज में या वन में। मनुष्य के पास पैसा न हो तो उसे हर जगह तिरस्कृत होना पड़ेगा। इस सच्चाई से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि सर्वत्र पैसे का ही राज्य है।

तथाकथित जन-सेवी, समाज-सेवी संस्थाओं के लिये केवल पैसा ही युग-धर्म बन गया है। जिस तत्व को बहुमत का समर्थन मिल जाता है तो वही युग का प्रधान बन जाता है। इतना ही नहीं उससे सम्बन्धित अन्य बुराइयाँ भी गौण बन जाती हैं। हम भूल गये हैं जहाँ से हम पैसे को जीवन का महत्वपूर्ण अंग मानने लगते हैं वहीं से हमारे पतन का प्रारम्भ हो जाता है। पाश्चात्य विद्वान् फील्डिगं ने लिखा है—”पैसे को आपने परमेश्वर माना कि वह शैतान बनकर आपको नष्ट करने में जुट गया।” एक अन्य विद्वान् ने लिखा है—”पैसा आपका दास है। जब आप उसका उपयोग करते हैं लेकिन वह आपका स्वामी बन जाता है, जब आप उसकी तलाश में चक्कर काटते हैं।” महर्षि व्यास ने भी कहा है—”अपने पास इकट्ठा किया धन पाले हुए शत्रु के समान है जिससे पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता।” पैसे को परमेश्वर मानने वाला व्यक्ति वास्तविक परमात्मा से उतना ही दूर होता जाता है—ईसा मसीह ने कहा था—”जैसे कोई व्यक्ति एक साथ दो व्यक्ति की सेवा नहीं कर सकता उसी तरह चाहे परमात्मा की उपासना कर लो या धन की।” घर में बढ़ा हुआ धन मनुष्य को उसी तरह नष्ट कर सकता है, जैसे नाव में बढ़ा हुआ जल, इसीलिए सन्त कबीरदास जी ने कहा है—

पानी बाढ़े, नाव में, घर में, बाढ़े दाम।

दोनों हाथ उलीचिए यही सयानो काम॥

मुंशी प्रेमचन्द के शब्दों में “जब घर में अधिक धन संग्रह हो जाता है तो वह अपने निकास का मार्ग ढूँढ़ता है। यों न निकल पायेगा तो जुए में जायगा, घुड़ दौड़ में जायगा, ईंट पत्थर में जायगा या ऐयाशी में।” आदमी कितना ही प्रयत्न करे वह चंचला को स्थिर नहीं रख सकता और इसके चले जाने पर शोक पश्चाताप में ही जीवन बिताना पड़ता है।

पैसे का आकर्षण दिनों दिन बढ़ता ही जाता है। जिसने जीवन में पैसे को प्रधानता दी है, वह कभी भी सन्तोष-शान्ति का अनुभव नहीं कर सकेगा। महर्षि व्यास ने कहा है—”धन की प्यास कभी नहीं बुझती उसकी ओर से मुँह मोड़ लेने में ही परम सुख है।” पैसा दिन-रात जब मनुष्य को बचाता है तो उसका खाना, पीना, सोना हराम हो जाता है।

यद्यपि धन जीवन की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति का एक साधन है। इसका अर्जन भी करना चाहिए और उपयोग भी। तथापि पैसे को सर्वोपरि महत्व देना समाज के लिये बहुत घातक है। कल्पना कीजिए उस समाज की जहाँ पैसे को ही सर्वोपरि स्थान दिया जाता है। क्या उसके सदस्य कोल्हू के बैल की तरह पैसे के इर्द-गिर्द चक्कर काटते नहीं मिलेंगे? क्या पैसे के लिए कुत्तों की तरह एक दूसरे पर छीना झपटी करते हुए नहीं देखा जायगा। उन्हें एक दूसरे के लिए प्रेम, सहानुभूति, आत्मीयता की जगह उसमें स्वार्थ, डाह, सूखापन का व्यवहार न होगा। सचमुच “पैसे की कसौटी पर आत्मिक नाते की कौन कहे, शारीरिक खून का नाता तक टूट जाता है।” पैसा समाज के मधुर सम्बन्धों में एक कठोर, निर्मम, दीवार बन जाता है।

धन ही सर्वेसर्वा बनकर जब हमारे जीवन का प्रेरणा मन्त्र बन जाता है तो हमारी स्थिति ठीक उस लद्दू पशु जैसी बन जाती है जिसका मालिक उस पर मन चाहे बोझ लादता है, न दिन देखता है न रात। क्या धन की लालसा में हम भी उसकी आज्ञाओं पर नहीं नाचते? हमें जो धन मिलता है उसे बढ़ाने में—कई गुना करने में लगना पड़ता है। जो हजार पति हैं वे लखपति, जो करोड़ पति हैं वे अरब पति बनने के पीछे, क्या दिन रात परेशान नहीं रहते? धन की लालसा में हम उन शुभ कर्मों की ओर से आँखें मींचे रहते हैं जिनके द्वारा हमको सुख-शान्ति तथा सन्तोष का अनुभव हो सके और एक दिन सब कुछ छोड़ना पड़ता है। जिस धन को खून पसीना बहाकर कमाया था वह कुपात्र के हाथों पड़ कर नष्ट हो जाता है।

अपार सम्पत्ति ही क्यों न हो, लेकिन व्यक्ति के जीवन में उसका कोई उपयोग नहीं है तो वह कंकड़-पत्थर के समान है। जो धन हमारी तथा दूसरों की आवश्यकता पूर्ति के काम न आवे, जिससे हम किसी का भला नहीं कर सकें, वह धन हमारे जीवन में एक भार है। उसका सम्बन्ध हम से इतना ही रहता है कि जितना एक गधे का और उस पर लादे जाने वाले सामान का। गधा अपनी पीठ पर स्वर्ण-खण्ड लदने से समझने लगे कि वह धनवान बन गया है यह तो उसका दुर्भाग्य ही होता है कि जब उसकी बोझ के साथ-साथ उसकी रगड़ से बेचारे की पीठ छिल जाती है।


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