मंगल सोचिए, मंगल करिए

August 1964

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इस विश्व में जो भी श्रेष्ठता सौंदर्य और महानता दिखाई पड़ती है वह मनुष्य के सद्विचारों और सत्कर्मों का ही परिणाम है। अपनी अच्छी बुरी भावनाओं के अनुसार ही जीवन में क्रियाशीलता उत्पन्न होती है। जो सोचते हैं वही करते हैं, इसी के अनुरूप अच्छे बुरे कर्मों का दण्ड या पुरस्कार मिलता है। कर्म का महत्व जो जी में आये करने से नहीं होता वरन् उसके भले या बुरे प्रतिफल से होता है। आम का पेड़ लगाना या बबूल बोना दोनों क्रियायें एक जैसी हैं। शक्ति, उद्यम व साधन दोनों को एक समान ही जुटाने पड़ते हैं किन्तु आम रोपने का प्रतिफल सुन्दर स्वादयुक्त फल, सुखद घनी छाया है और बबूल से न तो छाँव मिलती है न मीठे फल। काँटे बिखेर कर दूसरों को दुःख पीड़ा पहुँचाने का अपकार ही बबूल से बन सकता था इसके लिए उसकी सर्वत्र निन्दा व भर्त्सना ही की जाती है।

मनुष्य स्वतः अच्छा या बुरा नहीं है। यह ढलाव तो विचारों के साँचे में होता है। गीली मिट्टी को विभिन्न प्रकार के साँचे में दबाकर भाँति-भाँति के खिलौने बनाते हैं। विचारों के साँचे में व्यक्ति का निर्माण होता है। दूषित स्वार्थपूर्ण विचारों से मनुष्य हीन बनता है। दुष्टता-पूर्ण, दुष्कर्मों के कारण वह दुःख और त्रास पाता है। मंगल-चिन्तन व शुभकर्मों से आन्तरिक सौंदर्य के दर्शन होते हैं श्री, समृद्धि और सफलता का सुख मिलता है।

बुरे विचारों की कीचड़ में फँसा हुआ व्यक्ति अपना प्रभाव खो देता है। यद्यपि उसकी नैसर्गिक पवित्रता नष्ट नहीं हुई, उसकी शक्ति ज्यों की त्यों बनी हुई है किन्तु मान गिर गया, कीमत गिर गई। कुविचार और कुकर्म सदैव मनुष्य को अधोगामी ही बनाते हैं।

देखने में आता है कि लोग प्रायः दूसरों के ऐब निकालते रहते हैं। यह क्रोधी है, वह निकम्मा है। दृढ़तापूर्वक न्यायिक दृष्टि से निरीक्षण करने पर हमें अपने आप में ही अनेकों दोष दिखाई दे जाते हैं, नहीं तो यह छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति ही किस अपराध से कम है। निरन्तर बुरे विचार करते रहने से अशुभ कर्म ही बन सकते हैं। कटुता, कलह, द्वेष, दुर्भाव, विभाजन तथा असहयोग ही इसके परिणाम हो सकते हैं।

पाप-पुण्य की व्याख्या करते हुए महाभारतकार ने लिखा है—

अष्टादशपुराणानाँ सारं सारं समुद्धृतम।

परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीड़नम्॥

न तत्परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः।

एव संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते॥

“ दूसरों के प्रति उपकार करना ही पुण्य और दूसरों को पीड़ा देना ही पाप है। यही समस्त पुराणों का सार है। दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो स्वयं अपने को ही प्रतिकूल जान पड़े। यही समस्त धर्म का सार है। इसके अतिरिक्त दूसरे कर्मों का आधार तो केवल स्वार्थ हैं।”

स्वभावतः मनुष्य की इच्छाओं में बहुत कुछ समानता होती है। दूसरों से प्रेम स्नेह आत्मीयता सहयोग और सहानुभूति की अपेक्षा सभी रखते हैं। पर जब व्यवहारिक रूप में हम दूसरों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं करते तो इसे कुविचार माना जाता है। अपने अहंकार को श्रेष्ठ मानना और अपनी इच्छाओं की उचित अनुचित किसी भी तरह से पूर्ति करने को ही पाप माना गया है। अपकार, को पाप कहते हैं क्योंकि यह दुर्भावनाओं के कारण होता है। परोपकार पुण्य है क्योंकि यह सद्भावना का प्रतीक है। संक्षेप में मंगलमय कामनाएं पुण्य और स्वार्थपूर्ण भावनाओं को ही कहा जा सकता है।

अपने में जो थोड़ी बहुत गुणों की पूँजी है इसी पर प्रसन्नता अनुभव करें और उसे विकसित करें तो मनुष्य एक दिन महानता की मंजिल तक पहुँच जाता है। विचारों के अनुसार ही चेष्टायें जागृत होती हैं। सत्कर्मों के विस्तार से आत्मा-विकसित होती है। आत्म-विकास से स्वर्गीय सुख की रसानुभूति होती है। पुण्य को प्रोत्साहन और पाप की उपेक्षा आत्मानुभूति के सदुद्देश्य से प्रेरित होकर की गई है। आध्यात्म की पहली शिक्षा यह है कि मनुष्य निरन्तर मंगलमय कामनाएँ करे और सदाचारी बने।

यह तभी सम्भव है जब सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिले।

किसी भी अवस्था में मनुष्य की आन्तरिक पवित्रता का पूर्णतया नाश नहीं होता। वह अज्ञान के अंधेरे में ढंकी-सी रहती है। जैसे अग्नि को राख ढक लेती है, वैसे ही दुष्कर्मों की मलिनता में यह आन्तरिक निर्मलता दबी रहती है। इस पवित्रता को पुनः जागृत करने के लिए प्रशंसा और प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है। आत्मनिरीक्षण द्वारा अपनी शक्ति श्रद्धा और विश्वास को जगाये रखें और प्रेरणा व प्रोत्साहन देकर दूसरों की पवित्रता पुनरुज्जीवित करने में सहयोग दें तो इसे महान् शुभ-कर्म मानना पड़ेगा। सामाजिक सुव्यवस्था की नीति यही है कि सब मिल जुलकर एक दूसरे को महानता की ओर अग्रसर करने में सहयोग देते रहें। यह कार्य सद्-विचारों और सत्कर्मों द्वारा सहज ही में पूरा हो जाता है।

मानव-जीवन की सार्थकता के लिए विचार-पवित्रता अनिवार्य है। केवल मात्र-ज्ञान भक्ति और पूजा से मनुष्य का विकास एवं उत्थान नहीं हो सकता। पूजा भक्ति और ज्ञान की उच्चता व श्रेष्ठता का व्यावहारिक रूप से प्रमाण देना पड़ता है। जिसके विचार गन्दे होते हैं उससे सभी घृणा करते हैं। जो वातावरण गन्दा है वहाँ जाने से सभी को झिझक होती है। शरीर गंदा रहे तो स्वस्थ रहना जिस प्रकार कठिन हो जाता है उसी प्रकार मानसिक पवित्रता के अभाव में सज्जनता, प्रेम और सद्-व्यवहार के भाव नहीं उठ सकते। आचार-विचार की पवित्रता से ही व्यक्ति का सम्मान व प्रतिष्ठा होती है।

सतोगुणी विचारों से प्रेरित मनुष्य का खान-पान, रहन-सहन, वेषभूषा भी पवित्र होती है। मन, वचन, कर्म में सर्वत्र शुचिता के दर्शन होते हैं। ऐसा व्यक्ति सभी के हित व कल्याण की बात सोचता है। सभी की भलाई में अपनी भलाई मानता है। इससे दैवी सम्पत्तियों का विस्तार होता है और सुख की परिस्थितियाँ बढ़ने लगती हैं। पूर्व काल में लोग अधिक सुखी होते थे इसका कारण लोगों के आचार-विचार में पर्याप्त पवित्रता थी। अनैतिक कर्मों के बाहुल्य के कारण इस समय दुःखों का बाहुल्य हो रहा है। समय सदा एक सा रहता है किन्तु आचरण और विचारों की भिन्नता के फलस्वरूप एक समय की परिस्थितियाँ सुखद बन जाती हैं और इससे प्रतिकूल परिस्थितियाँ कष्ट व क्लेशदायक रहती हैं।

इन परिस्थितियों को सुधार लेना भी सम्भव है। अपने जीवन को सेवामय बनने दें। इसके लिए अपने हृदय में चाह तथा उत्साह बनाये रखें। सहानुभूति, प्रेम उदारता सहनशीलता और नम्रता से मन की पवित्रता स्थिर बनी रहती है। उसी प्रकार परमात्मा को अन्तर्यामी घट-घटवासी मानने से किसी के प्रति पाप का भाव पैदा न होगा। सामने कोतवाल खड़ा हो तो चोर को तिजोरी में हाथ लगाने की हिम्मत भी न पड़ेगी। “परमात्मा हर घड़ी हमारे साथ रहता है” यह मान्यता जितनी अधिक दृढ़ होती जाती है उतना ही दुष्कर्मों से छुटकारा मिलता जाता है। इससे अपना दृष्टिकोण निर्दोष बनता है।

सच्चे हृदय से जो आत्म कल्याण की बात सोचते हैं उन्हें इसके लिये आवश्यक प्रयत्न भी करने पड़ते हैं। नम्र उदार दयालु उपकारी और दूसरों का सहायक बनना पड़ता है। इन सद्गुणों का विकास एक आदेश में यथावकाश कर लेना ही पर्याप्त नहीं होता वरन् अपने सम्पूर्ण जीवन में इन सद्गुणों का अभ्यास करते रहना पड़ता है। सात्विकता की वृद्धि के साथ-साथ आत्मा में असाधारण शाँति, सन्तोष, प्रसन्नता, उल्लास और आनन्द छाया रहता है। उसका प्रत्येक विचार और कार्य पुण्यमय होता है।

आत्मा की दृष्टि से संसार के सम्पूर्ण प्राणी एक समान हैं। शरीर, धन, मान, पद और प्रतिष्ठा की बहुरूपता आत्मागत् नहीं होती है। इस दृष्टि से ऊँच नीच, वर्णभेद छोटे-बड़े, अशक्त, बलवान धनी या निर्धन का कोई भेदभाव नहीं उठता। परमात्मा के दरबार में सब एक समान हैं, कोई ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, राजा या फकीर नहीं है। जो यह समझकर सबके साथ सदैव पूर्ण भावनायें रखता है वही सच्चा आध्यात्मवादी है।


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