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August 1964

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बहु जापात् तथा होमात् कायक्लेशादि विस्तरैः

न भावेन बिना देव यन्त्र मन्त्राः फलप्रदाः।

—भाव चूड़ामणि

भावना विहीन जप, तप, होम उपवास आदि व्यर्थ हैं। भावना के बिना यंत्र, मंत्र तथा देवता फलप्रद नहीं होते।

से जितना उदासीन रहता है उतना ही दुःख और अभाव उसे घेरे रहते हैं।

साँसारिक ज्ञान प्राप्त करना ही अपना लक्ष्य रहा होता तो इसके लिए बुद्धि की चैतन्यता, एकाग्रता एवं जागरुकता ही पर्याप्त थे किन्तु आत्म-ज्ञान का संबंध समस्त प्राणि मात्र में स्वानुभूति करने से होता है। अपने क्रिया-व्यापार को जब तक अपने आप तक ही सीमित रखते हैं तब तक इस परम-तत्व का ज्ञान पाना असंभव है। स्वार्थ की संकीर्ण प्रवृत्ति ही है जो मनुष्य को सत्य का आभास नहीं होने देती किन्तु जब परमार्थ-बुद्धि का समावेश होता है तो सारी ग्रन्थियाँ स्वयमेव खुलने लग पड़ती हैं। जिस प्रकार अस्वच्छ शीशे में सूर्य की किरणों का परावर्तन नहीं होता वैसे ही स्वार्थपूर्ण अन्तःकरण बनाये रखने से आत्मानुभूति सम्भव नहीं। इसलिये अपने आपको दूसरों के हित एवं कल्याण के लिए विकसित होने दीजिए। दूसरों के दुःख दर्द जिस दिन से आपको अपने लगने लगें उसी दिन से आपकी महानता भी विकसित होने लगेगी। सभी के साथ प्रेम-मैत्री, सहयोग सहानुभूति का स्वभाव बनाने से आत्म-ज्ञान का प्रकाश परिवर्द्धित होने लगता है गीताकार ने लिखा है—

नैवतस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कच्चन।

च चास्य सर्वभतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥

अर्थात् आत्मवादी पुरुष का लक्षण है लोक-हितार्थ कर्म करना। क्योंकि सम्पूर्ण प्राणियों में स्वार्थ का कोई संबंध नहीं है। सभी विश्वचेतना के ही अंग हैं फिर किसी के प्रति परायेपन का भेदभाव क्यों करे? अपने ही सुखों को प्रधानता देने में जो क्षणिक आनन्द अनुभव कर इसी में लगे रहते हैं उनसे यह आशा नहीं रखी जा सकती कि वे आत्मोद्धार कर लेंगे। पर जिसे अपना मानव-जीवन सार्थक बनाना है, जिसने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया है उसके लिए यही उचित है कि वह खुले मस्तिष्क से सभी में अपने आपको ही रमा हुआ देखे। ऐसी अवस्था में किसी को दुःख देने या उत्पीड़ित करने की भावना भला क्यों बनेगी।

आत्मज्ञान और आत्मानुभूति के मूल उद्देश्य को लेकर ही हम इस संसार में आये हैं। मानव-जीवन की सार्थकता भी इसी में है कि वह अपने गुण कर्म और स्वभाव में मानवोचित सदाचार का समावेश करे और लोकहित में ही अपना हित समझे। मनुष्य एक विषय है तो संसार उसकी व्याख्या। अपने आपको जानना है तो सम्पूर्ण विश्व के साथ अपनी आत्मीयता स्थापित करनी पड़ेगी। आत्मा विशाल है वह एक सीमित क्षेत्र में बंधी नहीं रह सकती। सम्पूर्ण संसार ही उसका क्रीड़ाक्षेत्र है। अपनी चेतना को भी विश्वचेतना के साथ जोड़ देने से आत्मज्ञान का प्रकाश स्वतः प्रस्फुटित होने लगता है।

इस प्रकार जब मनुष्य साँसारिक तथा इन्द्रियजन्य परतन्त्रता से मुक्त होने लगता है तो उसकी महानता विकसित होने लगती है। आत्मा की स्वतंत्रता परिलक्षित होने लगती है, आत्मबल का संचार होने लगता है। स्वाभाविक पवित्रता और प्रफुल्लता का वातावरण फूट निकलता है। आत्मा की गौरवपूर्ण महत्ता प्राप्त कर मनुष्य का इहलौकिक उद्देश्य पूरा हो जाता है। अपने लिये भी यही आवश्यक है कि हम अपनी इस प्रस्तुत महानता को जगायें, इसके लिये आज से और अभी से लग जायें। ताकि अपने अवशेष जीवन का सच्चा सदुपयोग हो सके।


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