युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति

August 1964

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आँदोलन का द्वितीय वर्ष और हमारे उत्तरदायित्व

गत 24 जुलाई (गुरु पूर्णिमा) से युग-निर्माण आँदोलन का प्रथम वर्ष पूरा होकर द्वितीय वर्ष आरम्भ हुआ है। प्रथम वर्ष में इस महान विचारधाराओं का भारतवर्ष में ही नहीं, 17 अन्य देशों में भी, जहाँ अखण्ड-ज्योति पहुँचती है, उत्साहवर्धक प्रसार हुआ है। इस सत्प्रयास का विचारशील क्षेत्रों में सर्वत्र जैसा आशाजनक स्वागत हुआ है, उसे देखते हुए स्पष्ट है कि यह युग की पुकार—अनसुनी एवं उपेक्षित नहीं रह सकती। जिस दिव्य प्रेरणा के आधार पर इस पुण्य प्रकाश का अवतरण हुआ है उसकी सामर्थ्य को देखते हुए यह निश्चित है कि यह महान अभियान अपने निर्धारित लक्ष्य को पूरा करके रहेगा।

ज्येष्ठ के तीन शिविरों में आये हुए ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के विचारशील सक्रिय सदस्यों के परामर्श से अगले वर्ष के कार्यक्रम की रूप-रेखा निर्धारित कर ली गई है। जुलाई अंक में इसे विस्तारपूर्वक छाप भी दिया गया है। आत्म-निर्माण की जीवन साधना के लिए हम में से प्रत्येक को 10 कार्यक्रम अपनाने आरम्भ कर देने चाहिएं। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन, और सभ्य समाज की अभिनव रचना हमारे लक्ष्य की आवश्यक माध्यम है। इसके संदर्भ में आरोग्य के लिए 10 और मनोबल बढ़ाने के लिए 10 कार्यक्रम निर्धारित किये गए हैं। इस बीस सूत्री योजना के आधार पर हम में से प्रत्येक को अपना निज का निर्माण करना है। अपना निर्माण करने से ही युग-निर्माण आरम्भ होगा। दूसरों को उपदेश करने से नहीं अपने परिवर्तन करने से यह पुण्य प्रक्रिया गतिशील बनेगी। इसलिए हम सबको आत्म-निर्माण के पथ पर अधिक तत्परता से अग्रसर होना है।

सभ्य समाज की रचना के लिए 10 सूत्री कार्यक्रम सामने है। पुण्य परमार्थ की भावना जिनके भी मन में उठती हो उन्हें समाज के नये निर्माण में अपनी शक्ति लगानी चाहिए। क्योंकि आज की अगणित समस्यायें तब तक नहीं सुलझेंगी जब तक समाज का वर्तमान स्वरूप और ढाँचा बदल न जाय। पत्तों को खींचने की अपेक्षा जड़ में पानी देने से ही मुरझाये पेड़ के हरे होने की आवश्यकता पूर्ण होगी।

विवाहों में अनावश्यक अपव्यय हिन्दू समाज की अत्यन्त घातक कुप्रथा है। अपने परिवार को इस ओर विशेष ध्यान देना है और ऐसी परम्पराओं को जन्म देने में अग्रणी बनना है जिससे दूसरे लोगों को अनुकरणीय प्रकाश मिल सके। दहेज आदि कुरीतियों को कोसते रहने का समय चला गया अब हमें रचनात्मक कदम उठाने होंगे आदर्श विवाहों की परम्परा हमीं लोग स्थापित न कर सके तो फिर सर्व साधारण से क्या आशा की जा सकेगी। जुलाई अंक में 12 सूत्री कार्यक्रम दहेज उन्मूलन की रूप रेखा का छपा है। इस ओर आवश्यक ध्यान दिया जाना है और अपने परिवार में ऐसे अनेक विवाह सम्पन्न किए जाने हैं जिनका स्वरूप देखकर दूसरों को प्रकाश एवं प्रोत्साहन मिले।

आदर्श विवाहों का स्वरूप क्या हो? इस संबंध में समाज विज्ञान के ज्ञाता मनीषियों से परामर्श चल रहा है। अगले महीने उसकी एक आचार-पद्धति प्रकाशित कर दी जावेगी। उस आधार पर हमें अपने लड़की लड़कों के विवाह की विधि व्यवस्था बनाने के लिए आवश्यक साहस एकत्रित करना पड़ेगा। नन्हीं मुन्नी बच्चियों के गले में कालपाश की तरह लिपटे हुए इस विषधर दहेज और अपव्यय को रोकना ही अभीष्ट है। हम अग्रिम पंक्ति में चलने वालों को भी प्राथमिक कठिनाइयों का सामना करना है। पीछे वालों के लिए रास्ता साफ करने की अपनी ही तो जिम्मेदारी है। यदि हम लोग यह सब कर सके तो निःसन्देह यह सुधार एक ऐतिहासिक घटना के रूप में स्मरण किया जाता रहेगा।

आदर्श विवाहों में सबसे बड़ी कठिनाई समान विचारों के समान स्थिति के संबंधों के न मिलने से ही होती है। चूँकि अपनी जाति उपजाति में ही विवाह संबंध तय करने पड़ते हैं इसलिए प्रत्येक जाति में ऐसे प्रगतिशील वर्ग का निर्माण होना आवश्यक है जो अपनी लड़कियों का ही नहीं लड़कों का विवाह भी आदर्शवादिता का ध्यान रखते हुए करने को तैयार हों। इसके लिए प्रगतिशील जातीय संगठनों की रचना आरम्भ करने के अतिरिक्त वर्तमान परिस्थितियों में और कोई मार्ग नहीं। ‘अखण्ड-ज्योति’ के सदस्यों की संख्या बहुत बड़ी है। इन सदस्यों के प्रभाव में जो परिवार हैं, उनकी संख्या लाखों तक पहुँचती है। इन्हें प्रगतिशील जातीय संगठनों में संगठित करके आदर्शवादी दोनों पक्ष मिल सकना सरल हो सकता है। अपने परिवार के अंतर्गत यह संगठन आरम्भ करके पीछे उसका स्वतन्त्र जातीय संगठन चलता रह सकता है। पर अभी आरम्भ तो हमीं लोगों को करना है।

उपरोक्त कार्यक्रमों को आवश्यक प्रगति मिल सके इसके लिए निताँत आवश्यक यह है कि ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार का नियमित और व्यवस्थित स्वरूप एक सुसंगठित परिवार के रूप में बन जाय। यों इस संगठन को किसी सभा, सोसाइटी के ढंग से गठित करके पार्टीबन्दी और व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं का अखाड़ा नहीं बनने देना है। फिर भी जिस प्रकार हर कुटुम्ब अपने आप में एक व्यवस्थिति इकाई होता है उसी प्रकार हम भी एक संगठित इकाई के रूप में रहकर ही कुछ कहने लायक प्रगति कर सकेंगे। संगठन के बिना युग-निर्माण जैसे महान अभियान की सफलता संभव नहीं। इसलिए यह कार्य इसी महीने पूरा कर लिया जाना चाहिए ताकि आगे का कार्य क्रमबद्ध रूप में चलने लगे।

हर जगह यह प्रयत्न होना चाहिए कि जहाँ ‘अखण्ड-ज्योति’ के जितने सदस्य हैं वे परस्पर इकट्ठे होकर एक कौटुम्बिक संगठन बना लें। बहुत स्थानों पर यह कार्य गुरु-पूर्णिमा के पुनीत पर्व पर पूर्ण कर लिया गया है। जहाँ अभी यह नहीं हुआ है वह इस अगस्त मास में पूरा कर लिया जाना चाहिए। इससे भी आगे के लिए इस काम को पड़ा नहीं रहने देना चाहिए। यों दस सदस्यों की एक शाखा मानी गई है पर जहाँ उतने नहीं है वहाँ आरम्भिक काम चलाऊ दृष्टि से पाँच सदस्यों पर भी एक शाखा संगठन बन जाना चाहिए।

सब सदस्यों को इकट्ठे करके उन्हें ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के युग-निर्माण योजना की सदस्यता का—उत्तरदायित्व समझाना चाहिये। केवल पत्रिका मंगा लेना ही पर्याप्त नहीं वरन् उनके लिए यह भी आवश्यक है कि समय-समय पर इकट्ठे होने एवं मिल बैठ कर विचार विनिमय करते रहने में भी आवश्यक उत्साह रक्खें। परिवार के हर सदस्य को युग-निर्माण संगठन का एक अंग होकर रहना चाहिए।

पाँच व्यक्तियों की एक कार्यकारी समिति चुन लेनी चाहिए और उनमें से एक को शाखा संचालक बना देना चाहिए। शाखा का कार्यालय स्थान नियम हो जाना चाहिए। इसके लिए एक कमरा किसी भी सज्जन का उपयोग के लिए लिया जा सकता है। इस पर युग-निर्माण केन्द्र का बोर्ड रहे और छह छोटे रजिस्टर रहें, जिनमें (1) मीटिंगों की कार्यवाही, (2) हिसाब (3) पुस्तकालय विवरण (4) किए गये कार्यों का ब्यौरा (5) विचारशील लोगों द्वार मिलते रहने वाले सुझावों का उल्लेख (6) पत्र व्यवहार का ब्यौरा लिखा जाता रहे।

इस शाखा केन्द्र को आरम्भ में एक छोटे पुस्तकालय का रूप दिया जा सकता है। जिसमें जीवन निर्माण प्रेरणा का युग-निर्माणकारी तेजस्वी साहित्य ही रक्खा जाय। सदस्यों का यह कर्तव्य हो कि वे इस साहित्य को स्वयं पढ़ें, घर वालों को पढ़ायें, सुनायें और दूसरे नये लोगों में इन विचारों को पढ़ने की अभिरुचि उत्पन्न करने के लिए अपने प्रभाव, बुद्धिबल और उत्साह का पूरा-पूरा उपयोग करें। यह निश्चित है कि इस अभियान में अन्त तक केवल वे ही लोग डटे रह सकेंगे जिन्हें इस विचारधारा के पढ़ने सुनने में रस आने लगा होगा। जिनकी इस ओर उपेक्षा बुद्धि बनी रही वे थोड़ा बहुत भजन भले ही कर लें, नव-निर्माण की दृष्टि से दो कौड़ी के ही सिद्ध होंगे। निरन्तर प्रेरणा मिलते रहने से ही धर्म मार्ग पर चलने का साहस स्थिर रहता है। यह कर्म स्वाध्याय और सत्संग से ही सम्भव है। ‘अखण्ड-ज्योति’ स्वाध्याय की सामग्री विनिर्मित करती है पर उसको हृदयंगम करने एवं मूर्तरूप मिलने का उद्देश्य तो सत्संग से ही संभव होगा। युग-निर्माण शाखाओं में सत्संग को मूर्तिमान ज्ञान मन्दिरों का रूप दिया जाना है जहाँ सदस्यगण एकत्रित होकर परस्पर एक दूसरे को प्रेरणा उत्साह एवं मार्ग-दर्शन प्रदान करते रह सकें।

‘अखण्ड-ज्योति’ केवल प्रेरणा प्रस्तुत कर सकती है। फिर भी वह कागज के पन्नों का पुलिन्दा मात्र है। उसकी प्रेरणाओं को कौन व्यक्ति, किस प्रकार, कब, किस सीमा तक कार्यान्वित करे, और किस की शिथिलता कैसे दूर हो? किन परिस्थितियों में कहाँ क्या प्रगति संभव हो सकती है यह सब विचार करना व्यक्तियों का काम है और वे व्यक्ति संगठित शाखा के रूप में जब एकत्रित हों तभी कुछ काम बनेगा। माना कि ऐसी प्रवृत्तियों को चलाने वाले कुछ ही लोग होते हैं और उन्हीं के प्रयत्न से सारा ढाँचा खड़ा रहता है फिर भी उन्हें संगठन के रूप में कार्य करते हुए सुविधा रहती है। यदि विचार निर्माण तक की ही बात होती तो उसे ‘अखण्ड-ज्योति’ के पृष्ठ भी एक हद तक पूरा कर सकते थे, पर चूँकि योजना के साथ-साथ अनेक—108 कार्यक्रम भी जुड़े हुए हैं, उन्हें अग्रगामी बनाने के लिए व्यक्तियों का प्रत्यक्ष सहयोग समय दान एवं संगठन ही सफल बना सकता है। इसलिये पिछले वर्ष बलपूर्वक यह अनुरोध किया जाता रहा कि जहाँ जिन नगरों, कस्बों और गाँवों में थोड़ी-थोड़ी भी ‘अखण्ड-ज्योति’ पहुँचती हो, वहाँ युग-निर्माण परिवार का नियमित संगठन बन जाना चाहिए।

अब वह समय आ गया , जब कि बिना विलम्ब लगाये यह संगठन कार्य पूरा कर लेना चाहिये। आशा यह की जायगी कि अगस्त में हर जगह मीटिंग बुलाकर एक विधिवत् संगठन बना लिया जाय। और उसकी सूचना मथुरा भेज दी जाय ताकि नये पाक्षिक पत्र ‘युग-निर्माण योजना’ में उसे छापा जा सके।


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