स्वास्थ्य का मनोरंजन श्रेष्ठ साधन-संगीत

December 1964

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शारीरिक अथवा मानसिक कोई भी विकृति ऐसी नहीं जिसकी चिकित्सा संगीत की स्वर लहरियों द्वारा न हो सके, यह बात बड़े-बड़े वैज्ञानिकों तथा स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने विभिन्न प्रकार के रोगियों पर, पागलखानों आदि में प्रयोग करके सिद्ध कर दिया है। उनका कहना है कि सम्पूर्ण शरीर में जो तनाव या विकृति पैदा होती है, उसका मूल आधार मस्तिष्क के ज्ञान-तन्तु हैं। संगीत से कानों पर लगी नैसर्गिक झिल्ली प्रकम्पित होती है जो सीधा मस्तिष्क को प्रभावित करती है। मस्तिष्क स्नायु-तन्तुओं के सजग होने से सम्पूर्ण शरीर में चेतना दौड़ जाती है और शक्ति प्रदान करती है जिससे सरलता पूर्वक आरोग्य लाभ मिलने लगता है। संगीताभ्यास के समय चित्त को न केवल विश्रान्ति मिलती है वरन् आत्मिक शक्तियाँ भी जागृत होती हैं।

संगीत तीन उपविभागों में विभक्त हैं। 1.गायन, 2.वादन और 3. नृत्य। ये तीनों ही शरीर, मन और आत्मा को प्रभावित करते हैं। गायन और वादन के स्वर कम्पन विशेष रूप से प्राणियों को प्रभावित करते हैं। सर्प, मोर, हिरण, कोयल आदि तक संगीत के सुमधुर स्वर कम्पनों से मस्त होकर सुध-बुध खो बैठते हैं, मनुष्य पर उस की प्रतिक्रिया का कहना ही क्या। साम-शास्त्रों में तो इसे उत्पत्ति स्थिति और प्रलय का भी कारण माना है।

गायन एक उच्चकोटि का मृदु व्यायाम है। कुश्ती, दौड़ आदि से फेफड़ों की कभी मन्द उत्तेजना उठती है जो हानिकारक भी हो सकती है। किन्तु गाने से हल्की-हल्की मालिश जैसी क्रिया फेफड़ों में होती है, इससे रुधिर में प्राकृतिक विद्युत का अनुपम संचार होने लगता है। डॉ॰ लीक का मत है कि “शारीरिक अवयवों को प्रभावित करने वाली संगीत से बढ़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं।”

प्रसिद्ध स्वास्थ्य-विशेषज्ञ श्री बर्नर मैकफैड़ेन ने लिखा है “गाने से शरीर के विभिन्न अवयवों को श्रम करना पड़ता है जिससे रक्त संचार में वृद्धि होती है। पाचन-क्रिया में सुधार होता है। इससे पेट और छाती की माँस पेशियाँ फैलती हैं। यही क्रिया फेफड़ों में भी होती है जिससे नियमित और बिना रुकावट फेफड़ों का प्रभावशाली व्यायाम हो जाता है। वस्ति-प्रदेश के सभी अवयवों को इससे स्फूर्ति, चैतन्यता और मर्दन प्राप्त होता है।”

न्यूयार्क के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ॰ एडवर्ड पोडोलास्की ने भी अनेकों प्रयोगों से स्वास्थ्य पर पड़ने वाली सूक्ष्म-प्रतिक्रियाओं का गम्भीर अध्ययन किया। उन्होंने लिखा है “गाने से रक्त-सञ्चालन में तीव्रता आती है, शिराओं में नव-जीवन का संचार होता है। शरीर के विषैले पदार्थ व मल दूर होते हैं। गाने से फेफड़ों और कलेजे की कोई भी बीमारी नहीं होती। जिगर सम्बन्धी रोग ठीक करने में इससे बड़ी मदद मिलती है।” पहले रोगी को बेहोश करके इलाज करने की हानिकारक पद्धति के बजाय अब रूस और अमेरिका के डॉक्टर तक यह कार्य संगीत द्वारा पूरा कर देते हैं और आसानी से बड़े-बड़े आपरेशन तक कर डालने में सफल हुए हैं। डॉ. वाल्टर एच वालसे का कथन है कि पाण्डु, यकृत तथा अपच में संगीत का मंत्रवत् प्रभाव पड़ता है।” आमेलिटा गलि कुर्से नामक एक अंगरेज युवती ने लिखा है कि “वह गाने के प्रयोग के कारण निरन्तर 18 वर्ष तक पूर्ण स्वस्थ व निरोग रही। इस अवधि में उसे कोई भी रोग नहीं हुआ। उसने सभी स्वास्थ्य चाहने वालों को यह सलाह दी है कि वे नियमित रूप से गाने का अभ्यास किया करें।” यदि आपका गला सुरीला नहीं है तो भी कोई बात नहीं, आप एकान्त में सिर्फ आन्तरिक अवयवों के व्यायाम एवं मालिश के लिए ही गा लिया करें तो स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव पड़े बिना न रहेगा।

स्वास्थ्य दरअसल उत्तम चरित्र और आत्म संयम पर आधारित है। संगीत का चुनाव यदि इसके अनुरूप किया जाय तो निःसन्देह इससे हर कोई लाभान्वित हो सकता है। पाईथागोरस ने एक स्थान पर लिखा है “संगीत रोगों से छुटकारा दिलाता है वह चरित्र निर्माण में सहायक है आत्मोन्नति का प्रबल कारण है।”

स्नायु-दौर्बल्य, बहुमूत्र, सिर-सर्द, क्षय, अतिसार, तन्द्रा, दाह, विष का प्रभाव, अनिद्रा, हृदय की बीमारियाँ, कुष्ठ, पाण्डु, रक्तचाप, मूर्छा व मानसिक अशान्ति आदि प्रायः सभी रोगों में गायन से तत्काल शान्ति मिलती है। दुखी मन ही रोग-शोक का कारण होता है, उसे संगीत से प्रसन्नता मिलती है जिससे शारीरिक स्वास्थ्य स्थिर बना रहता है। इससे जीभ, कण्ठ और जबड़ों तथा श्वास प्रश्वास की क्रिया से फेफड़ों विशेष रूप से मजबूत बनते हैं।

वाद्य-संगीत यद्यपि उतना प्रभाव शील नहीं होता जितना गायन, किन्तु इससे भी हाथों, छाती व हृदय का व्यायाम हो जाता है। इनमें कुछ वाद्य-यन्त्र ऐसे भी होते हैं, जिनसे मानसिक अशान्ति व चित्त-विभ्रम आदि ऐसे ही दूर होते हैं जैसे गाने से। वीणा, तानपूरा, सितार की स्वर-लहरियाँ बड़ी ही मधुर होती हैं। हारमोनियम, बाँसुरी आदि से चित्त बड़ा प्रसन्न होता है। मुँह से फूँक कर बजाये जाने वाले यन्त्र जैसे बाँसुरी आदि से भी छाती की माँसपेशियाँ फैलती हैं और उससे भी फेफड़ों का व्यायाम होता है।

गायन के साथ यदि वाद्य की संगति कर दी जाय तो और भी अच्छा हो। इससे दोनों के सम्मिश्रण का आनन्द भी मिलता है और अवयवों का व्यायाम भी हो जाता है। कुछ रोगों का तो सम्बन्ध ही वाद्यों से है। आसावरी रोग से सिर दर्द दूर होने, वीणा पर जैजैवन्ती राग से लकवे की शिकायत दूर होने के कई उदाहरण सामने आ चुके हैं। कई स्थानों पर अभी भी माली लोग एक विशेष प्रकार से ताल वाला “पचड़ा” राग गा कर चेचक रोगियों को अच्छा कर देते हैं। यह राग ढोल, झाँझ और मजीरा बजा कर गाया जाता है। इसमें वाद्य-यन्त्रों से उत्पन्न हुई स्वर लहरियाँ ही काम करती हैं। साँप के काटे पर काँसे की थाली बजा कर उपचार करने की पद्धति अभी भी गाँवों में प्रचलित है। विषैले फोड़े भी इस पद्धति में अच्छे किये जाते हैं।

गायन और वाद्य मिलकर भोजन पचाने की अभूतपूर्व क्षमता रखते हैं। पौष्टिक से पौष्टिक आहार भी इससे सुगमता से पच जाते हैं इसलिये भोजन के उपरान्त संगीत का आयोजन रखना विशेष लाभदायक होता है। बच्चों में इससे भूख बढ़ती है। एक डॉक्टर का तो यह मत है कि “इससे बच्चों को घोड़ों जैसी भूख लगती है।”

नृत्य भी गायन-वादन के समान ही मृदु-व्यायाम माना जाता है। इसमें शारीरिक अंग सञ्चालन की आवश्यकता पड़ती है उसी से शरीर का पूर्ण व्यायाम हो जाता है। भारतीय नृत्यों में कत्थक, मणिपुरी, लास्य, ताण्डव आदि बड़े महत्वपूर्ण हैं। इनका प्रभाव न केवल बाह्य-शरीर पर पड़ता है अपितु इससे आत्म-जगत भी क्रियाशील होता है।

शरीर की सम्पूर्ण माँस पेशियों का एक साथ व्यायाम नृत्य से पूरा होता है। इससे शरीर बढ़ता है और माँस पेशियाँ मजबूत होती है। श्वास-प्रश्वास की क्रिया में तीव्रता आती है जिससे रक्त सञ्चालन बढ़ जाता है। फेफड़ों और हृदय का पूर्ण व्यायाम हो जाता है। नृत्य से भूख खूब खुलकर लगती है। आहार ठीक प्रकार पच जाता है। इससे हाथ, पाँव, वक्ष, उदर, नेत्र, ग्रीवा, कण्ठ, कमर आदि का पूर्ण व्यायाम हो जाता है और किसी एक स्थान पर चर्बी जमा नहीं होने पाती जिससे शरीर सुडौल बना रहता है।

इस प्रकार संगीत मानव-जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी वस्तु है। शरीर गत पंच-वायु पर भी इसका प्रभाव होता है जिससे विष निकालने की क्रिया तीव्र होती है और प्राण-विद्युत बढ़ती है। संगीत का सम्बन्ध आत्मा के सूक्ष्म जगत के साथ होने से उसका प्रभाव सर्वोपरि माना गया है। डॉ॰ जार्ज स्टीवेन्सन ने लिखा है “क्रोध उत्पन्न हो तो शारीरिक श्रम में लगें।” “विक्षिप्त मन स्वाध्याय से शान्त होता है।” “शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए व्यायाम की आवश्यकता अनिवार्य है।” इन तीनों के लिए एक और सार्थक उपाय संगीत है। इससे मानसिक तनाव दूर होता है, शान्ति मिलती है और स्वास्थ्य स्थिर रहता है। अतएव अपने जीवन को संगीतमय बनाने का प्रयत्न सभी को करना चाहिये।


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