वयोवृद्ध नवयुवक—वेंञ्जामिन फ्रेंकलिन

August 1964

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सर्वतोमुखी प्रतिभा सम्पन्न वेञ्जामिन फ्रेंकलिन को अमेरिका में ही नहीं सारे विश्व में एक जिन्दादिल व्यक्ति के रूप में स्मरण किया जाता है। वह बड़ा हंसोड़, अलमस्त, परिश्रमी और हर काम को पूरी दिलचस्पी से करने वाला मनुष्य था। जीवन की कला को उसने समझा और अपने व्यवहार में उतारा। जेब में एक रुपया भी शेष न हो तो भी वह अपनी तबियत को अमीरों की अपेक्षा गिरी हुई न होने देता था। यद्यपि अन्य व्यक्तियों की तरह अगणित बाधाएं उसे घेरे रहीं और आये दिन विचलित करने वाली समस्याओं का सामना करना पड़ा उसने उन्हें खूबी के साथ सुलझाया भी, पर चेहरे पर नाचने वाली अलमस्ती, बेफिक्री और जिन्दादिली में कभी कुछ कमी न आने दी। निराशा या खिन्न उसे कभी किसी ने नहीं देखा।

अमेरिका के स्वतन्त्रता युद्ध में जार्ज वाशिंगटन का वह दाहिना हाथ माना जाना था। युद्धस्थल में कुशल सेनानी की तरह वह जूझा और जब सन्धि का अवसर आया तो उसने एक विलक्षण कूटनीतिज्ञ की तरह उस कार्य को भी बड़ी बुद्धिमता के साथ पूरा किया।

छोटी स्थिति में वह जन्मा, गरीबी में पला। आगे बढ़ने और ऊपर उठने के लिए उसने पग-पग पर संघर्ष किया, उन्नति के अवसर पाए पर उनका पूरा-पूरा मूल्य चुका कर ही आगे बढ़ सका। लुहार, ठठेरा, बढ़ई, मोची, राज जैसे कठिन परिश्रम के कामों को करते हुए अपनी गुजर का साधन जुटाया। साबुन और मोमबत्ती बनाने का गृह उद्योग अपनाया, तब कहीं जीवन की गाड़ी का पहिया लुढ़क सका। ऐसी स्थिति में दिन काटने वाले व्यक्ति से कौन आशा कर सकता था कि यह किसी दिन अमेरिका के भाग्य-निर्माण में बढ़-चढ़ कर योगदान देने वाला बनेगा और सफल जन-नेता बनने का गौरव प्राप्त करेगा।

फ्रेंकलिन की सबसे बड़ी विशेषता थी जीवन-कला की अभिज्ञता। वे जिन दिनों अमेरिका के भाग्य-आकाश में प्रकाशवान नक्षत्र की तरह चमक रहे थे तब उनके मित्र पूछा करते कि इतनी गई गुजरी स्थिति से उठते हुए इतने आगे बढ़ सकने में किस प्रकार समर्थ हुए? तो वह एक ही उत्तर देते मेरे छह दैवी सहायक हैं और वे इतने सामर्थ्यवान हैं कि उनकी कृपा प्राप्त करके कोई भी साधारण-सा व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर सकता है। मित्रगण उन दैवी सहायकों के नाम पूछते तो वह गिनाते—(1) आशा (2) उत्साह (3) साहस, (4) व्यवस्था (5) मनोयोग और (6) प्रसन्नता।

वेञ्जामिन इन्हीं सद्गुणों के सहारे अभाव और विफलताओं को चीरते हुए आगे बढ़े थे। जो काम भी उनके सामने आता उससे वे प्राणप्रिय मित्र की तरह लिपट जाते। पूरे मनोयोग से उसे करते और यह सोचते कि उसे अधिक सुन्दर, अधिक उत्कृष्ट किस प्रकार बनाया जा सकता है। बारीकी से उसके हर पहलू को समझने की कोशिश करते और ऐसी तरकीब सोचते कि उसमें अपनी कला और कुशलता का समावेश कैसे कर डालें जिससे उनकी वह प्रतिकृति एक आदर्श के रूप में प्रशंसित हो। उनकी एक ही आकाँक्षा रहती कि उनके कार्य उनकी उत्कृष्टता के प्रमाण बन कर प्रशंसा और प्रतिष्ठा प्राप्त करें। यह आकाँक्षा उनकी कृतियों को सर्वांग सुन्दर बनाने में बड़ा काम करती और उन्हें देख-देखकर अपने श्रम को सार्थकता अनुभव करते। यह क्रम निर्बाध गति से चलता रहा और वे अन्ततः संसार के अग्रिणी व्यक्तियों की श्रेणी में गिने जाने लगे।

एक ही व्यक्ति कृषक, श्रमिक, लेखक, वक्ता, पत्रकार, राजनीतिक, दार्शनिक, सेनानी, प्रशासक, संगीतज्ञ और खिलाड़ी कैसे हो सकता है, इस बात पर लोग आश्चर्य करते थे। पर वे कहा करते —इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। समय का निर्धारण और नियत समय पर नियत कार्य में पूरे मनोयोग के साथ लग जाने की आदत जिसे भी होगी वह समयानुसार अपने प्रिय विषयों में निष्ठावान बन सकेगा। अधूरे मन, अधूरे श्रम और अनियमित ढंग से काम करना ही असफलताओं का कारण होता है। जो थोड़े से कार्य में भी प्रगति नहीं कर पाते उसका कारण केवल उनका आलस और अन्यमनस्क ढंग की मानसिक स्थिति ही होती है। फ्रेंकलिन इन दुर्गुणों से लड़कर अपने जीवन क्रम को सुव्यवस्थित बनाने में सफल हुए तो अनेक दिशाओं में उनकी सफलता भी खिल पड़ी।

अमेरिका के उपनिवेशों का उन्हें पोस्ट मास्टर जनरल बनाया गया तो उनने उस पद्धति में भी क्रान्तिकारी सुधार उपस्थित कर दिये। पत्रों पर टिकट चिपकाने की वर्तमान पद्धति उन्होंने चलाई। पुरानी हरकाना प्रथा के स्थान पर आधुनिक डाक वितरण का क्रम उन्होंने चलाया। इस पद पर रहते हुए उन्होंने पत्रकारों से संपर्क बनाये रखा, उनमें लेख लिखे और विज्ञापन छापने का नया तरीका ढूंढ़ निकाला जिससे समाचार पत्र और विज्ञापनदाता दोनों ही लाभान्वित होने लगे। उनकी सूझ-बूझ काम की होती थी। जीवन में जितने भी काम उन्होंने किये, उनमें कोई न कोई क्रान्तिकारी सुधार प्रस्तुत किये बिना उनसे रहा ही न जा सका। लोग उनमें यह प्रतिभा असाधारण जन्म-जात या दैवी होने की बात कहते तो वे उसे अस्वीकार करते और यही कहते मनुष्य शक्तियों का भण्डार है। यदि वह उन्हें काम में लाने की पद्धति जान ले तो हर साधारण समझा जाने वाला व्यक्ति असाधारण बन सकता है। जन्मजात कुछ विशेषतायें हो सकती हैं पर उन्हें विकसित या कुण्ठित करना हर व्यक्ति के अपने हाथ की बात है।

84 वर्ष की आयु में वे 17 अप्रैल 1790 को परलोक सिधारे पर जीवन के अन्तिम दिनों तक बुढ़ापा उन्हें छू भी न पाया था। जवानों की तरह सोचते और जवानी की उमंगों को लेकर काम करते। प्रकृति के नियमों के अनुसार बुढ़ापे ने उनके शरीर को जराजीर्ण कर दिया था, इन्द्रियाँ साथ छोड़ने लगीं थीं, स्वास्थ्य ठीक काम न करता था और जल्दी थकान भी आती थी पर इससे क्या? फ्रेंकलिन कहते—बूढ़ा वह है जो निराश हो गया, बूढ़ा वह है जिसने पुरुषार्थ छोड़ दिया, बूढ़ा वह है जिसकी आकाँक्षायें मर गई। मैं बूढ़ा न कभी हुआ और न बुढ़ापा मेरे पास फटक सकेगा। वयोवृद्ध नवयुवक के नाम से वे विख्यात थे। उनके मित्र उसी उपाधि से उन्हें विभूषित करके सम्बोधन करते। वे वस्तुतः युवक थे और 84 वर्ष की भरी जवानी में ही अपनी जीवन लीला समाप्त करके चले गये।

लोग जिन्दगी जीते तो हैं पर जीना उन्हें आता नहीं। वेञ्जामिन फ्रेंकलिन ने मस्ती, फुर्ती, तत्परता के साथ व्यवस्थापूर्वक जिन्दगी को जिया और हर स्थिति में हँसते रहने की आदत को अपने अनुयायियों एवं प्रशंसकों के लिए एक बहुमूल्य वसीयत के रूप में छोड़ गये।


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