लक्ष्य ऊँचा हो और महान् भी

December 1964

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सामान्य व्यक्तियों के जीवनोद्देश्य बड़े निम्न निकृष्ट तथा दुर्बल स्तर के होते हैं। एक स्तर-सा बन गया है जिसमें मनुष्य की गतिविधियाँ अच्छा भोजन प्राप्त करने, अच्छे कपड़े पहने धन सत्ता आदि पर अधिक और बड़ा अधिकार पाने तक ही सीमित होती हैं। जीवन की सुख सुविधाओं के लिए यह क्रियायें उचित भी हैं किन्तु यह मनुष्य जीवन के उद्देश्य की पूरक मात्र हैं, स्वतः लक्ष्य नहीं। उन्हें ही जब अपनी आकाँक्षाओं का केन्द्र बिन्दु मान लेते हैं तो मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन में गतिरोध उत्पन्न होता है अर्थात् उसके धार्मिक तथा नैतिक जीवन में शिथिलता आ जाती है इसलिये आचारशास्त्र सदैव इस बात पर जोर देता रहा है कि मनुष्य का लक्ष्य और उसका जीवनोद्देश्य ऊँचा तथा महान् हो।

ऊँचे उठने के लिये हमारा उद्देश्य भी उतना ही ऊँचा होना चाहिये। रेल का ड्राइवर देखता है कि इंजन में भरे पानी का तापमान अभी 200 डिग्री फारेनहाइट है तो वह उसे स्टार्ट नहीं करता क्योंकि वह जानता है कि इतने तापमान से भाप बनना प्रारम्भ न होगी और न इंजन चलेगा। 210 डिग्री फारेनहाइट पर जब पानी उबलकर भाप बनने लगता है तो उस शक्ति से ही विशालकाय मालगाड़ी हजारों मील की दूरी तय करती हुई जाती है।

रेल के इंजन की तरह मनुष्य जीवन को भी शक्ति प्रदान करने वाली सत्ता का नाम है-उसका महान उद्देश्य। एक विद्यार्थी है जिसकी परिस्थितियाँ उसे विवश करती हैं, धन की कमी है, पुस्तकें नहीं हैं, ट्यूशन नहीं कर सकता, अच्छा फउन्टेनपेन भी उसके पास नहीं है, पर उसकी उत्कृष्ट अभिलाषा है कि वह शिक्षा प्राप्त करे तो वह हजार रास्ते ढूँढ़ लेता है। पुस्तकें कुछ अपने साथियों से उधार ले लेता है, कुछ पुस्तकालय से लेकर काम चलाता है। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर प्रकाश के अभाव में चौराहे की लालटेन के उजियाले में बैठकर पढ़ा करते थे और उत्तीर्ण भी अच्छे नम्बरों से होते थे। उनकी इस सफलता का श्रेय इस बात पर था कि उनकी पढ़ने की अभिलाषा इतनी प्रबल थी कि धन और किताब का अभाव उसके आगे कुछ नहीं कर पाते थे।

नेपोलियन बोनापार्ट, लिंकन, लेनिन, महात्मा गान्धी, लोकमान्य तिलक, महर्षि कर्वे आदि प्रमुख राजनीतिज्ञ तथा सामाजिक क्रान्तिकारियों ने जो सफलतायें पाई है उसका भी रहस्य यही है कि उन्होंने पहले उद्देश्य को जीवन्त, ज्वलन्त तथा प्रचण्ड बनाया था उनके फलस्वरूप उनमें वह शक्ति आई थी जो कोटियों विघ्न-बाधाओं को पद दलित करती चली गई और अन्त में उन्होंने अपने निश्चय को मूर्त रूप देने में सफलता प्राप्त की।

हम जो भी काम करें पूरे मन शरीर और इच्छा से करें। मामूली उत्साह से मनुष्य की शक्ति इंजन के पानी की तरह भाप नहीं बन पाती और थोड़ी सी चेष्टायें भी निष्फल होकर रह जाती हैं।

महान् उद्देश्य रखने वाले व्यक्ति का मन भी प्रचण्ड होता है। संचालक की शक्ति के अनुरूप ही उद्देश्य सफल होते हैं इसलिये जब केन्द्रित शक्ति से किसी काम में प्रवृत्त होते हैं तो सफलता स्वतः दौड़ी चली आती है। ढीले और पुरुषार्थविहीन कर्मों में किसी तरह की सजीवता नहीं होती है इसी से उनके परिणाम भी स्वल्प और स्वत्वहीन होते हैं। गीतकार ने बताया है-

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरु नन्दन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥

अर्थात्-”निश्चयात्मक बुद्धि से ही कल्याणकारी परिणाम मिलते हैं किन्तु जिनकी बुद्धि कभी इधर कभी उधर दौड़ती रहती है वे पुरुष अज्ञानी हैं।”

यह सिद्धान्त ऐसे हैं जिन्हें भौतिक कर्मों में प्रयुक्त करके उनमें असाधारण प्रगति कर सकते हैं किन्तु अकेले उद्देश्य का महान् होना ही काफी नहीं है। उद्देश्य तो चोरी करना या औरों का धन अपहरण करना भी हो सकता है। दुष्ट दुरात्माओं के पक्के इरादों के आगे बड़े-बड़े सुरक्षा साधन भी हार मान लेते हैं। धन प्राप्त करना ही उद्देश्य हो तो अनेकों व्यवसाय चलाकर अपनी शक्ति तथा योग्यतानुसार बहुत-सा धन इकट्ठा कर सकते हैं किन्तु यह उद्देश्य बहिर्मुखी और चंचल हैं। इनमें वह स्थिरता नहीं होती जो परिस्थितियों को भी परास्त कर सके। अर्थात् बाह्य जीवन के सुख और साधन बहुत कुछ परिस्थितियों से भी प्रभावित होते हैं। अतः आज की सफलता असफलता में भी बदल सकती है इसलिये इन्हें टिकाऊ नहीं मानते और स्थिर लक्ष्यों की ओर दृष्टिपात करते हैं। अर्थात् उद्देश्य जितना हो उतना ही ऊँचा भी हो। निकृष्ट कोटि के उद्देश्य यदि प्रचण्ड हुये तो उनसे निज का जीवन तो दूषित होता ही है समाज में अनेकों बुराइयाँ, संघर्ष तथा मलिनतायें उत्पन्न होती हैं।

मनुष्य को अपना जीवन कार्य उस दृष्टि से देखना चाहिये जिस तरह कलाकार अपनी उत्कृष्ट रचना को देखता है। जिस रचना में कला और सौंदर्य का समन्वय रहेगा वह रचना निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ सर्वप्रिय होगी। अकेले कला की दृष्टि से जीवन की रचना में सौंदर्य और मधुरता न रहेगी। आध्यात्मिक जीवन नीरस रहे तो संभवतः बहुत थोड़े व्यक्ति उधर अग्रसर हो सकेंगे। इसी तरह केवल सिद्धान्त या कलात्मक जीवन को भी पूर्ण और विकसित नहीं मान सकते। कर्म और भावना, कला और सौंदर्य के समन्वय से जिस तरह कलाकार की रचना उत्कृष्ट जान पड़ती है मनुष्य का जीवन भी उसी तरह भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक विकास से सर्वांगपूर्ण बनता है। अकेली भौतिक प्रगति जिस तरह मनुष्य को सुखी नहीं रख सकती उसी तरह केवल धर्म पर स्थिर रहकर जीवन-रक्षा असम्भव है। ऋण और धन विद्युत धाराओं के संयोग से जिस प्रकार प्रकाश उत्पन्न होता है उसी तरह जीवन को सर्वांगपूर्ण बनाने के लिये हमारा जीवनोद्देश्य जितना महान् हो उतना ही उच्च आस्थाओं पर आधारित भी हो।

यह समन्वय ही मनुष्य को विशिष्ट और शक्तिवान् बनाता है। बाह्य उद्देश्यों में जो कमी है उसे आध्यात्मिक आस्थायें पूरी कर देती हैं इसलिये व्यक्तिगत जीवन को समुन्नत और सर्वांगपूर्ण बनाने के लिये जहाँ यह आवश्यक है कि हम पर्याप्त धन कमायें, परिवार बनायें, संगठन सहानुभूति सेवा और पुरुषार्थ द्वारा औरों की प्रगति में भी सहायता करें वहाँ यह भी आवश्यक है कि हमारा जीवन श्रद्धा और विश्वासमय हो। अखिल विश्व की नियामक सत्ता से विलगता का भाव ही मनुष्य के दुख और अस्थिरता का कारण है।

रसायनशास्त्र का यह सिद्धान्त है कि जब किसी ‘यौगिक’ को तोड़ा जाता है तो एक परमाणु अन्य परमाणुओं के आकर्षण से मुक्त हो जाता है, उस समय उसमें एक नई शक्ति आती है जिससे वह सजातीय तत्वों को आकर्षित करता है, किन्तु अकेला होने के कारण उसकी शक्ति कमजोर पड़ जाती है। मनुष्य भी उसी तरह जब तक अपने क्षुद्र स्वार्थों तक ही सीमित रहता है तब तक उसकी व्यक्ति तथा सामर्थ्य बिलकुल कमजोर बनी रहती है, यह कमजोरी ही मनुष्य को दुःख देती है किन्तु जब वह पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास के साथ अपने को विश्व सत्ता में समर्पित कर देता है तो उसका बल अनन्त हो जाता है उनकी प्रतिभा बहुमुखी हो जाती है तब जीवन में किसी तरह का अभाव शेष नहीं रहता।

यह जीवन बना ही कुछ इस तरह है कि इसमें सभी तरह के अभाव कष्ट देते हैं। भौतिक जीवन के अभाव व्यावहारिकता में और मनुष्य का अपने ही स्वार्थों तक निहित होना उसकी भावनाओं में ओछापन पैदा करता है इसलिये जीवन के किसी भी क्षेत्र में सुख का आभास नहीं होता। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक मनुष्य एक निश्चित, महान और उत्कृष्ट लक्ष्य निर्धारित नहीं करता। सभी कसौटियों पर कसकर देख लिया जा सकता है सुखी जीवन का आधार समन्वय ही है। मनुष्य दूसरों के हितों को ध्यान में रखता हुआ भौतिक सम्पन्नता प्राप्त करे। इसके लिये उसमें खूब उत्साह हो, पर्याप्त लगन हो, पुरुषार्थ की क्षमता हो, पर साथ ही पारलौकिक जीवन के-सदुद्देश्य से भी वंचित न रहे। इसी तरह अपना जीवन सर्वांगपूर्ण बनता है इसी में मनुष्य का सच्चा सुख, चिर शान्ति सन्निहित है।


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