श्रम का सम्मान कीजिए साथ ही श्रमिक का भी

December 1964

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रामायण में एक कथा प्रसंग है। भगवान राम शबरी से मिलने के लिए गए। जहाँ शबरी रहती थी उस बन में राम ने क्या देखा? बहुत ही सुन्दर फूल जो कभी कुम्हलाते नहीं थे। उनमें से मधुर भीनी-भीनी सुगन्ध हर समय निकला करती थी। जब राम ने जिज्ञासावश शबरी से इसका रहस्य पूछा तो व बोली “भगवान इसके पीछे एक घटना है।” वह क्या ? राम ने उत्सुकता पूर्वक पूछा, देव! यहाँ बहुत समय पूर्व मातंग ऋषि का आश्रम था। आश्रम में बहुत से विद्यार्थी रहते थे। दूर-दूर से ऋषि मुनि वहाँ आकर रहते थे। चतुमसि समीप था। आश्रम का ईंधन समाप्त होने को था। बरसात के लिए ईंधन लाना था। प्रमादवश विद्यार्थी जा नहीं रहे थे। एक दिन बड़े सवेरे ही वृद्ध मातंग अपने आप कन्धे पर कुल्हाड़ी रख कर लकड़ियाँ काटने चल दिए। गुरु को जाता देख विद्यार्थी भी उनके पीछे हो लिए और अतिथि भी। सूखी - सूखी लकड़ियां काटीं और उनका भार बाँध-बाँध कर आश्रम की ओर लौटने लगे। हे राम! वृद्ध आचार्य के शरीर से श्रम बिन्दु झलकने लगे। तो विद्यार्थी भी पसीने से तरबतर हो गये।

हे राम! जहाँ-जहाँ उन तपस्वियों के श्रम बिन्दु गिरे वहीं ये “धर्म जानि कुसुमानि” रहस्यमय फूल खिल उठे और बढ़ते-बढ़ते आज सारे वन में फैल गए।”

उक्त कथा अपने आप में कुछ अस्वाभाविक सी लगती है किन्तु उसकी सच्चाई को तिरोहित नहीं किया जा सकता।

इसी कथा के तथ्य की पुष्टि करते हुए पाश्चात्य विचारक सरले ने कहा- “भली प्रकार किए गए कार्य मधुर सुगन्ध देते है और मिट्टी में भी खिलते हैं।” धरती पर जो कुछ भी सुन्दर, नयनाभिराम, आह्लादकारी सुखप्रद जीवनदायी तत्व है वे राब श्रम की ही उपज है। कर्म की खेती से उत्पन्न परिणाम है। सचमुच श्रमजीवी के शरीर से निकलने वाला पसीना ही संसार का पोषण करता है, उसे जीवन जीने की अनुकूल स्थिति पैदा करता है।

किसान यदि अपने पसीने की बूँद खेत में न डालें तो अनाज कहाँ से पैदा होगा? लोगों को खाने के लिए क्या मिलेगा? बुनकर श्रम नहीं करेगा तो संसार नंगा रह जाएगा। हरिजन लोग गन्दगी साफ न करेंगे तो एक दिन सारा संसार नरक तुल्य बन जाएगा। ज्ञान के साधक बुद्धि जीवी ऋषि मनीषी समाज को जीने का सही-सही मार्ग प्रदर्शन और शुद्ध दृष्टि प्रदान न करेंगे तो समस्त समाज ही अस्त-व्यस्त हो जाएगा। कलाकार,गायक, कवि, चित्रकार जन जीवन में सौंदर्य, आनन्द, आह्लाद का सृजन न करेंगे तो सब कुछ नीरस भारस्वरूप लगने लगेगा। संसार के हजामत बनाने वाले लोग यदि एक साथ हड़ताल कर दें तो लोग लंगूर, भालुओं जैसी शक्ल लिए फिरेंगे। दर्जी कपड़ा सीना बन्द करदें तो अच्छे लगते वाले लोग बड़े फूहड़ से दिखाई दें।

प्रत्येक कार्य जिसमें मनुष्य को श्रम की बूँदें बहानी पड़ती है समाज के जीवन के आवश्यक हैं अनिवार्य हैं और सभी अपने-अपने स्थान पर खड़े हैं। महत्वपूर्ण है।

भगवान कृष्ण ने इसी तथ्य को समझाते हुए लोगों को स्वधर्म की शिक्षा दी और कहा अपना अपना कर्म करते हुए प्रत्येक व्यक्ति मोक्ष का अधिकार है चाहे वह कोई भी क्यों न हो। “स्त्रियों, वैश्यास्तणा शुद्रास्तेऽपियान्ति पराँ गत्म्।” उन्होंने सब तरह के कर्म करने वालों को मोक्ष का द्वार खोल दिया। इतना ही नहीं इस कर्म-धर्म की, श्रम की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने अपने जीवन में सब कर्म किए। ग्वाला बन कर गाय चराई। गोबर के उपयोग का आन्दोलन चलाया। सारथी बन कर रथ हाँका, जमीन साफ की झूँठी पत्तलें उठाई। अतिथियों के पैर भर धोए तो गीता का महान उपदेश भी दिया। शान्ति दूत बन कर कौरव पाण्डवों के बीच सन्धि कराने का प्रयत्न किया, तो योद्धा बन कर लड़े भी। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए योगी भी बने रहे।

श्री कृष्ण ने सभी भाँती कर्म की, श्रम की प्रतिष्ठा की। श्रम की प्रतिष्ठा के लिए ही बूढ़े मातंग ऋषि ने भी कुल्हाड़ी उठा कर वन में लकड़ियाँ काटीं उनके शिष्य जिन्होंने अपने आपको केवल पुस्तकों तक ज्ञान चर्चा का ही अधिकारी समझ लिया होगा। उनको ऋषि ने अपने आचरण से श्रम की सीख दी।

समाज के जीवन के लिए सभी कर्म आवश्यक हैं और प्रत्येक अपने आप में महत्व पूर्ण हैं और किसी को ऊँचा और किसी को नीचा नहीं समझा जा सकता। ऐसी प्रतिष्ठा भगवान श्री कृष्ण, आधुनिक युगपुरुष महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक आदि ने भी स्वतन्त्रता का उपदेश देने से पहले समाज में कर्म के प्रति जागृति पैदा की। कर्म के आधार पर जो भेद भाव हो गया, ऊँच नीच पैदा हो गई थी उसे मिटाया। स्वयं महात्मा गाँधी ने टट्टी पेशाब साफ करने से लेकर झाडू निकालने तक, सूत काटने, कपड़ा बुनने से लेकर खेती करने तक, स्वतन्त्रता आन्दोलन चलाने से लेकर लोगों को ज्ञान की सीख देने तक के सब कार्य किए थे। कर्म के आधार पर जो भेद-भाव हमारे यहाँ पैदा हो गया था उसे मिटाने के लिए वे आजीवन प्रयत्न करते रहे। अस्पृश्यता निवारण, हरिजनोद्धार के कार्य, माननीय एकता के लिए बापू आजीवन प्रयत्न करते रहे।

निःसंदेह प्रत्येक कर्म जिस से मानव समाज की सुव्यवस्था सुरक्षा-धारण-पोषण संवर्धन में सहायता मिले वह पवित्र है श्रेष्ठ है। समाज में भी उसका वैसा ही स्थान है जैसा दूसरे कर्म करने वालों का। क्षत्री, वैश्य, शूद्र, चाण्डाल, कसाई, माली, धोबी, नाई सब के सब अपना अपना कार्य करते हुए मोक्ष के अधिकारी हैं, कपड़ा बुनने वाले कबीर, गोरा कुम्हार, सेना नाई, सन्त रैदास, तुलाधार वैश्य ये सब सन्त हमारे यहाँ मोक्ष के अधिकारी माने गए हैं।

कर्म की दृष्टि से ऊँच-नीच की भावना रखना हमारे धर्म, नियम और पूर्वजों के सिद्धान्तों के विरुद्ध है। श्रीकृष्ण, गाँधी, राम की आत्मा इस तरह के भेद-भाव से कितनी दुखी होती होंगी जब एक व्यक्ति अपने आप को ज्ञानी पण्डित विद्वान कह कर सबसे ऊँचा समझता है तो दूसरे सफाई करने वाले, खेती करने वाले को नीचा। वस्तुओं के उत्पादनकर्ता को नीचा समझना और भव्य महलों में बैठ कर गद्दों पर आराम करके उसका उपभोग करने वाला बड़ा समझा जाना कितनी अधर्मयुक्त बात है और इस अधर्माचरण ने ही हमारे समाज को, हमारे देश को खोखला बनाया है। जिस दिन से हमने सामाजिक जीवन में श्रम की कद्र करना कम कर दिया है उसी दिन से हम कमजोर हो गए। टुकड़ों-टुकड़ों में बँट गए। एक दूसरे को नीच बताकर लड़ने लगे। सब कर्मों की, सब धर्मों की प्रतिष्ठा करने वाले श्रम को आदर देने वाले कृष्ण, ऋषि महर्षियों की, सन्तों की आत्मा क्या कहती होंगी हमारी इस दुर्दशा पर।

आवश्यकता इस बात की है कि हम सभी कर्मों को महत्व दें जो समाज के हित में और श्रम के साथ किए जाते हों। क्योंकि किसी एक भी कर्म-व्यवस्था के बन्द हो जाने से सम्पूर्ण समाज के लिए कठिन परिस्थिति पैदा हो सकती है। कर्म के आधार पर ऊँच-नीच, छोटे-बड़े की भावना का हमें त्याग करना होगा। ज्ञान देने वाला ऋषि विद्वान गन्दगी साफ करने वाले हरिजन को नीचा न समझेगा, और साहित्यकार किसी किसान को। न उद्योगपति अपने मजदूर को।

अपनी रुचि, वृत्ति, क्षमताओं के आधार पर कर्मों की भिन्नता हो सकती है। वर्ण व्यवस्था का आधार यह रुचि, वृत्ति, स्वभाव आदि ही मुख्यतया है। इनके अनुसार कोई भी व्यक्ति समाज के अनेकों कार्यों में से अपने लिए उपयुक्त कार्य चुन सकता है। और यह आवश्यक भी है। क्योंकि सभी व्यक्ति एक से कार्य नहीं कर सकते। सभी एक रंग के नहीं होते। धरती के आँगन में खिलने वाले सब फूल में ही अपनी-अपनी भिन्नतायें होती हैं। मानव समाज में भी यदि सभी ऋषि ही ऋषि बन जाएं या कलाकार, गायक या सफाई करने वाले कोई भी एक ही रुचि के व्यक्ति पैदा हो जाएं तो संसार का क्रम ही न चले। विविधता में ही सृष्टि का जीवन और आनन्द है। लेकिन यह विविधता ऊँच-नीच अच्छे-बुरे के रूप में गढ़ ली जाती है वहीं इसका सौंदर्य और आनन्द नष्ट हो जाता है। मानव समाज में अन्याय, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न आदि का दौर-दौरा चालू हो जाता है, संघर्ष होने लगते हैं।


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