अपना दृष्टिकोण दूरदर्शिता पूर्ण रहे

December 1964

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दूसरे जीव−जंतुओं की अपेक्षा मनुष्य में विचार, कल्पना, विवेक और अध्ययन की जो विशेषतायें दिखाई देती हैं वह निःसन्देह किसी विशेष प्रयोजन के लिये हैं। इन विशेषताओं को धारण करने वाला पुरुष भी यदि अपना जीवन केवल खाने पहनने और काम-क्रीड़ा में बिताता है तो इसमें उसकी बुद्धिमत्ता न मानी जायगी।

प्राप्त साधन ऐसे हैं जो मनुष्य को उसकी सही स्थिति का ज्ञान करा सकते हैं। ज्ञान के प्रकाश में मनुष्य आत्मा-परिचय प्राप्त कर सकता है। पर यह बड़े खेद की बात है कि मनुष्य के क्रिया-व्यवसाय जन्तुओं से कुछ ही परिमार्जित होते हैं। भिन्नता इतनी ही हो सकती है कि पास पास रहने वाले दो वन्य-पशु स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्राकृतिक प्रेरणा से बना लेते हैं, मनुष्य रास-उल्लास के साथ विवाह क्रिया पूरी करता है। ऐसे विवाह के पीछे जो सात्विक उद्देश्य निहित है उसे यदि न समझा जाय तो पशुओं का ही प्रणय अधिक अच्छा माना जायगा क्योंकि उनमें किसी प्रकार के जंजाल-बखेड़े भी तो नहीं होते।

मनुष्य की श्रेष्ठता उसकी दूरदर्शिता के कारण होती है। जीवन के जिस क्षेत्र में दूरदर्शिता से काम लेते हैं उसी में सफलता की सम्भावनायें बढ़ने लगती हैं। गृहस्थ को ही लीजिए। तत्काल सुख के आकर्षण में जो लोग अपने लिए अधिक अच्छा भोगने की लालसा रखते हैं उनके परिवार में सौहार्द नहीं रह पाता। गृहस्थी के सुख और उसकी समुन्नति इस बात पर निर्भर है कि परिजनों में दूरदर्शिता की पर्याप्त मात्रा है। बच्चा आज पढ़ लेगा तो वह कल श्रेष्ठ नागरिक बनेगा। आत्म-सम्मान बढ़ायेगा और वृद्धावस्था का पाथेय बनेगा। उसकी पढ़ाई में इतना धन इसी से लगाते हैं। यह उचित भी है। कल के निर्माण की नींव आज नहीं मजबूत करते तो यह इमारत तूफान और वर्षा के संघात कैसे सहन करेगी? माता-पिता की सेवा, स्त्रियों की शिक्षा और स्वावलम्बन, भविष्य के लिये निधि संचय-इन्हीं से तो परिवार में सुख शान्ति और सुरक्षा रहती है। परिणाम दूरगामी भले ही हों पर सन्तुष्ट जीवन का आधार यही है कि कर्म का आधार आज के सुख और तात्कालिक सफलता ही न रहें वरन् कल की सुन्दर व्यवस्था को ध्यान में रखकर आज का काम करें।

लोग कहते हैं कि आप बड़े लोभी हैं। एक

रुपया बचाने के लिए बिलकुल रूखा भोजन करते हैं। आप उनसे कृपया पूछिये कि कल यदि आपके बच्चे को चोट लग जाय तो वे आपके लिये दवा का प्रबन्ध कर देंगे? बच्चे की फीस के जवाबदार आप हैं। आपको लोभी बनाने वालों को भला क्या मतलब कि आपके बालक की फीस जमा करा दें। निर्जीव उपहास के लिये, भविष्य को अन्धकारमय बनाना उचित नहीं होता, जो कल की बात सोचता है वह अधिक बुद्धिमान माना जाता है। अभी की बात पर अधिक ध्यान देना असफलता का लक्षण है इससे बचने का प्रयत्न कीजिये।

दूरदर्शिता का अर्थ है संकीर्णता का परित्याग। जब तक मनुष्य के सोचने, करने का क्षेत्र संकुचित और स्वार्थपूर्ण रहता है तब तक वह असीम की अनुभूति से वंचित ही रहता है। छोटे दायरे में विचार करने का अर्थ यह होता है कि मनुष्य की चेतन प्रवृत्तियाँ विकसित नहीं हो रही। वह जड़ता के दुःख पूर्ण अन्धकार में ही—चक्कर लगाता रहता है। पारलौकिक ज्ञान से लोग वंचित रह जाते हैं इसका कारण यह नहीं होता कि उन्हें साधन और परिस्थितियाँ नहीं मिली होतीं। प्राकृतिक उपहार और दैवी अनुदान सभी को एक जैसे मिले हैं। दिन रात सबके लिये निकलते हैं, उसी से हमें प्रकाश मिलता है। वायु, जल, आकाश आदि की नैसर्गिक सुविधायें सबके लिये एक जैसी ही होती हैं। पर एक मनुष्य इन्हें देखकर भी नहीं देखता। वह अपने छोटे-छोटे उद्योगों में ही लगा रहता हैं। सवेरे उठना, काम पर चले जाना, खाना पहिनना आदि बाह्य सुख और सुविधाओं तक ही सीमित रहने वालों को यह घटनायें सामान्य-सी प्रतीत होती हैं किन्तु दूरदर्शी पुरुष इन विलक्षणताओं पर गम्भीरता से विचार करते हैं। उनके मर्म—भेद जानने का प्रयत्न करते हैं। ऊपर से दोनों व्यक्तियों को कार्यों में भले ही समानता दिखाई दे, पर इसमें सन्देह नहीं कि एक अपने संकुचित दृष्टिकोण के कारण क्षुद्र बनता जा रहा है और दूसरा जा रहा है—अनन्त की अनुभूति प्राप्त करने।

भारतीय संस्कृति के पतन का कारण यहाँ के सशक्त लोगों की अदूरदर्शिता ही माना गया है। जयचन्द ने व्यक्तिगत हितों के प्रवाह में इतना भी विचार नहीं किया कि बाह्य शक्ति और संस्कृति का हमारे धर्म और समाज पर कैसा असर पड़ेगा। एक व्यक्ति की संकुचित-वृत्ति से सम्पूर्ण भारत हजार वर्षों तक परतन्त्र बना रहा। इस अवधि में उसका धन, धर्म, संस्कृति और गौरव सब कुछ नष्ट हो गया। अदूरदर्शिता के कारण व्यक्ति और समाज सभी को दुःखमयी परिणाम भोगने पड़ते हैं। व्यक्ति गत जीवन में भी ऐसी ही घटनाएं आये दिन घटित हुआ करती हैं फिर भी लोग अपनी संकुचित-वृत्तियों का परित्याग नहीं करते। दुःख कलह और क्लेश का कारण मनुष्य की विचार निर्णय की अक्षमता ही है।

अपनी समस्याओं से भागने का प्रयत्न न कीजिए। उन्हें दूसरों पर आरोपित भी मत कीजिए। समस्याओं का हल अपने आप को समझने, अपनी शक्तियों को पहचानने और उन्हें बचाये रखने का साधन मात्र है। अपने विचारों में नियन्त्रण रखें और उन्हें अव्यवस्थित न होने दें, तो कठिनाइयों की खराद में मनुष्य का जीवन शुद्ध और सत्वमय बनता है। इनसे मनुष्य की शक्ति और सामर्थ्य का परिपाक होता है। कठिन परिस्थितियों में या जिन समस्याओं को अपने लिए अहितकर मानते हैं, उन पर विचारों को नियन्त्रित न रखने से मनुष्य की परिस्थितियाँ और भी विषम होती हैं और समस्याएं भयंकर रूप धारण कर लेती हैं। जीवन-निर्माण की सही पद्धति यह है कि किसी भी समस्या के अच्छे-बुरे दोनों पहलुओं पर पूरी गम्भीरता के साथ विचार कर लें, तब जो निष्कर्ष निकले, उसे क्रियान्वित करें। इसरोडडडडडड परिणाम की भयंकरता और समस्या की दुरुहता से बच जाते हैं।

जब मनुष्य परिस्थितियों का कारण स्वयं में नहीं ढूँढ़ता और भाग्य या वातावरण को दोष देने लगता है, तभी उसमें अकर्मण्यता आती है। दूसरों को दोषी ठहरा कर झूँठा सन्तोष प्राप्त करने से मानसिक क्लेश और भी अधिक बढ़ते हैं। कोई व्यक्ति निर्धन है, वह सदैव सोचता रहता है कि उसके पास साधन नहीं हैं, पड़ोसी बाधा उत्पन्न करते हैं, आदि। पर गम्भीरतापूर्वक देखे तो निर्धनता का कारण साधनों का अभाव कम और आलस्य अकर्मण्यता अधिक होती है। ईश्वरचन्द विद्यासागर ने एक भिखारी-बालक को एक रुपया देकर रोजगार करने को कहा। बालक में उत्साह था, लग्न थी, कर्मशीलता थी। एक रुपये की पूँजी उसने बढ़ाई तो एक दिन इलाहाबाद का ऊँचा दुकानदार बन गया। साधन कितने ही स्वल्प क्यों न हों, मनुष्य उनका विकास कर सकता है। दोषारोपण करना मनुष्य का निकम्मापन है, इससे उसमें स्वार्थपरायणता आती है। भय और चिन्ता का कारण भी यह स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति ही है।

इन दुःखों से छुटकारे का मार्ग आध्यात्मिक विचारों में है। आध्यात्मिकता का पहला पाठ है—दूरदर्शिता। अर्थात् हमारी बुद्धि इस प्रकार है कि हम उसे जिस वस्तु को जिस रूप में देखने की इच्छा करते हैं, वैसा ही रूप हमारे सामने आ जाता है। अपने संस्कार, कल्पना और विचार के अनुसार, जो वस्तु औरों की दृष्टि में अहितकर होती है, वह हमें प्रिय लगती है, इसका कारण सही विचार-परम्परा या दूरदर्शिता का अभाव मानते हैं। जुआ, शराब, माँसाहार, चोरी, छल, निन्दा आदि नैतिक अपराध हैं, पर इन्हें करने वाले भी पर्याप्त मात्रा में यहाँ मिल जाते हैं। इसका कारण यही है कि उन लोगों ने जो इन विषयों पर सम्यक् विचार नहीं किया, इससे उन्हें इनकी हानियाँ दिखाई नहीं दीं या दुष्परिणामों की उपेक्षा की गई। इन बुराइयों से उत्पन्न स्वास्थ्य की खराबी, धन का अपव्यय, सामाजिक बहिष्कार और भेद आदि बुराइयाँ मनुष्यों को उस समय नहीं दिखाई देतीं, इसलिए उस समय तो उन्हें कर डालता है, किन्तु बाद में उन्हें जब अनेक यातनाओं का सामना करना पड़ता है तब दुःखी होते, सिर धुनते और भाग्य को दोषी ठहराते हैं।


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