जीवन-सार्थकता की साधना-चरित्र

August 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य जीवन की सार्थकता उज्ज्वल और उद्दात्त चरित्र से होती है। सामाजिक प्रतिष्ठा के भागीदार वे होते हैं जिनमें चारित्रिक बल की न्यूनता नहीं पाई जाती। जिस पर सभी लोग विश्वास करते हों ऐसे ही लोगों की साख औरों पर पड़ती है। पर-उपदेश तो वाक् पटुता के आधार पर धूर्त व्यक्ति तक कर लेते हैं। किन्तु दूसरों को प्रभावित कर पाने की क्षमता, लोगों को सन्मार्ग का प्रकाश दिखाने की शक्ति चरित्रवान् व्यक्तियों में हुआ करती है। सद्-विचारों और सत्कर्मों की एकरूपता को ही चरित्र कहते हैं। जिसके विचार देखने में भले प्रतीत हों किन्तु आचार सर्वथा भिन्न हों, स्वार्थपूर्ण हों, अथवा जिनके विचार छल व कपट से भरे हों और दूसरे को धोखा देने, प्रपंच रचने के उद्देश्य से चिन्ह पूजा के रूप में सत्कर्म करने की आदत होती है उन्हें चरित्रवान् नहीं कहा जा सकता। सत्कर्मों का आधार इच्छा-शक्ति की प्रखरता है। जो अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित रखते हैं और उन्हें सत्कर्मों का रूप देते हैं उन्हीं को चरित्रवान् कहा जा सकता है। संयत इच्छा-शक्ति से प्रेरित सदाचार का ही नाम चरित्र है।

विपुल धन सम्पत्ति, आलीशान मकान, घोड़े-गाड़ी, यश, कीर्ति आदि कमाने एवं विविध भोग भोगने की इच्छा आम लोगों में पाई जाती है बालकों का हित भी इसी में मानते हैं कि उनके लिए उत्तराधिकार में बहुत धन दौलत जमा करके रखी जाय। किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि जिस धन से भावी-सन्तान आत्म-निर्माण न कर सके वह धन क्या? बिना श्रम उत्तराधिकार में मिला धन घातक होता है। सच्ची बपौती व्यक्ति का आदर्श चरित्र होता है, जिससे बालक अपनी प्रतिभा का स्वतः विकास करते हैं। उज्ज्वल चरित्र का आदर्श भावी-सन्तति के जीवन-निर्माण में प्रकाश स्तम्भ का कार्य करता है।

समाज का सौंदर्य, सुख और शान्ति चरित्रवान् व्यक्तियों के द्वारा स्थिर रहती है। दुश्चरित्र और दुराचारी लोगों से सभी भयभीत रहते हैं। उनके पास आने में लज्जा व संकोच अनुभव करते हैं। जो भी उनके संपर्क में आता है उसे ही वे अपने दुष्कर्मों की आग में लपेट लेते हैं। ऐसा समाज दुःख कलह और कटुता से झुलसकर रह जाता है। अनेकों प्रकार की भौतिक सम्पत्तियाँ व साँसारिक सुख सुविधाएँ होते हुए भी लोगों को शान्ति उपलब्ध नहीं होती। अधिकतर लोग कुढ़-कुढ़कर जीवन बिताते रहते हैं। यह सब चारित्रिक न्यूनता के कारण ही होता है।

समाज की सुव्यवस्था का आधार उज्ज्वल चरित्र के व्यक्तियों का बाहुल्य माना गया है। सुख-शान्ति और सन्तोष की परिस्थितियाँ नेक व्यक्तियों के आधार से बनती हैं। प्रेम, स्नेह, मैत्री दया, आत्मीयता और सहानुभूति का वातावरण जहाँ भी रहेगा वहीं स्वर्ग जैसे सुखों की रसानुभूति होने लगती है। जो मनुष्य स्वभावतः दूसरों के साथ उदारता का व्यवहार करते हैं स्नेह बरतते और परोपकार की भावना करते हैं वे अपने चरित्र की उज्ज्वल छाप दूसरों पर भी छोड़ते हैं। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है तो ऐसे स्थान विशेष में स्वर्गिक परिस्थितियों का उभार स्वयमेव होने लगता है। व्यक्ति के चरित्रवान् बनने से ही किसी समाज का सच्चा सुधार हो सकता है। इसलिए चरित्र की महान महत्ता को सभी महापुरुषों ने स्वीकार किया है।

यह देखा जाता है कि लोग अपने बच्चों के नाम रामकृष्ण, शिव-शंकर राणाप्रताप, रणजीत आदि रखना अधिक पसन्द करते हैं। रावण, कंस, या खरदूषण नाम रखना किसी को भी प्रिय नहीं। इससे प्रतीत होता है लोगों में चरित्रवान् की प्रतिष्ठा व सम्मान का भाव अधिक पाया जाता है। यह बात अपने यहाँ ही नहीं हर देश, जाति और संस्कृति में पाई जाती है। इससे चरित्र की महान् महत्ता प्रतिपादित होती है। मनुष्य की कीर्ति, यश और सम्मान का आधार बाह्यजगत की सफलताएँ नहीं हैं। उसकी आन्तरिक श्रेष्ठता के आधार पर युगों तक यश शरीर अमर रहता है। सोलहवीं सदी में सबसे बड़ा पहलवान कौन हुआ, ईसा के जन्म से दो शताब्दी पूर्व कौन व्यक्ति सर्वाधिक धनी हुआ है यह कोई भी न जानता होगा, इतिहास में भी इनका कहीं उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु भगवान राम, कृष्ण, हरिश्चन्द्र शिव, दधीच, अर्जुन आदि चरित्रवान् महापुरुषों की जीवनियाँ आज भी लोगों को मुँह जबानी याद हैं।

दुराचारी व्यक्ति अपनी बाह्य-शक्तियों को भी देर तक बनाए नहीं रख सकते। कुकर्मों पर चलने से उनकी दुर्दशा स्वाभाविक है। फलतः उनका जीवन दिन-दिन पतित होता जाता है और उन्हें निरन्तर नारकीय यन्त्रणायें भोगनी पड़ती हैं किन्तु चरित्रवान् व्यक्तियों को बुरा-समय भी वरदान सिद्ध हुआ है। अपनी चारित्रिक विशेषता के कारण सत्यव्रती हरिश्चंद्र ने अपना खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त कर लिया, उर्वशी का श्राप कालान्तर में अर्जुन के लिए वरदान सिद्ध हुआ। रावण के दुष्कर्मों का फल विनाश के रूप में मिला और विभीषण की नेकी का परिणाम यह हुआ कि उसे लंका की राजगद्दी मिली। चरित्र मनुष्य को सदैव ही ऊँचे उठाता है। परिस्थितियाँ तो चरित्रवान् पुरुषों की चेरी कही गई हैं।

काम-विषयक सदाचार चरित्र की सर्वश्रेष्ठ विशेषता और कसौटी मानी गई है। कुछ अर्थों में “चरित्र” शब्द से मर्यादित कामोपभोग का ही अर्थ लगाया जाता है। जिन देशों में स्त्री-पुरुषों के बीच की शील मर्यादाएँ निश्चित नहीं वहाँ भारी विशृंखलन पैदा हुआ देखा जाता है। पाश्चात्य देश इस कुटिल प्रवंचना में ग्रसित होने के कारण अपना श्रेय खो चुके हैं। पाश्चात्य सिद्धान्तों पर आधारित इस घृणित दुष्प्रवृत्ति के कारण भारतीय संस्कृति और समाज कम अस्त-व्यस्त नहीं हुआ। इस विषैली कामुकता की दुर्भाग्यपूर्ण स्वच्छन्दता ने आज सारे सामाजिक ढाँचे को ही खोखला कर दिया है। इसके दुष्परिणाम भी बुरी तरह से लोगों को आहत बनाने में लगे हैं। स्वास्थ्य की दुर्दशा, अशक्तता, अपहरण, हत्या और आत्म-हत्याओं के आज जितने दृश्य दिखाई दे रहे हैं उन सबका अधिकाँश कारण मनुष्य का चारित्रिक पतन ही है। सदाचार की सीमाएं जब तक निर्धारित न होंगी और दुराचार पर जब-तक प्रतिबंध न लगेगा तब तक समाज में सुख शान्ति और व्यवस्था का स्थापित होना प्रायः असम्भव ही है।

भीतर-बाहर से पवित्र रहने, शुद्ध आचरण करने, श्रेष्ठ पुस्तकों के स्वाध्याय, सत्संग शक्ति पुरुषार्थ, आत्मिक-प्रसन्नता के आधार पर ही मनुष्य की उन्नति सम्भव है। आत्म-नियन्त्रण, संयम और सम्भाषण से न केवल अपने को वरन् अपने पास-पड़ोस और संपर्क में आने वालों को भी सुख मिलता है। मानवता का विकास भी इसी से सम्भव है कि दूसरों को भी अपने ही समान समझें और सबके साथ सद्व्यवहार करें। यह सब चरित्रवान् व्यक्ति के लक्षण हैं। जिनके द्वारा दूसरों को भी आत्म-कल्याण की प्रेरणा मिले वही चरित्र के सच्चे धनी कहे जा सकते हैं।

पर-निन्दा छिद्रान्वेषण, झूठ, छल, कपट, व्यभिचार, लोलुपता ये सब आसुरी प्रवृत्तियाँ हैं। इनसे विनाशकारी परिणाम ही उपस्थित होते हैं। पर आत्म-संयम और स्वत्वाभिमान के द्वारा वैयक्तिक या सामाजिक सभी प्रकार की श्रेष्ठताओं का उदय होता है। चरित्र-साधना का मूलाधार मानसिक पवित्रता है। जीवन के प्रत्येक छोटे-मोटे व्यवसाय व क्रिया-कलापों में मानसिक स्थिति का प्रभाव पड़ता ही है। आत्मिक पवित्रता का परिणाम सदाचरण है जिससे सुख मिलता है। कुविचारों से कुकर्म उठ खड़े होते हैं, जिससे कष्ट, क्लेश और मुसीबतें आ उपस्थित होती हैं। इसलिए छोटे-से-छोटे कार्य में भी पवित्रता का भाव बनाये रखने से चारित्रिक-विकास होता है। प्रातःकाल सोकर उठने से दिनभर कार्यरत रहने और सायंकाल निद्रा-माता की गोद में जाने तक जितने कर्म हमें करने पड़े उनमें पवित्रता का भाव बना रहे तो ही किसी को चरित्रवान कहलाने का सौभाग्य प्राप्त होता है। यह एक साधना है जिसकी सिद्धियाँ अनन्त हैं।

चरित्र का आधार धर्म है। मन वचन और कर्म से धार्मिक कृत्यों के निर्वाह को सदाचार कहा जाता है। इससे चरित्र बनता है। मानवता से ओत-प्रोत भावनाओं से चरित्र की रक्षा सम्भव है। अतएव अपने जीवन में उदारतापूर्वक धार्मिक भावनाओं को धारण किए रहने से चारित्रिक-बल प्रगाढ़ बना रहता है। बुद्धि, धन या शरीर बल तब तक सुख नहीं दे सकते जब तक चरित्र में मानवता बुद्धि में धर्मभाव और शरीर से सत्कर्म नहीं बन पड़ते।

चरित्रवान् बनने के लिये अपनी आत्मिक शक्ति-जगाने की आवश्यकता होती है। तप, संयम और धैर्य से आत्मा बलवान बनती है। कामुकता, लोलुपता व इन्द्रिय-सुखों की बात सोचते रहने से ही आत्म-शक्ति का ह्रास होता है। अपने जीवन में कठिनाइयों और मुसीबतों को स्थान न मिले तो आत्म-शक्ति जागृत नहीं होती। जब तक कष्ट और कठिनाइयों से जूझने का भाव हृदय में नहीं आता तब तक चरित्रवान् बनने की कल्पना साकार रूप धारण नहीं कर सकती।

चरित्र-निर्माण के लिये साहित्य का बड़ा महत्व है। महापुरुषों की जीवन कथायें पढ़ने से स्वयं भी वैसा बनने की इच्छा होती है। विचारों को शक्ति व दृढ़ता प्रदान करने वाला साहित्य आत्म-निर्माण में बड़ा योग देता है। इससे आन्तरिक विशेषताएँ जागृत होती हैं। अच्छी पुस्तकों से प्राप्त प्रेरणा सच्चे मित्र का कार्य करती है इससे जीवन की सही दिशा का ज्ञान होता है। इसके विपरीत अश्लील साहित्य अधःपतन का कारण बनता है। जो साहित्य इन्द्रियों को उत्तेजित करे उससे सदा सौ कोस दूर रहें। इनसे चरित्र दूषित होता है। साहित्य का चुनाव करते समय यह देख लेना अनिवार्य है कि उसमें मानवता के अनुरूप विषयों का सम्पादन हुआ है अथवा नहीं? यदि कोई पुस्तक ऐसी मिल जाय तो उसे ही सच्ची रामायण, गीता, उपनिषद् मानकर वर्णित आदर्शों से अपने जीवन को उच्च बनाने का प्रयास करें तो चारित्रिक संगठन की बात स्वतः पूरी होने लगती है।

हमारी वेषभूषा व खानपान भी हमारे विचारों तथा रहन-सहन को प्रभावित करते हैं। भड़कीले चुस्त व अजीब फैशन के वस्त्र मस्तिष्क पर अपना दूषित प्रभाव डालने से चूकते नहीं। इनसे हर घड़ी सावधान रहें। वस्त्रों में सादगी और सरलता मनुष्य की महानता का परिचय है। इससे किसी भी अवसर पर कठिनाई नहीं पड़ती। मन और बुद्धि की निर्मलता पवित्रता पर इनका बड़ा सौम्य प्रभाव पड़ता है। यही बात खान-पान के संबंध में भी है। आहार की सादगी और सरलता से विचार भी वैसे ही बनते हैं। मादक द्रव्य मिर्च, मसाले, माँस जैसे उत्तेजक पदार्थों से चरित्र-बल क्षीण होता है और पशुवृत्ति जागृत होती है। खान पान की आवश्यकता स्वस्थ रहने के लिए होती है न कि विचार-बल को दूषित बनाने को। आहार में स्वाद-प्रियता से मनोविकार उत्पन्न होते हैं अतः भोजन जो ग्रहण करें वह जीवन रक्षा के उद्देश्य से हो तो भावनायें भी ऊर्ध्वगामी बनती हैं।

चरित्र-रक्षा प्रत्येक मूल्य पर की जानी चाहिये। इसके छोटे-छोटे कार्यों की भी उपेक्षा करना ठीक नहीं। उठना, बैठना, वार्तालाप, मनोरञ्जन के समय भी मर्यादाओं का पालन करने से उक्त आवश्यकता पूरी होती है। सभ्यता का चिन्ह सच्चरित्र सादा जीवन और उच्च विचारों की माना गया है। इससे जीवन में मधुरता और स्वच्छता का समावेश होता है। जीवन की सम्पूर्ण मलिनतायें नष्ट होकर नये प्रकाश का उदय होता है जिससे लोग अपना जीवन लक्ष्य तो पूरा करते ही हैं औरों को भी सुवासित तथा लाभान्वित करते हैं। जीवन सार्थकता की साधना चरित्र है। सच्चे सुख का आधार भी यही है। इसलिए प्रयत्न यही रहे कि हमारा चरित्र सदैव उज्ज्वल रहे, उद्दात्त रहे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles