सद्भावना से हम दूसरों का हृदय जीत लेते हैं।

December 1964

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सबका प्रिय-पात्र बनने की, दूसरों से अधिक से अधिक स्नेह, प्रेम और आत्मीयता प्राप्त करने की कामना हर किसी को होती है। दुत्कार या ठुकराये जाने के बराबर संसार में और कोई दूसरा दुःख नहीं है। गोस्वामी तुलसी दास ने लिखा है—

यद्यपि जग दारुण दुःख नाना।

सब ते अधिक जाति अपमाना॥

अर्थात्—संसार में दुःखों की कमी नहीं किन्तु जातिगत अपमान और अवहेलना से मानव अन्तःकरण में कटु आघात लगता है। ऐसे समय मनुष्य आत्म-हत्या तक कर डालता है। जीवन को इस तरह नष्ट कर देने का अवसर दूसरों का स्नेह न मिलने से ही आता है।

प्रेम और आत्मीयता प्राप्त करने के लिये अनेक प्रयोग होते हैं। निष्ठुरता और तिरस्कार के बल पर भी लोग दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते हैं। भय और आतंक के कारण सम्भव है कुछ देर तक किसी को अपनी ओर मिलाये रखा जाय पर जो स्वाभाविक निश्छलता मधुर सम्बन्ध के लिये अपेक्षित है वह मिल न पायेगी। अधिकार और शक्ति का बल जैसे ही घटा, अपने कहलाने वाले व्यक्ति दूर चले जायेंगे। कई बार तो उनसे दुराव, दुत्कार और बहिष्कार भी मिलता है अतः यह निर्विवाद है कि आत्मीयता का आधार शक्ति , सत्ता या आतंक नहीं है।

कई व्यक्ति बाहरी बनावट और रूप-आकर्षण के बल पर धन और शृंगार के द्वारा भी दूसरों को आकर्षित करने का प्रयास करते हैं किन्तु यह उपहार क्षणिक होने के कारण प्रभावशील नहीं है। इनसे स्नेह और आत्मीयता का विकृत रूप ही सामने आता है। ओछी प्रवृत्ति के मनुष्य इन कारणों से अपना चरित्र और खो देते हैं। यह प्रयोग भी अन्ततः पतनकारी ही सिद्ध हुआ है।

स्पष्ट होता है कि बाह्य परिस्थितियाँ मनुष्य को स्नेह, प्रेम और सौहार्द का रसास्वादन नहीं करा सकती हैं। यह भाव आध्यात्मिक है। अतः आन्तरिक सद्गुणों के आधार पर ही दूसरों के हृदय मिलाये जा सकते हैं।

विद्वान् इमर्सन ने लिखा है “अपनी चमक से ही आपका अपना विकास होता है—अपना व्यक्तित्व ही दूसरों को आकर्षित करता है।”

सम्मोहन शक्ति मनुष्य के व्यक्तित्व में ही होती है, यह सूक्ष्म तत्व है, जिसका अनुभव तो सभी करते हैं पर व्यक्त नहीं कर सकते। किन्तु यह सर्वमान्य है कि जब भी किसी को सच्ची प्रीति मिलती है तो मनुष्य का जीवन कुछ से कुछ हो जाता है। मनुष्य प्रेम के प्रकाश में अपने जीवन के सारे अभाव भूल जाता है। सत्य तो यह है कि इसी आधार पर संसार आज तक टिका है और अनन्त काल तक चलता रहेगा।

व्यवहार की मधुरता, सरसता और निष्कपटता में वह शक्ति होती है जो दूसरों के बन्द द्वार खोल देती है। प्रारम्भिक मिलन में मनुष्य के मधुर व्यवहार से ही उसके व्यक्तित्व का पता चल जाता है। उसमें एक अलौकिक चुम्बक शक्ति होती है जो लोगों के बन्द हृदय का द्वार खोल देती है। मनुष्य की योग्यता बुद्धिमता और सामर्थ्य से भी अधिक सम्मोहन उसके विनीत स्वभाव में होता है। ऐसे व्यक्ति मिल जाते हैं तो उन्हें छोड़ने का जी नहीं करता। थोड़ी देर और बात करने का हर किसी मन का करता है। भाव और भाषा की विनयशीलता में वह रस, वह प्राण होता है जो अनजान आदमियों को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। विनीत होना मनुष्य के पात्रत्व का लक्षण है। विनीत होना सहयोग प्राप्त करने का साधन है।

नम्रता के लिये हृदय में द्विधा नहीं होनी चाहिये। यह याद रखना है कि चालाक, स्वार्थ-बुद्धि और चाटुकार व्यक्ति भी अच्छी-अच्छी बात बनाकर तात्कालिक लाभ के लिये दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं, ऐसे व्यक्ति अपने मिथ्या व्यापार का अधिक देर तक लाभ नहीं उठा सकते। उनके अभद्र व्यवहार का पता चलेगा तो लोगों की भर्त्सना निंदा और अपमान के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा।

आपकी वाणी से जैसे शब्द निकलें वैसे ही मन में भाव भी हों। जिसके विचार और कर्म, व्यवहार तथा सिद्धान्त में एकता नहीं होगी उसे कभी भी औरों की आत्मीयता नहीं मिलेगी। यह वस्तुतः स्वार्थवादी दृष्टिकोण है जिससे अपने भी पराये हो जाते हैं और जीवन का सम्पूर्ण प्रेम-रस सूख जाता है।

वाणी की सरलता के साथ-साथ विचारों की सबलता भी अपेक्षित है। इसके बिना जीवन में स्थिरता नहीं आती, अधिक ऊँचा नहीं उठता। उद्दात्त चरित्र के व्यक्ति औरों को बड़ी आसानी से अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। विद्वान दार्शनिक जे हावेज का कथन है—”चरित्र एक शक्ति है, प्रभाव है। वह मित्र उत्पन्न करता हैं, सहायता और संरक्षण प्राप्त कराता है और धन, मान तथा सुख का निश्चित मार्ग खोल देता है।”

ऐसे प्रबल आकर्षण शक्ति वाले लोग कभी मिल जाते हैं तो बड़ी प्रेरणा मिलती है। लोग तत्काल ही उनके लिये अपनी भावनाओं का द्वार खोल देते हैं। बिना किसी हिचक या झिझक के उनके समक्ष लोग आत्म-समर्पण कर देते हैं उनके संपर्क में आने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे बाह्य जगत के सुखों से कुछ ऊपर उठ गये हों। हमारा दृष्टिकोण उनके लिये विस्तृत और विशाल बन जाता है आत्मीयता प्राप्त करना सचमुच कोई जादूगरी नहीं है वह विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक प्रशस्ति है। अर्थात् अपने पराये की भेद बुद्धि का जिस क्षण परित्याग कर देते हैं उसी समय दूसरे का हृदय द्वार हमारे लिये खुल जाता है, हम मैत्री पा लेते हैं, सहयोग और आत्मीयता प्राप्त कर लेते हैं।

ऐसी आत्मीयता के कारण अन्तःकरण में नये उत्साह और नई आशाओं का संचार होता है। अपने अन्दर भी सद्गुणों के विकास का संकल्प जागृत होता है। हम जब स्वयं दूसरों के साथ ऐसा ही मधुर व्यवहार करते हैं तो यही प्रतिक्रिया दूसरों के दिलों में उत्पन्न होकर उन्हें आत्मविभोर बना देती है। चरित्र की दृढ़ता और वाणी की सरलता के साथ अभिव्यक्त आत्मा ही सम्पूर्ण सुखों की जननी है। जिनका जीवन इस प्रकार का बन गया है, धन्य हैं वे लोग जो उनके संपर्क में रह रहे हों। उन्हें स्वर्गीय सुखों की अनुभूति इसी जीवन में होती रहती है।

आपके व्यक्तित्व की यह मोहक शक्ति आपको बल तो प्रदान करेगी ही साथ ही आपकी भौतिक सफलताओं की सम्भावनायें भी बढ़ेंगी। दूसरों को प्रसन्न करने की कला जिन्हें नहीं आती वे जीवन व्यापार में असफल ही रहते हैं। प्रसन्नता प्रदान करने का तात्पर्य यह नहीं कि केवल मीठी-मीठी बातें तो करें किन्तु उद्देश्य स्वार्थमय बना रहे। सच्ची प्रसन्नता अपनी स्नेह-शीलता, संवेदन-शीलता, सेवा सहानुभूति, उदारता, भद्रता, आदि नैतिक सद्गुणों के द्वारा विकसित होती है।

इस कार्य में बाह्य परिस्थितियाँ कभी भी बाधक नहीं हो सकतीं। कठिनाइयों में भी स्नेह और करुणा की ज्योति जगाई जा सकती है। आत्मिक सौंदर्य तो यथार्थतः मुसीबतों में ही निखारता है।

ऐसे गुणों का विकास करना जो सबको प्रिय हों, लोक-प्रिय बनने का मूल मन्त्र है। ईर्ष्या-द्वेष यह मनुष्य का दूषण है इसे कोई नहीं चाहता इसलिये हमें भी किसी से ईर्ष्या न करनी चाहिये। प्रेम की भावनायें और अपनी शुभ-कामनायें दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं इसलिये हमें भी स्वहित से उठकर सबसे प्यार पैदा करना चाहिये। जो दूसरों की सहायता नहीं कर सकता भला उससे भी कोई सहयोग करेगा?

अपनी आत्मा को हम जिस वस्तु में मिला देने हैं वही वस्तु अतिशय प्रिय बन जाती है। अपना काला कलूटा बच्चा, दूसरे के गोरे खूबसूरत बच्चे से कहीं अधिक प्यारा लगता है इसलिये कि अपने बच्चे के साथ अपनी आत्मा संयुक्त होती है।

आत्मा का क्षेत्र व्यापक है विशाल है। इसे जितना अधिक विकसित करते हैं उतना ही अधिक सुख और आत्मसंतोष मिलता है। अपनी आत्मा जब फैलकर विश्वात्मा में फूट पड़ती है तो संसार के सम्पूर्ण प्राणियों में अपनी ही आकृति नजर आती है। जब ऐसी स्थिति आती है तो हमारे अन्तःकरण में सभी के लिये प्यार होता है, आत्मीयता होती है। अपना सर्वस्व न्यौछावर करते हैं तभी दूसरों के हृदय जीत लेते हैं। इस सिद्धान्त पर जिनके जीवन आधारित होंगे वे सचमुच इसी धरती में स्वर्ग-लोक के सुखों का उपभोग कर रहे होंगे।


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