मानवता की सेवा सबसे बड़ा धर्म है
साधारण जन समाज के समक्ष ऊँचा तत्वज्ञान या वेदान्त रखने की आवश्यकता नहीं है। यह विशेष श्रेणी के जिज्ञासुओं का विषय है। हम सब जो तत्वज्ञान के पीछे पड़ गये हैं उससे लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक जान पड़ती है। वेदान्त का उपदेश सुनकर लोग सुख की उपेक्षा करने वाले, सुख-दुख को समान समझने वाले तो नहीं बने, उल्टा वेदान्त-सिद्धान्तों की आड़ में भ्रम, दम्भ, प्रमाद, आलस्य आदि दुर्गुण ही बढ़े हैं। इसलिए जैसा महात्मा बुद्ध ने कहा था वही हमको ठीक जान पड़ता है कि आत्मा है या नहीं, वह अविनाशी है या नाशवान, अथवा जगत अनन्त है अथवा सान्त इस तरह के वाद-विवाद में पड़ना अनावश्यक है। हमारा शरीर नाशवान् है यह तो हम अपने प्रतिदिन के अनुभव से जानते ही हैं, उसके परिणाम बाह्य-जगत में क्या होते हैं यह भी हम देखते हैं। उसके आधार पर प्रत्येक मनुष्य को यही विचार करना चाहिये कि मैं अपना कर्तव्य ऐसे उत्तम ढंग से पूरा करूं जिससे मेरे चित्त को शान्ति मिले, जगत में शान्ति बनी रहे और सबके सुख में वृद्धि हो। इस प्रकार सम्पूर्ण जीवन बिताकर मृत्यु के बाद जो भी हो उसे भोगने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। ऐसा विचार और तदनुसार कार्य हम करने लगे तो उससे लोक और परलोक सर्वत्र हमारा कल्याण ही होगा। साधारण जन-मानस इससे ज्यादा गहरी बातें नहीं पचा सकता। इसलिए जिन बातों पर वह आचरण कर सके और कुटुम्ब, समाज आदि के प्रति अपना कर्तव्य-पालन कर सके उतना ही उसे हित-दृष्टि से समझाना चाहिए।
लोगों के मन में परलोक और स्वर्ग-नर्क के विषय में काल्पनिक आशायें अथवा भय पैदा करने की जरूरत नहीं। ईसामसीह ने कहा है—”जैसे व्यवहार की आशा तू दूसरों से रखता है, वैसा ही व्यवहार तू दूसरों के साथ कर।’ इसके सिवा अन्य कल्पनाओं से व्यक्ति या समाज का हित नहीं हो सकता। उनसे हमको ऐसी कोई प्रेरणा नहीं मिलती जिससे वे अपने आस-पास के गरीब लोगों का दुःख दूर करने के लिये, सान्त्वना देने के लिए कटिबद्ध हो सकें। धर्म संबन्धी ये कल्पनाएँ उन्हें मानवता की शिक्षा नहीं देतीं, वरन् संकीर्णता और स्वार्थपरता की ही वृद्धि करती हैं। इसलिए यदि मनुष्य, ज्ञान और भक्ति के अव्यावहारिक और साधारण लोगों की पहुँच से बाहर सिद्धान्तों की अपेक्षा विवेकयुक्त रह कर अपने मानवीय कर्तव्य का पालन करते रहें तो यह एक श्रेष्ठ धर्म होगा।
-‘सुसंवाद’
धर्म और उसका उद्देश्य
मतों और धर्मों की विभिन्नता बाह्य परिस्थितियों तथा भौगोलिक और सामाजिक परम्पराओं से उत्पन्न होती है। समस्त धर्मों का उद्गम तो आध्यात्मिक भावना ही है और उसी पर धर्म का आधार भी होता है। असहनशीलता अबोधता का परिणाम है। बुद्धि समुचित आधार माँगती है, किन्तु जनसाधारण भावना से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं और सहज ही उसका नेतृत्व स्वीकार कर लेते हैं, जिन्हें वे योग्य समझते हैं। महत्वपूर्ण कार्य नेता का अनुसरण करना नहीं है बल्कि स्वयं को परिष्कृत करना है। इस प्रकार जो लोग स्वयं में ही अपने जीवन के संचालन के लिए यह आस्था पाते हैं, वे धन्य हैं। पर बहुत से लोग ऐसे हैं जिनकी बुद्धि और भावनाओं के बीच गहरी खाई है जिसके कारण वे दुःखी रहते हैं। अज्ञानी मनुष्य व्यर्थ ही अपने चारों और अज्ञान का जाल खड़ाकर उस आध्यात्मिकता को असत्य कहने लगते हैं, जिसने अब तक मनुष्य का मार्ग-दर्शन किया है।
—’मनुष्य का भाग्य’
धर्म का सार्वभौमिक स्वरूप
धर्म—सार्वभौमिक धर्म का अर्थ यह नहीं है कि सब लोगों को किसी एक ही सार्वभौमिक दार्शनिक तत्व, या पौराणिक तत्व या आचार-पद्धति को मानकर चलना पड़ेगा। इसका कारण यह है कि यह विश्वरूपी यन्त्र तरह-तरह के अनेक चक्रों से गठित और बहुत विशाल तत्व है। यह सदैव इसी प्रकार बना रहेगा। हम इतना ही कर सकते हैं कि इसके सब चक्रों को साफ रखकर उनका घर्षण-वेग कम कर दें जिससे यह यन्त्र भली प्रकार चलता रहे। इसके लिए हमको मानवमात्र के एकत्व की तरह वैषम्य को भी स्वीकार करना पड़ेगा। हमको यह शिक्षा लेनी होगी की एक ही सत्य का प्रकाश लाखों प्रकाश से होता है और प्रत्येक भाव अपनी निर्दिष्ट सीमा के अन्दर प्रकृत सत्य है। हमको यह सीखना होगा कि किसी भी विषय को सैंकड़ों प्रकार की विभिन्न दृष्टि से देखने पर भी वह एक ही वस्तु रहती है। मान लीजिए कोई मनुष्य पृथ्वी पर खड़ा होकर सूर्योदय को देख रहा है। उसको पहले एक गोलाकृति वस्तु दिखाई देगी। अब मान लीजिए कि उसने एक फोटो लेने का कैमरा लेकर किसी यंत्र में आकाश की यात्रा की और लाखों मील तक विभिन्न स्थानों से सूर्य के चित्र लेता चला गया। ये चित्र साधारण दृष्टि से देखने पर ऐसे जान पड़ेंगे कि भिन्न-भिन्न सूर्यों के चित्र हैं, पर हम अच्छी तरह जानते हैं कि वे सब एक ही सूर्य के हैं। धर्म और ईश्वर के संबंध में भी ऐसा ही होता है।
—’धर्म रहस्य’
सम्प्रदायवादियों के मतभेद निराधार हैं
धर्म का समूल ध्वंस करने के इच्छुक रूसी साम्यवादियों से यदि पूछा जाय कि क्या तुम दया, सत्य, सन्तोष, त्याग, प्रेम, क्षमा आदि गुणों का (जो धर्म के प्रधान लक्षण माने जाते हैं।) नाश करना चाहते हो, तो वे क्या उत्तर देंगे? साम्यवादियों का कट्टर से कट्टर विरोधी इस बात को सिद्ध नहीं कर सकता कि वे उपर्युक्त गुणों का विनाश करना चाहते हैं। दूसरी तरफ भारत के धर्म प्राण कहलाने वाले किसी पन्थ के धार्मिक सज्जनों से प्रश्न किया जाय कि क्या वे असत्य, दम्भ, क्रोध, हिंसा, अनाचार आदि दुर्गुणों का पोषण करना चाहते हैं, या सत्य, मैत्री आदि सद्गुणों के समर्थक हैं, तो निश्चय ही वे भी यही कहेंगे कि वे एक भी दुर्गुण का पक्ष नहीं करते वरन् सभी सद्गुणों की वृद्धि करने के इच्छुक हैं। अब यदि धार्मिक कहलाने वाले कट्टरपंथी हिन्दू और धर्म के शत्रु माने जाने वाले साम्यवादी दोनों ही सद्गुणों का समर्थन करने और दुर्गुणों को दूर करने के विषय में एक मत हैं, तो यह सवाल उठता है कि रूढ़ि पंथी और सुधारवादी इन दोनों के बीच धर्म-रक्षा और धर्म-विच्छेद के नाम पर जो भारी विवाद, खींचतान और मारामारी दिखलाई देती है उसका कारण क्या है? यह मतभेद, यह तकरार ‘धर्म’ नाम की किस वस्तु के विषय में है? सत्य यही है कि विभिन्न मतों या सम्प्रदायों में जो मतभेद अथवा विचार संघर्ष दिखलाई पड़ता है, उसका कोई ठोस आधार नहीं और वह केवल बाह्य क्रियाकाण्डों के विषय में ही होता है।
—’धर्म और समाज’
धर्म बाहर नहीं भीतर रहता है
तीर्थ या मन्दिर में जाने से, तिलक लगाने अथवा विशेष प्रकार के वस्त्र पहनने से धर्म की प्राप्ति नहीं होती। तुम चाहे अपने समस्त शरीर को तिलक और छापों से रंग डालो, पर जब तक आत्मा का दर्शन नहीं करते सब व्यर्थ है। अगर हृदय रंग गया तो बाहर से रंगने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। बाहर के रंग—क्रिया काण्ड जब तक हमारे धार्मिक जीवन में सहायता करते हैं, तब तक उनकी उपयोगिता है, तब तक वे रहें, कोई हानि नहीं। किन्तु जब वे केवल अनुष्ठान मात्र ही होते हैं तब वे धर्म जीवन में सहायक नहीं होते, बल्कि विघ्न डालने वाले होते हैं। लोग इस बाह्य अनुष्ठानों को ही धर्म का स्वरूप समझ लेते हैं। तब मन्दिर चले जाना और पुरोहित को कुछ देना ही धर्म-जीवन का प्रधान अंग बन जाता है। यह अनिष्टकर है, इसे रोकने का यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिये। हमारे शास्त्री बार-बार कहते हैं कि धर्म कभी बाह्य इन्द्रियों के ज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। धर्म वही है जिसके पालन करने से हम आत्मा के स्वरूप का अनुभव कर सकें।
ऐसे ही अनुभव करने वाले प्राचीनकाल में ऋषि कहे जाते थे। हम भी जब तक ऋषि नहीं बनते, जब तक धर्म-जीवन को प्राप्त नहीं कर सकते, तब तक हमारे भीतर धर्म का प्रकाश नहीं हो सकता।
—’जागृति का सन्देश’