सत्य के प्रहरी उठो, तारुण्य जागो!
परशुधर के नेत्र के आरुण्य जागो!
हर कलम पर दासता की जंग चढ़ती जा रही है,
हर किरन की ज्योति पल-पल मन्द पड़ती जा रही है।
सत्य का पावक रुपहली राझ ने फिर ढ़क लिया है,
और निर्भय चेतना को नीति ने कीलित किया है।
हर सबल व्यक्तित्व झुकता जा रहा है,
हर हठीला श्वाँस रुकता जा रहा है,
बिक रहा ईमान सुविधा की तराजू पर,
रह गई है आज प्रज्ञा क्रीतदासी भर।
गीत को सौंपा गया है काम केवल आरती का,
बस रिझान भर बचा है भाग केवल भारती का।
बीन पाँचाली कला की,
राजनीतिक हाट में परवश नचाई जा रही है,
और संस्कृति-किन्नरी है,
अर्थ के संकेत पर बेताल गाए जा रही है,
उठो मेरे राष्ट्र के अभिज्ञान जागो?
सुस्त भारत के अबोध विहान जागो?
मर रही है ज्योति, इसमें स्नेह डालो,
यह तुम्हारा दीप है इसको सम्हालो?
—प्रभुदयाल अग्निहोत्री
तुम उनके चरण धुलाओ, जो आगे जाते;
मैं तो उनका हूँ, जो पीछे रह गये आज।
तुम निरख-निरख अकाश-तारिकाएँ गिन लो;
मैं धूल-भरों से पूछूँ-”कैसे गिरी गाज?”
ऋषियों के चरण पखारो, तुम्हें सुहाता है;
मैं, धारा में गिर गए गीत, सो गाता हूँ।
तुम चन्दन, अक्षत, धूप, दीप, लेकर बैठो;
मैं बाढ़ों में, “बायें आओ” चिल्लाता हूँ।
तुम को प्रणाम, मैं कीचड़ में लथपथ-सा हूँ;
किसकी शय्या, संध्या तो आँख-मिचौनी है।
तुम होनी पर बलि हो जाने का रंग रचो;
मेरी होनी, मत कहो कि यह अनहोनी है।
—माखनलाल चतुर्वेदी
आज अपने कण्ठ के स्थर से न मोहो
गीतकारो! अग्नि अंगारे उगल दो
वादकों! संगीत के स्वर ताल तजकर
मातृ-भू रक्षार्थ, रणभेरी बजाओ
अब न भामाशाह! तुम थैली समेटो
मातृ-भू-हित आज निज कर्तव्य पालो
भगतसिंह आजाद, लक्ष्मी, शिवा, राणा, की
शपथ है तुमको—तिजोरी मत सम्हालो
शिक्षकों ! दो आज शिक्षा इस तरह की
देश का प्रत्येक नर राणा, शिवा हो
आज कौशिक! माँग लो अवधेश से सुत
असुर-बध करवा स्वयं का प्रण निबाहो
आज कौशल्या! सुतों को, देश के हित
दान कर दो, और निज कर्तव्य पालो
और बहनों! आज अपनी राखियों के
तार गिनकर भाइयों से मोल माँगो
जड़ कहाँ कब विनय कोई मानता है?
यज्ञ की कीमत-असुर कब जानता है?
अग्रजो! अनुनय विनय का अब न अवसर
लषन को आदेश दो-निज धनुष तानें
आज भारत का हरेक बालक भरत बन
दाँत की बनराज के गणना करेगा
दो बता ऐ बन्धुओं! तुम आज रिपु को
रिपु-दमन फिर सिंहनी का थन दुहेगा, ॥
—श्री सत्यदेव सिंह