स्वच्छता आपका मूल्य और सम्मान बढ़ाती है।

December 1964

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स्वस्थ जीवन जीने और आरोग्य-लाभ करने के लिये जितनी आवश्यकता आहार, ब्रह्मचर्य, श्रम, निद्रा आदि की है, स्वच्छता और सफाई की उससे कम नहीं। किसी को पौष्टिक पदार्थ बराबर मिलते रहें, आत्म-संयमी भी हो, श्रमशील भी हो पर्याप्त विश्राम व मनोरंजन के साधन भी उसे मिले हों तो भी वह स्वस्थ होगा ही यह नहीं कहा जा सकता । इसके लिए स्वच्छता व सफाई का महत्व कम नहीं है। इसके अभाव में गन्दगी का फूट पड़ना स्वाभाविक है। यह भी कहा जा सकता है कि रोग और दुर्बलता का प्रमुख कारण गन्दगी ही है। पेट साफ न रहे, शारीरिक मल का निष्कासन ठीक प्रकार न हो, तो कौन जाने कब कोई उपद्रव खड़ा हो जाय। त्वचा पर मल जमा हो जाय तो फोड़े-फुन्सियाँ होंगी ही।

सफाई जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है प्रतिदिन दातौन न करें तो दाँत गन्दे हो जाते हैं, बदबू आने लगती हैं और पायरिया हो जाता है। कपड़े साफ न रहें, तो कभी भी मन प्रसन्न न रहेगा। घर की गन्दगी से हर किसी का दम घुटने लगता है। अस्वच्छता सभी को बुरी लगती है। व्यक्ति का मूल्याँकन उसके शरीर पर पहिने बहुमूल्य वस्त्रों से नहीं, उनकी सफाई से आँका जाता है। इसमें दरिद्रता का कहीं भाव उत्पन्न नहीं होता। यह बड़ी ही सरल व सुविधाजनक प्रक्रिया है जिसे हर कोई थोड़ा-सा ध्यान देने, जीवन-चर्या पर दृष्टि दौड़ाने, से पूरी कर सकता है। पर खेद है कि इतना जानते हुए भी लोग सफाई पर पूरा ध्यान नहीं देते। दिखावे के लिए कभी-कभी धराऊ कपड़े भले ही पहन लेते हों अन्यथा दैनिक जीवन में समग्र स्वच्छता की प्रायः उपेक्षा की जाती है।

स्वास्थ्य-रक्षा के लिए सर्वप्रथम शारीरिक स्वच्छता और सफाई पर ध्यान देने की जरूरत है। इसके लिये किसी बड़े खर्च या लम्बे उपकरण जुटाने की आवश्यकता नहीं पड़ती । प्रातः काल उठकर शौच जाने, नियमित रूप से मुँह दाँत कान-नाक की सफाई करने में न तो बहुत समय लगता है न बड़ा खर्च। जिन्हें दन्त-मंजन ब्रुश आदि उपलब्ध नहीं हैं वे भी दातौन सरलता पूर्वक प्राप्त कर सकते हैं। स्नान के लिए साबुन के स्थान पर मुल्तानी मिट्टी का प्रयोग सफाई की दृष्टि से भी अच्छा होता है और शरीर का विष खींच कर बाहर निकाल देने का लाभ भी मिलता है। नीम की दातौन से दाँत भी साफ रहते हैं, मुँह के तमाम रोग वर्द्धक कीटाणु भी मर जाते है। जीभ आदी की सफाई भी आसानी से कर सकते हैं।

इसी प्रकार वस्त्रों की स्वच्छता पर थोड़ा-सा ध्यान रखें तो खुद को भी प्रसन्नता होगी और देखने वालों पर भी इसका अच्छा प्रभाव पड़ता है। यह जरूरी नहीं कि इसके लिये साबुन ही हो। यह कार्य चाहे जैसी सुगमता से उपलब्ध मिट्टी से चलाया जा सकता है। राख को पानी में घोल देने पर मिट्टी नीचे बैठ जाय तो नितरा हुआ पानी भी कपड़े धोने के लिये साबुन की आवश्यकता पूरी कर सकता है। और इनसे भी ठीक साबुन वाली बात पूरी हो जाती है।

शरीर के दूसरे हिस्सों, जिनमें बालों को ठीक सँवार कर रखना, हाथों-पाँवों के नाखूनों को साफ रखना भी आवश्यक है। देखने में यह बातें छोटी प्रतीत होती हैं किन्तु इनका महत्व स्वास्थ्य-रक्षा की दृष्टि में बहुत है। इससे कोई भी उपेक्षणीय नहीं है।

शरीर की बाह्य सफाई के साथ आन्तरिक सफाई भी, जिसमें पेट प्रमुख है, होनी आवश्यक है। इसके लिये एनीमा सर्वसुलभ साधन है। जुलाब लेने की क्रिया हानि कारक होती है, इससे पाचन-क्रिया में भाग लेने वाले रसों का निरर्थक स्राव हो जाने का भय रहता है। यह क्रिया भोजन की सात्विकता और सरलता तथा एनीमा के द्वारा पूरी की जा सकती है। जहाँ एनीमा उपलब्ध न हो वहाँ उपवास द्वारा भी यह कार्य पूरा हो सकता है। अपनी सुविधानुसार एक या एक साथ दोनों का उपयोग हर किसी के लिये लाभदायक सिद्ध हो सकता है।

घर की स्वच्छता का मनुष्य की क्रिया-कुशलता पर प्रभाव पड़ता है। इससे विचारों का निर्माण भी होता है। गन्दे स्थान का दूषित वातावरण लोगों में हीन-भाव जागृत करता है। गन्दे स्थानों का सम्बन्ध बुरे लोगों के साथ लगाया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि व्यक्तित्व के विकास के लिए स्वच्छ व साफ वातावरण आवश्यक है। अपना निवास ऐसा हो जहाँ स्वच्छ व खुली हवा का आवागमन बना रहे। पर्याप्त प्रकाश न मिलने से घरों में सीलन उत्पन्न हो जाती है, इसलिये खिड़की, जंगलेदार मकान हो तो अच्छा है। पास-पड़ोस का रहन-सहन भी साफ रहे, इस का भी ध्यान रहे।

परिस्थितिवश यदि ऐसा स्थान सबके लिए उपलब्ध न हो तो भी उतने स्थान को तो, जिसका अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करते हैं, साफ -सुथरा रख ही सकते हैं। घर की प्रत्येक वस्तु ढंग से सुव्यवस्थित एवं सजाकर रखें। चीजें अस्त-व्यस्त व खुली न रहें। रसोई घर साफ रहें बर्तन ठीक प्रकार मिट्टी से धोये हुए रहें। खाने की वस्तुयें ढकी हुई रहें। पक्के मकानों को फिनायल तथा कच्चे रसोई घरों को पोतनी मिट्टी से धो डाला करें तो वह स्थान भी भला प्रतीत होता है और बीमारी के कीटाणु भी नष्ट हो जाते हैं।

दिन में कम से कम दो बार झाडू लगानी चाहिए। नाबदान में प्रतिदिन पानी डालकर उसकी सफाई करनी चाहिए। बच्चों को जगह-जगह पर टट्टी आदि कर देने से रोकें। कदाचित वे ऐसा कर भी दें तो उस स्थान को तुरन्त साफ कर दें। यह कार्य स्त्रियों का है कि वे घर को हर प्रकार से साफ-सुथरा बनाये रखें। जगह-जगह पर थूक देने की आदत अच्छी नहीं होती। शौच, पेशाब व थूकने आदि के स्थान ऐसी जगह हों जिससे शेष स्थान कम प्रभावित हों। इन्हें साफ भी रखें।

पाक-व्यवस्था में स्वच्छता की आवश्यकता और भी अधिक है। खाना बनाने व परोसने वाले हाथ-पाँव धोकर तथा साफ कपड़े से पोंछकर रसोई घर में जायें। जहाँ तक बन पड़े परोसने में चम्मच, कलछी आदि का प्रयोग करें। बार-बार खाने की चीजों को हाथ लगाना अच्छा नहीं होता। खाने पर मक्खियाँ न बैठने पावें इसका पूरा ध्यान रहे। परोसते समय भोजन जमीन में जरा भी न बिखेरें। इसकी सावधानी रखें। सब्जी रखने वाली टोकरियाँ साफ -सुथरी हों व भाजी साफ करने के पहले व बाद में अपने हाथ धो डालें। काम करते समय कम से कम बात करें।

पीने का पानी छाना हुआ तथा ढका रहे। इसका प्रयोग केवल पीने के लिये करें। बर्तन साफ करने व हाथ मुँह धोने की व्यवस्था अन्यत्र की जानी चाहिए। पीने का पानी निकालते समय यह ध्यान रहे कि बर्तन जिससे पानी निकाल रहे है भली प्रकार माँज कर साफ कर लिया गया है। पाकशाला के ये सामान्य नियम गृहस्थ को बरतने चाहिएं।

हमारे परिवारों में पशु-पालन की परम्परा बड़ी प्राचीन है। इससे लाभ भी होता है। स्वास्थ्य सुधारने वाली कई चीजें हमें पशुओं से भी मिलती हैं। दूध और गोबर के लाभ सर्व-विदित हैं, किन्तु अधिकाँश यह देखा जाता है कि इन जानवरों का स्थान भी मनुष्यों के बीच ही होता है। जिससे उनके मूत्र, गोबर की सड़न व उनके द्वारा निकाली गई गन्दी साँस भी हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। कई लोगों के तो घूरे भी दरवाजे पर ही होते हैं। वर्षा के पानी से सड़कर ये बड़ी दुर्गन्ध पैदा करते हैं जिससे जन-स्वास्थ्य को खतरा बढ़ जाता है। इसलिए प्रयत्न यह होना चाहिए कि जानवरों के वार्ड आदमियों के निवास से दूर रखे जायें और खाद के लिए ‘कम्पोस्ट’ तरीका अपनाया जाय।

गन्दगी किसी भी क्षेत्र की हो उससे मनुष्य का जीवन प्रभावित होता है और रोग की परिस्थितियाँ सामने आती हैं। इससे बचने का—आसान तरीका यही है कि प्रत्येक दैनिक कार्य में स्वच्छता और सफाई का ध्यान रखें। इसकी उपेक्षा करने से स्वास्थ्य पर अहितकर प्रभाव पड़ सकता है अतः शरीर, वस्त्र, निवास आदि से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु, हर एक क्रिया में स्वच्छता का ध्यान बना रहना चाहिए। जितना ध्यान आहार आदि की व्यवस्था का रखते हैं उतना ही स्वच्छता और सफाई पर भी रखें तो ही स्वास्थ्य और आरोग्य लाभ की आशा रखी जा सकती है।

लघु कथायें

अनुचित लोभ से नाश

वाराणसी राज्य में एक ब्राह्मण वैदर्भ मन्त्र जानता था। नक्षत्रों का योग आने पर वह उस मन्त्र बल से स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा करा लेता था। भगवान बुद्ध किसी पूर्व जन्म में इस ब्राह्मण के पास रहकर यह विद्या सीख रहे थे।

एक दिन वह ब्राह्मण भगवान बुद्ध को लेकर विन्ध्या-पर्वत की ओर किसी काम से चल पड़ा। मार्ग बड़ा विकट था। गहन वन में रहने वाले दस्युओं ने उन्हें पकड़ लिया। वे दस्यु इसी प्रकार यात्रियों को पकड़ते थे और एक को धन लाने के लिए भेज कर शेष को बन्दी बनाये रहते थे। जब धन मिलता तब बन्दियों को छोड़ते। यही नीति उन्होंने इन गुरु शिष्य के साथ भी बरती।

बोधिसत्व को धन के लिए भेजा गया और गुरु को बन्दी बना लिया। संयोग से इसी रात वह योग आने वाला था जिस दिन मन्त्र बल से स्वर्ण मुद्रायें बरस सकती थीं। चलते समय बौद्धिसत्व ने गुरु से कहा—कृपा कर इस मन्त्र का यहाँ प्रयोग न करें वरना आपके साथ-साथ इन पचास दस्युओं का भी नाश हो जायगा।

बन्धनों में बंधे पड़े ब्राह्मण ने सोचा जब तक बोधिसत्व लौटें तब तक मैं बन्धनों में बंधा क्या पड़ा रहूँ। आज ही स्वर्ण वर्षा कर इन दस्युओं से छुटकारा क्यों न प्राप्त कर लूँ शिष्य की बात उन्हें व्यर्थ प्रतीत हुई।

दस्युओं को बुलाकर ब्राह्मण ने उनसे कहा—मुझे छोड़ दो। मैं आज रात ही मन्त्र बल से प्रचुर धन देकर तुम्हें धनी बना दूँगा। वे सहमत हो गये। बन्धन खुलने पर ब्राह्मण ने अपना उपचार प्रारम्भ कर दिया।

नियत समय पर स्वर्ण मुद्राएं बरसीं और उस प्रचुर द्रव्य को समेट कर डाकू आगे बढ़ गये। आगे मार्ग विदित न था सो भोर होने तक ब्राह्मण भी उनके साथ ही चल दिया।

रास्ते में दूसरे दल के सौ डाकू मिले और उन्होंने इन पचास को धन लूटने के लिए पकड़ लिया। पकड़े डाकुओं ने कहा—इस ब्राह्मण के पास मन्त्र बल से धन बरसाने की शक्ति है। इससे आप लोग भी हमारी ही तरह धन प्राप्त करें।

धन बरसाने का मन्त्र योग निकल चुका था, ब्राह्मण का दूसरा प्रयत्न सफल न हुआ सो क्रुद्ध डाकुओं ने उसे मार डाला और पकड़े हुए पचास दस्युओं का वध करके उनका धन छीन लिया।

आगे चलकर प्रचुर धन के लाभ से उन डाकुओं में भी दलबन्दी हुई और युद्ध छिड़ गया। दो को छोड़ के शेष 98 घायल हुए और मर गये।

दोनों ने धन समेट कर एक झाड़ी में छिपा लिया और उस दिन सुस्ताकर दूसरे दिन बटवारा कर ले चलने की बात सोची। लोभ उन दोनों के मन में भी था। सो वे परस्पर एक दूसरे को मार कर एकाँकी पूरा धन लेने की बात सोचने लगे। एक ने विष मिश्रित चावल बनाया ताकि दूसरे को खिलाकर मार डाले। चावल पककर तैयार भी न होने पाया था कि साथी ने उस पकाने वाले पर तलवार से प्रहार कर दिया। और स्वयं उस विष मिश्रित चावल को खाकर मर गया।

बौधिसत्व धन लेकर वापिस लौटे और अपने गुरु को छुड़ाने के लिए निर्भचरित स्थान पर पहुँचे तो देखा कि आचार्य समेत एक सौ पचास डाकू भी मरे पड़े हैं। तथागत बहुत दुखी हुए और उदास मन से वापिस लौट आये।

एक प्रवचन में अपने शिष्यों को उपरोक्त प्रयोग सुनाते हुए तथागत ने कहा—अनुचित रीति से धन कमाने और अनुपयुक्त मार्ग से उन्नति की बात सोचने वाले व्यक्ति लाभ नहीं हानि ही उठाते हैं। अपने साथ-साथ और को भी ले डूबते हैं। बिना समुचित श्रम की उन्नति चाहे मन्त्र बल से हो या लूट पाट से अन्त में इसी प्रकार नाश का कारण बनती है जिस प्रकार विदर्भ मन्त्र जानने वाले ब्राह्मण और डेढ़ सौ दस्युओं का विनाश हो गया।

छोटी भूल का बड़ा दुष्परिणाम

कहते हैं कि कलिंग देश का राजा मधुपर्क खा रहा था। उसके प्याले में से असावधानी से थोड़ा सा शहद टपक कर जमीन पर गिर पड़ा।

उस शहद को चाटने मक्खियाँ आ गईं। मक्खियों को इकट्ठी देख छिपकली ललचाई और उन्हें खाने के लिए जा पहुँची। छिपकली को मारने बिल्ली पहुँची। बिल्ली पर दो-तीन कुत्ते टूटे। बिल्ली भाग गई और कुत्ते आपस में लड़कर घायल हो गये।

कुत्तों के मालिक अपने-अपने कुत्तों के पक्ष का समर्थन करने लगे और दूसरे का दोष बताने लगे। उस पर लड़ाई ठन गई। लड़ाई में दोनों और की भीड़ बढ़ी और आखिर सारे शहर में बलवा हो गया। दंगाइयों को मौका मिला तो सरकारी खजाना लूटा और राजमहल में आग लगा दी।

राजा ने इतने बड़े उपद्रव का कारण पूछा तो मन्त्री ने जाँचकर बताया कि भगवन् आपके द्वारा असावधानी से गिराया हुआ थोड़ा-सा शहद ही इतने बड़े दंगे का कारण बन गया है।

तब राजा ने समझा कि छोटी-सी असावधानी भी मनुष्य के लिए कितना बड़ा संकट उत्पन्न कर सकती है।

ईर्ष्या बहुत भारी दोष है।

भगवान ने मनुष्य को बड़ी रच-पच के साथ बनाया। अपनी सभी क्षमताएँ और सुन्दरताएँ उसमें भर दीं।

इस अद्भुत कृति को देखकर भगवती बहुत प्रसन्न हुईं। पर थोड़ी ही देर में उनका चेहरा उदास हो गया।

उदासी का कारण पूछते हुए भगवान बोले—प्रिये, इस कृति में क्या कुछ ऐसा देखा जिससे तुम्हें खिन्न होना पड़ा।

भगवती बोलीं—इस प्राणी की क्षमता और संभावना इतनी अधिक है कि कभी यह हमारे लोक पर भी अधिकार कर सकता है? तब हम लोग कहाँ रहेंगे?

भगवान हँस पड़े। इतनी छोटी बात के लिए खिन्न क्यों हों। मैं एक त्रुटि इसमें रखे देता हूँ जिसके कारण यह अपनी शक्तियों को परस्पर लड़-झगड़ कर बर्बाद करता रहेगा और एक छोटी सीमा से आगे न बढ़ सकेगा।

त्रुटि ईर्ष्या के रूप में रख दी गई। ईर्ष्यालु मनुष्य एक दूसरे की बढ़ोत्तरी में प्रसन्न होने की अपेक्षा जलने झगड़ने लगे। उनकी ईश्वर प्रदत्त सारी क्षमता इसी में नष्ट होने लगी।

साहस नहीं तो कुछ नहीं

बिल्ली के भय से परेशान चूहे ने एक दिन विधाता से प्रार्थना की “मुझे बिल्ली बना दो।” विधाता ने दया करके उसे बिल्ली बना दिया। लेकिन अब उसे कुत्ते का डर लगने लगा। फिर प्रार्थना की तो कुत्ता, कुत्ते से लकड़बग्घा बना दिया, इसी तरह फिर शेर तक बना दिया विधाता ने चूहे को। किन्तु अब उसे शिकारी के डर के मारे नींद नहीं आई। वह फिर प्रार्थना करने लगा। इस बार विधाता को बड़ी घृणा हुई। उसने कहा—”कायर! तुझे चूहे से बिल्ली, बिल्ली से कुत्ता, कुत्ते से लकड़बग्घा और लकड़बग्घा से शेर बना दिया। किन्तु अपने डरपोक मन से तू शेर के शरीर में भी चूहा ही रहा। जा फिर से चूहा हो जा।”

साहस के अभाव में मनुष्य की आधी शक्ति , प्रतिभा-बल चले जाते हैं और आधे उपयोग के अभाव में नष्ट हो जाते हैं।

सत्य और असत्य

एक दिन छाया ने मनुष्य से कहा—लो देखो, तुम जितने थे उतने ही रहे और मैं तुम से कई गुनी बढ़ गई।

मनुष्य मुसकराया उसने कहा—सत्य और असत्य में यही तो अन्तर है। सत्य जितना है, उतना ही रहता है और असत्य पल-पल में घटता-बढ़ता रहता है।

खतरनाक कौन है?

दार्शनिक डायोनीज से एक दिन पूछा गया कि जानवरों में सबसे ज्यादा खतरनाक कौन होते हैं? सो उन्होंने मनुष्यों की ओर इशारा करते हुए कहा—जंगलियों में निन्दक और घरेलुओं में चापलूस।


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