निराशा-जीवन का एक महान् अभिशाप

December 1964

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संघर्षमय जीवन पथ पर आगे बढ़ते समय मनुष्य को कई बार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। रात और दिन, धूप-छाँव, सर्दी-गर्मी की तरह जीवन में सुख-दुख, हानि-लाभ, सफलता-असफलता आदि का संयोग चलता ही रहता है। लक्ष्य जितना बड़ा होगा विपरीततायें भी उसी अनुपात में आयेंगी। जीवन में न जाने कितने अवसर आते हैं जब मनुष्य को कड़ुवे घूँट पीने पड़ते हैं। कमल की प्राप्ति के लिए दल-दल और कीचड़ से होकर गुजरना पड़ता है। गुलाब का फूल तोड़ते समय काँटों का आघात लग जाना स्वाभाविक है। पहाड़ की चोटी तक पहुँचने में फिसलने, गिर पड़ने, ठोकर लगने की सम्भावनायें बनी रहती हैं।

इस तरह जीवन के सभी क्षेत्रों में मनुष्य को विपरीतताओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन बहुत ही कम लोग जीवन पथ की इन सहज सम्भावनाओं को स्वीकार करके आगे बढ़ पाते हैं। अधिकाँश लोग इनसे हार मान कर बैठ जाते हैं, निराश हो जाते हैं, भविष्य के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण अपना लेते हैं। जीवन की समस्त सम्भावनाओं से मुँह मोड़ लेते हैं।

और भी कई कारण हैं, जिनसे जीवन में निराशा पैदा होती है। शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता भी हमारे जीवन में निराशा भर देती है। शारीरिक अवस्था का हमारी मानसिक स्थिति पर काफी प्रभाव पड़ता है। कहावत है “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन निवास करता है।” किसी भी शारीरिक गड़बड़ी अथवा बीमारी से मानसिक संस्थान कमजोर हो जाता है। वह ठीक-ठीक काम नहीं कर पाता। कोई भी काम शुरू किया कि थकावट, बेचैनी परेशान करने लगती है। चिड़चिड़ाहट, मन न लगना, जीवन और इसके कार्यक्रमों में दिलचस्पी न रहना, उखड़ा-उखड़ा स्वभाव, इनका बहुत कुछ कारण शारीरिक अस्वस्थता ही रहता हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य जीवन को एक भार के रूप में समझने लगता है और निराशा-वादी बन जाता है।

कई बार वातावरण, परिस्थितियाँ भी मनुष्य को जीवन के प्रति निराश कर देती हैं। किसी आत्मीय व्यक्ति का निधन, मित्रों द्वारा धोखेबाजी या कोई घटना विशेष होने पर विवाद आदि से निराशा पैदा हो जाती है। लेकिन इन सामयिक घटनाओं से पैदा होने वाली निराशा अधिक समय तक नहीं टिकती वह जल्दी ही दूर भी हो जाती है।

इन बाह्य कारणों के अतिरिक्त कुछ आन्तरिक कारण भी होते हैं। अधिकाँश निराश व्यक्तियों की मनोस्थिति असन्तुलित और विकृत होती है। उनके सोचने, विचारने का तरीका रचनात्मक न होकर नकारात्मक होती है। उसमें निराशा और अवसाद घर कर लेते हैं तो चारों ओर असफलता ही दिखाई देती है। ऐसी स्थिति में मनुष्य का अपने ऊपर से विश्वास हट जाता है। विकृत मनोस्थिति के व्यक्ति जीवन में आने वाली सामान्य-सी दुर्घटनाओं, असफलताओं, कठिनाइयों को तूल देकर उनका भयावह स्वरूप गढ़ लेते हैं। और उनके भार को ढोते रहते हैं इनका मानसिक स्थिति पर इतना प्रभाव पड़ता है कि जीवन में सफलता, उत्साह, आशा की भावनायें ही नष्ट प्रायः हो जाती हैं। मनुष्य के जीवन में निराशा अवसाद ही शेष रहते हैं। खेल के मैदान में उतरने से पूर्व या कोई काम शुरू करते ही ऐसे लोग अपनी सफलता में सन्देह करने लगते हैं और इसी मनोस्थिति के कारण उन्हें निराश ही होना पड़ता है। असफलता की भावना लेकर परीक्षा में बैठने वालों की सफलता सन्देह-जनक ही रहती है।

इस तरह के विकृत मनोस्थिति के व्यक्ति जीवन और संसार को दुःखों का आधार समझने लगते हैं, वे जीवन के उज्ज्वल पक्ष को प्रायः भूल से जाते हैं।

निराशा चाहे किसी भी कारण से क्यों न पैदा हो जीवन के लिए एक अभिशाप है। यह मनुष्य के कर्तृत्व और पुरुषार्थ को जड़ता की जंजीरों में जकड़ लेती है। मुंशी प्रेमचन्द के शब्दों में “निराशा चारों ओर अन्धकार बनकर दिखाई देती है।” इसमें कोई सन्देह नहीं कि निराशा जीवन में अन्धकार पैदा कर देती है। सभी उज्ज्वल सम्भावनाओं को समाप्त कर देती है। यही जीवन की सारी प्रसन्नता, मस्ती, आनन्द को छीन लेती है। लोकमान्य तिलक ने कहा है “निराश व्यक्ति के जीवन में कोई भी वस्तु प्रसन्नता नहीं भर सकती उसे पग-पग पर मृत्यु दिखाई देती है।” स्वेट मार्डेन ने लिखा है “सभ्यता में उस व्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं जो जीवन से निराश हो बैठा है।”

निराशा, व्यक्ति को कर्तव्य और पुरुषार्थ से हटाकर भाग्यवादी बना देती है। उसकी गतिशीलता को कुण्ठित कर देती हैं। वह भाग्य की अदृश्य शक्ति को ही अपने जीवन का प्रेरक मानता है। उसी के भरोसे हाथ पर हाथ रखे बैठा रहता है। ऐसे निराशावादी व्यक्ति ही ज्योतिषी, भविष्यवक्ता आदि के पीछे चक्कर लगाते रहते हैं। अपने पुरुषार्थ के बल पर भाग्य-निर्माण करने की क्षमता को वे प्रायः भूल से जाते हैं।

निराशा, मनुष्य की शक्ति का बहुत बड़ा अंश खा जाती है। चेतना को हर लेती है। निराशा-जनक विचारों, कल्पनाओं के चिन्तन में मनुष्य की शक्ति बड़ी तेजी से जलने लगती है। यही कारण है कि निराश व्यक्ति जल्दी ही कमजोर, रुग्ण और अशक्त पाये जाते हैं। नियमानुसार रचनात्मक कार्य और विचारों से शक्तियाँ विकसित होती हैं। लेकिन निषेधात्मक विचार और हीन मान्यता से शक्ति का क्षय होने लगता है।

निराशा, मनुष्य की मानसिक स्थिति को भी अस्त-व्यस्त कर देती है। ऐसे व्यक्ति किसी भी काम में दृढ़ता के साथ नहीं लग सकते। यदि जैसे-तैसे काम शुरू भी करते हैं तो जल्दी ही उनका मन उससे उखड़ने लगता है। तनिक-सी कठिनाई, उलझन, आने पर वे अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। घबराहट और काल्पनिक भय उन्हें असन्तुलित बना देता है और वे जल्दी ही हाथ में लिए हुए काम को छोड़ बैठते हैं। इस तरह निराश व्यक्ति के जीवन में असफलता पर असफलतायें आती रहती हैं।

देखा जाय तो सबसे भयानक मौत भी अपने आप में इतनी भयंकर नहीं होती जितना हमारी कल्पना और भय उसे भयंकर बना देते हैं। जीवन में निराश व्यक्ति की मानसिक जटिलतायें इतनी बढ़ जाती हैं कि जीवन-पथ में आने वाली सामान्य-सी बातें भी उसके लिए पहाड़ जैसी कठिनाई के रूप में नजर आती हैं। जीवन जो खेल की तरह जिया जा सकता है, उनके लिए एक जंजाल-से लगने लगता है। भला, ऐसे व्यक्ति को जीवन में सफलता न मिले तो इसमें किसका दोष?

इसमें कोई सन्देह नहीं कि निराशा चाहे वह छोटे ही रूप में क्यों न हो, एक भयंकर मानसिक बीमारी है, जो बढ़ते-बढ़ते एक दिन समस्त जीवन को ही नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। निराशा एक ऐसी भँवर है जो जीवन-नैया को सरलता से डुबा देती है। निराशा एक दल-दल है, जिसमें फँसे हुए व्यक्ति के लिए पश्चात्, दुःख, यन्त्रणा के सिवाय कुछ भी नहीं मिलता—

“निराशावादिनो मन्दा मोहावर्तेऽत्र दुस्तरे।

निमग्ना अवसीदन्ति पंके गावो यथावशाः॥”

निराशावादी लोग प्रगति की भावना से रहित होकर मोह के दुस्तर भंवर में पड़े हुए हैं। वे दलदल में फँसी विवश गायों की तरह दुःख पाते रहते हैं।

निराशा अपने तथा दूसरे लोगों में दुर्गुण बुराइयाँ देखने की प्रेरणा देती है। जीवन और संसार के उज्ज्वल पहलुओं से ऐसा व्यक्ति सदैव आँखें मूँदे रहता है। वह स्वयं को गन्दा समझता है साथ ही दूसरों को भी और इसी लिए वह सबसे घृणा करता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि निराशावाद एक भयंकर राक्षस है जो हमारे आन्तरिक और बाह्य-जीवन को नष्ट करने की ताक में बैठा रहता है।

मनुष्य के विकास, प्रगति और उज्ज्वल भविष्य की रचना में संसार की अन्य बाधायें सामान्य हैं, गौण हैं। ये हमारी गति को रोक नहीं सकतीं। जीवन-पथ का सबसे बड़ा अवरोध, सबसे बड़ी उलझन समस्या हमारी निराशा ही है जो हमारे पुरुषार्थ को पंगु बना देती है। हमारे मन मार देती है, प्रयत्न को जड़ता की जंग लगा देती है। अतः प्रगति के इस भयानक दुश्मन को दूर करने के लिए हमें सदैव प्रयत्न-शील रहना चाहिए।


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