निर्धनता अभिशाप नहीं है।

August 1964

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“मुझे यदि दूसरा जन्म मिला तो परमात्मा से कहूँगा मालिक! तुम मुझे किसी कल-कारखाने का मजदूर या खेत-खलिहान का किसान बनाना। तू ने मुझे निर्धन बनाया तो समझूँगा वरदान मिला धन का अभिशाप तो इसी जीवन में भोग रहा हूँ।” उक्त शब्द संसार के प्रथम धनपति अमेरिका निवासी हेनरी फोर्ड ने अपनी डायरी में लिखे हैं। इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए उसने आगे लिखा है कि धन की अधिकता के कारण सारा जीवन अनियमित वासनाओं और कामनाओं में बिताने के फलस्वरूप आज मेरी स्थिति ऐसी हो गई है कि विपुल सम्पत्ति होते हुए भी चाय और सिगरेट के अतिरिक्त और कुछ भी लेने के लिए डाक्टरों ने मना कर दिया है।

इस बात से यह मानने के लिए विवश होना पड़ता है कि इस संसार में सुखी और सन्तुष्ट जीवन जीने का आधार धन नहीं है। यदि मनुष्य का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है, उसका चरित्र दूषित है तो धन मात्र से सुख की कल्पना नहीं की जा सकती है। किसी अंश तक क्षणिक सुखोपभोग कर लिया गया थोड़ी देर के लिए, उठने वाली इन्द्रियों की हुड़क को पूरा कर लिया गया, फिर शेष जीवन अभावों दुःखों और तकलीफों का जीवन जिया गया तो कौन ऐसे धन का सम्मान करेगा, उसी को जीवन की सुख सुविधाओं का आधार मानेगा।

जीवित रहने के लिये धन की इतनी उपयोगिता तो समझ में आती है कि आहार, वस्त्र, निवास आदि की सुविधाएं बनी रहें। आध्यात्मिक प्रगति, सामाजिक सुव्यवस्था और मंगलमय जीवन के लिए भी अर्थ-व्यवस्था आवश्यक जान पड़ती है। शरीर और मन की आवश्यकताओं की पूर्ति भी इसी से सम्भव है। इस दृष्टि से जीविकोपार्जन सभी को करना पड़ता है किन्तु यदि भोजन, घर, वस्त्र और गृहस्थी की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाय तो इससे बढ़कर भौतिक सुखों के लिये अधिक धन की क्या आवश्यकता है? इसके लिए तो दुष्कर्मों का ही आश्रय लेना पड़ेगा। परिस्थितिवश किसी को वैध तरीके से उत्तराधिकार आदि में अधिक धन की उपलब्धि हो जाय यह बात अलग है अन्यथा अधिकाँश धन-संचय के लिए दूसरों के अधिकारों का ही हनन करना पड़ता है। अनिवार्य आवश्यकताओं से आगे बढ़ जाने पर धन, जीवन का साधन न रहकर ध्येय बन आता है जिसके लिये अनुचित तरीकों का ही इस्तेमाल हो सकता है। समाज की अव्यवस्था और व्यक्ति के विकास में यहीं से व्यतिक्रम उत्पन्न होता है।

योरोपियन लेखक विद्वान पीटर ने “निर्धन का वकील” (क्कशशह्द्वड्डठ्ठज्ह्य ्नस्रक्शष्ड्डह्लद्ग) में बड़े ही मार्मिक शब्दों में लिखा है “गरीब, गरीब न होते यदि धनवान् ईमानदार होते और निर्धनों को अपनी वस्तुओं का उचित मूल्य चुका देते। धन का वैभव और कुछ नहीं केवल अनैतिक-विजय-भेंट है जो गरीबों का स्वत्व अपहरण करने से मिलती है।”

उचित रीति से कमाया धन चाहे वह कितना ही थोड़ा हो श्रेष्ठ है। सत्य और ईमानदारी से कमाया धन पवित्र होता है इसे उत्तम रीति से खर्च करें, अपने जीवन के उपयोग में लायें तो ही अपना भौतिक लक्ष्य और जीवनोद्देश्य सरलता से पूरे किये जा सकते हैं। ऐसे ही मर्यादित खर्च पूर्ति से शरीर और आत्मा विकसित होती है। आध्यात्मिक लक्ष्य-प्राप्ति की सम्भावना भी इसी से बढ़ती है। उच्च विचारों से ओत-प्रोत सरल जीवन-जीने के लिये अर्थात् भाव बाधक नहीं कहा जा सकता अपनी आवश्यकताएं होती ही कितनी हैं जिनके लिये लंबी दौड़−धूप और अनियमित तरीकों से धन संग्रह करना पड़े।

गरीबी एक अवस्था है जिसमें परमात्मा हमारी महानताओं की निरख-परख करता है। इसमें मनुष्य को धैर्य श्रम एवं सन्तोष की परीक्षा देनी पड़ती है। सम्पन्नता में अपने आपको इस कसौटी में कसने का नम्बर ही नहीं आता। महानता के समानान्तर होकर गुजर जाते हैं, केवल अहंकार, दम्भ, छल और प्रदर्शन में ही अपने जीवन की इतिश्री मान बैठते हैं। और अपनी आत्मा तो काषाय-कल्मषों में ही फँसी रह जाती है। परमात्मा का सान्निध्य सुख तो निर्धनता में ही मिलता है। सच्चे अध्यात्म का विकास व्यक्ति के अभावों में होता है। अमरीका के प्रेसीडेण्ट अब्राहम लिंकन ने अपने देशवासियों को सम्बोधन करते हुए अपनी सादगी का समर्थन इन शब्दों में किया था “गरीब लोग परमात्मा के अधिक सन्निकट होते हैं इसलिए मुझे वैभव पसन्द नहीं।”

धन का उपयोग और दुरुपयोग उसकी प्राप्ति और उपयोग पर आधारित है। धन स्वतः बुरी वस्तु नहीं है किन्तु उपार्जन और उपयोग में तरह-तरह के कुत्सित ढंग अपनाये जाते हैं। अनुचित मोह और दासतापूर्ण लगाव रखा जाता है वह बुरा है। इसका अभाव रहे तो सम्भव है कष्टदायक परिस्थितियाँ आयें किन्तु जीव-निर्माण की शिक्षा भी मनुष्य को इन्हीं से मिलती है। आत्म-विश्वास और अध्यवसाय में निर्धनता बाधक नहीं कही जा सकती। उससे उसकी मानसिक चेष्टाओं का झुकाव उस ओर हो जाता है जिसका सम्पन्नता वैभव और विलास में कदाचित ही ध्यान आता। जीवन-निर्माण की बात खुले मस्तिष्क से कोई तभी सोच समझ सकता है जब वह अर्थ सञ्चय की अनावश्यक आपाधापी से मुक्त हो। जिसे इन्हीं परेशानियों से फुरसत न मिली वह क्या तो अंतर्जगत की महानता पर दृष्टिपात करेगा और क्या जीवन-मुक्त स्वर्ग और मोक्ष की कामना करेगा। निर्धनता इसलिए श्रेष्ठ है कि वह व्यक्ति की अंतर्दृष्टि जागृत करती है। महान् दार्शनिक लूथर का कथन है “हे परमात्मा मैं तेरा आभारी हूँ जो तूने मुझे निर्धन बनाने की कृपा की, ऐसा न करता तो तेरी उपस्थिति का मुझे ज्ञान मिलना दुर्लभ था।”

ऐसे व्यक्ति जिनके पास जीवन रक्षा के प्रचुर साधन होते हुए भी जो अपने को निर्धन मानते हैं, उन्हें अभागा, अविचारी ही कहा जा सकता है।

सम्पत्ति से इच्छाओं की पूर्ति होती है। पद-प्रतिष्ठा व समाज में गौरव बढ़ता है किन्तु ये सब बाह्य विकास के ही लक्षण हैं—मनुष्य की आन्तरिक प्रगति गुण, कर्म स्वभाव की शुद्धता से होती है। दाम्पत्य-जीवन में प्रेम नहीं है तो धन बेचारा क्या सुख देगा? परिवार में पारस्परिक आत्मीयता का अभाव है तो धन कलह को बढ़ावा ही दे सकता है, बच्चे आदि सदाचारी नहीं है तो अर्जित धन का दुरुपयोग ही सम्भव है। धन सद्गुणों का आधार नहीं हो सकता और सुखी-जीवन के लिये नैतिक सद्गुणों के विकास की आवश्यकता होती है। यह आत्मिक-विकास निर्धनता में भी भली प्रकार निभ सकता है। जिन व्यक्तियों के आचरण अच्छे होते हैं वे गरीबी में भी स्वर्गीय सुख का रसास्वादन करते रहते हैं। किन्तु दुराचारी और दुराग्रही व्यक्ति अपार सम्पत्ति से भी सुख प्राप्त नहीं कर पाते। कारण सुख का मूल सद्गुणों का विकास है। प्रेम, स्नेह उदारता, आत्मीयता सहिष्णुता आदि से धनी व्यक्ति ही इस संसार में सच्चा सुख पाते हैं।

आज की हमारी सामाजिक व्यवस्था इस बात का प्रमाण है। बाह्य-जीवन की सुख-सम्पत्तियाँ बढ़ रही हैं इनके साथ ही धन की लालसा का बढ़ना भी स्वाभाविक है। क्योंकि बाह्य-सुखों की पूर्ति इसी से सम्भव है, ऐसी अवस्था में आत्मा खोयी हुई जान पड़ती है। मनुष्य का नैतिक विकास न हुआ तो धन सुख नहीं दे सकता। आज जो अपनी अर्जित आय का दशाँश शराब-खोरी, जुआ-बाजी, सिनेमा-थियेटरों में बरबाद करते हैं वे कल आय बढ़ जाने, पर पच्चीस प्रतिशत करने लगते हैं। उसी अनुपात में आज के झगड़े बखेड़ों में भी अभिवृद्धि होगी ही। ऐसी अवस्था में लोगों की सुख की कल्पना निर्मूल ही बनी रहेगी। इससे चारों तरफ सामाजिक अस्तव्यस्तता के ही दृश्य बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि धन जिसे हमारी सुख-सुविधाओं में सहायक होना था वह विषम परिस्थितियाँ ही उत्पन्न किये जा रहा है।

तब फिर यह निश्चय है कि धन को आज जिस रूप में देखते हैं इस दृष्टिकोण में परिवर्तन करें अपने जीवन यापन के लिये यदि पर्याप्त मात्रा में उसे अर्जित कर लिया है तो अधिक-से-अधिक धन हो ही इस बात की उतनी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती जितनी अपने जीवन-निर्माण की। सुख की परिस्थितियाँ अपने गुण कर्म स्वभाव में श्रेष्ठता उत्पन्न करने से बढ़ती हैं। यह साधन ऐसे हैं जिन पर किसी प्रकार के व्यय की आवश्यकता नहीं पड़ती है। अपनी अभिरुचि ऐसी हो जाय तो यह निर्धनता भी आपके लिए वरदान सिद्ध हो सकती है।


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