बात-बात पर उद्विग्न न हों?

August 1964

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जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए तत्संबंधी योग्यता, अनुभव के साथ-साथ मानसिक सन्तुलन, शान्त मस्तिष्क की भी अधिक आवश्यकता होती है। कोई व्यक्ति कितना ही योग्य, अनुभवी, गुणी क्यों न हो, यदि बात-बात पर उसका मन आँधी तूफान की तरह उद्वेलित, अशान्त हो जाता हो तो वह जीवन में कुछ भी नहीं कर पायेगा। उसकी शक्तियाँ व्यर्थ ही नष्ट हो जायेंगी और भली प्रकार वह अपने काम पूरे नहीं कर सकेगा।

प्रत्येक छोटे से लेकर बड़े कार्यक्रम शान्त और सन्तुलित मस्तिष्क द्वारा ही पूरे किए जा सकते हैं। संसार में मनुष्य ने अब तक जो कुछ भी उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं उनके मूल में धीर-गम्भीर, शान्त मस्तिष्क ही रहे हैं। कोई भी साहित्यकार, वैज्ञानिक कलाकार-शिल्पी, यहाँ तक कि बढ़ई, लुहार, सफाई करने वाला श्रमिक तक अपने कार्य तब तक भली-भाँति नहीं कर सकते, जब तक उनकी मनोस्थिति शान्त न हो। कोई भी साधना स्वस्थ सन्तुलित मनोभूमि में ही फलित हो सकती है। जो क्षण-क्षण में उत्तेजित हो जाता हो, सामान्य सी घटनायें जिसे उद्वेलित कर देती हों, ऐसा व्यक्ति कोई भी कार्य भली प्रकार नहीं कर सकेगा। न वह अपने काम के बारे में ठीक-ठीक सोच समझ ही सकेगा।

शान्त और सन्तुलित अवस्था में ही मन कार्य करने तथा भली प्रकार सोचने समझने की सहज स्थिति में होता है। ऐसी ही दशा में वह कोई रचनात्मक, उपयोगी बात सोच सकता है और उसे पूरी कर सकता है। सन्तुलित स्थिति में ही मनुष्य की शक्तियाँ एकाग्र केन्द्रित और परस्पर सहयोगी होकर काम करती हैं। अशान्त स्थिति में, आवेग, उद्वेगों में शक्तियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। वे अपनी मनचाही दिशाओं में दौड़ने लगती हैं।

अशान्त और उद्वेलित मनः स्थित में सम्पूर्ण शरीर एक प्रकार के कम्पन से थरथराने लगता है। स्नायु संस्थान पर तीव्र आघात पैदा होता है, रक्तचाप बढ़ जाता है, पेशियाँ तन जाती हैं, क्रोध, भय, निराशा, काल्पनिक चिन्तायें आदि मनोवेग प्रबल हो जाते हैं, बुद्धि भ्रमित हो जाती है। इस तरह उद्वेगों में तन और मन दोनों ही असन्तुलित हो जाते हैं। अनेकों शारीरिक एवं मानसिक बीमारियाँ उठ खड़ी होती हैं। उद्वेगों के अधिक बने रहने पर मनुष्य का चित्त भी विक्षिप्त सा हो जाता है।

उत्तेजित विक्षुब्ध मनःस्थिति में कोई भी दुष्कृत्य, दुर्घटनाएँ होना सम्भव है। आये दिन समाचार-पत्रों में छपती रहने वाली हत्याओं, आत्म-हत्याओं तथा कई उपद्रवों एवं दुर्घटनाओं का प्रमुख कारण उद्विग्न मनोभूमि ही होती है। जब मनुष्य के बुद्धि विवेक कुण्ठित हो जाते हैं तब वह अच्छे बुरे का निर्णय नहीं कर पाता। आवेग में जैसी भी सनक उठ जाती है वह वैसा ही कर बैठता है।

मन में उठने वाले उद्वेगों का मुख्य कारण शारीरिक एवं मानसिक अस्वस्थता ही है। पाचन-क्रिया की गड़बड़ी जीर्णरोग, अनिद्रा, दुर्बलता आदि के कारण भी मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। अच्छे-भले आदमी का मन भी बीमार पड़ने पर अस्त-व्यस्त और उद्विग्न बन जाता है। शरीर में कोई गड़बड़ी हो, कोई कष्ट हो तो प्रायः चिड़चिड़ाहट, अधीरता, मानसिक अशान्ति और अतृप्ति पैदा हो जाती है जो मन को असन्तुलित बना देती है। कहावत है “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन निवास करता है।” सन्तुलित और शान्त मनोदशा के लिए हमें अपने स्वास्थ्य को सुधारना होगा। रोगग्रस्त, जीर्ण-शीर्ण, कमजोर शरीर में सुदृढ़ मनोभूमि का होना असम्भव है। शरीर की रुग्णावस्था में जीवन के कोई महत्वपूर्ण निर्णय भी नहीं करने चाहिएं। क्योंकि उस समय मनःस्थिति असन्तुलित होती है जिससे सही निर्णय भी नहीं हो पाता।

ऐसा वातावरण और संगत, जिसमें हमें बार-बार उद्विग्न होना पड़े, मनोभूमि असन्तुलित हो जावे, उनसे बचते रहना चाहिए। पवित्र स्थान और शान्त वातावरण में सहज ही पुनः स्थिति सन्तुलित बनी रहती है। भले, सज्जन, साधु-महात्मा, पुण्यजीवी व्यक्तियों के संपर्क में रहने पर मन भी सरलता से शान्त और उद्वेगहीन बन जाता है। यह सर्वप्रसिद्ध सत्य है कि सन्त महात्माओं, ऋषियों मनीषियों के पास जाने पर मन की अशान्ति एवं उद्वेग शान्त हो जाते हैं। क्योंकि उनके शान्त गम्भीर उद्वेगहीन अन्तःकरण से शान्ति की सूक्ष्म किरणें निकलती रहती हैं उनका स्पर्श प्राप्त कर अशान्त व्यक्ति भी शान्त हो जाते हैं। इसके विपरीत झगड़ालू, कलहकारी, विक्षुब्ध, दुष्ट प्रकृति लोगों के संपर्क में रहने पर उद्वेग और अशान्ति के अवसर अधिक आते हैं। एक भला आदमी भी इस तरह के संग दोष से प्रभावित होकर उद्विग्न-प्रकृति का बन जाता है। यद्यपि व्यावहारिक जीवन में सर्वथा भले आदमियों का संग और अनुकूल वातावरण ही मिलता रहे यह सम्भव नहीं होता, तथापि बुरे व्यक्तियों, बुरे वातावरण से बचने का जितना बने प्रयत्न करना चाहिए। साथ ही अच्छे वातावरण और भले आदमियों की संगत के लिए भी जीवन में पर्याप्त समय देना चाहिए।

हम जो भी कुछ खाते-पीते हैं उससे हमारा शरीर ही नहीं बनता वरन् मन भी बनता है। कहावत है “जैसा खाये अन्न वैसा बने मन।” भोजन का हमारे स्वभाव निर्माण में बहुत बड़ा हाथ होता है। अभक्ष्य, बासी, दूषित खराब, अन्याय अनीति से उपार्जित भोजन से क्रोध, उत्तेजना, मानसिक, अशान्ति, आवेग, उद्वेग अधिक पैदा होते हैं। माँस, मदिरा, तंबाकू, सिगरेट, बीड़ी अत्यधिक मीठे, चटपटे, मसालेदार पदार्थ मनुष्य की तृष्णा, वासना, मानसिक गर्मी को बढ़ाते हैं और ये सब मन को विक्षुब्ध तथा अशान्त बना देते हैं। इसके विपरीत दूध, फल, शाक-सब्जी, सात्विक भोजन, श्रम और ईमानदारी की कमाई से मन में सात्विक भावनायें, सद्विचार उत्पन्न होते हैं। शाकाहार, सात्विक भोजन करने वाले साधक सहज ही मन के विक्षोभ और उद्वेग को जीत लेते हैं। इतना ही नहीं उपयुक्त भोजन से सन्तोष, शान्ति, क्षमा धैर्य, संयम सदाचार आदि सत्प्रवृत्तियाँ पैदा होती हैं और इनसे मनः स्थिति पुष्ट तथा दृढ़ बनती है, जिसे आवेग उद्वेगों की आँधी भी विचलित नहीं कर सकती। आवश्यकता इस बात की है कि जो अशुद्ध अखाद्य पदार्थ हैं, जो अपवित्र हैं, उन्हें त्यागकर सात्विक भोजन करना चाहिए।

आवेगों उद्वेगों से बचने के लिए मन को सुसंस्कृत, बनाने की भी अत्यन्त आवश्यकता है। असंस्कृत, अनगढ़, नादान मन ही बात-बात पर उद्वेलित हो जाता है। आवेगों से बचने के लिए मन को विवेकशील धैर्यवान सहिष्णु बनाना आवश्यक है। कोई भी बुरी-से-बुरी बात या घटना सामने आ जाएं लेकिन उनसे तत्काल प्रभावित न होकर उनके बारे में भली प्रकार सोच विचार करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं जो कोई सही निर्णय तत्काल कर सकें।

आवेगों से बचने के लिए सहिष्णुता आवश्यक है। जीवन में सभी तरह के अवसर आते हैं। जीवन पथ पर सीधी पगडण्डी भी आती है तो ऊबड़ खाबड़ चट्टानें भी। नदी, नाले, काटे सभी तो जीवन की राह में आते हैं लेकिन चट्टानों से सर टकराने पर या नदी में कूद पड़ने पर या काँटों को पैरों से मसलने पर तो इनसे बचा नहीं जा सकता । उल्टे हानि ही होती है। इन सबमें होकर एक ही रास्ता है जीवन पथ पर आगे बढ़ने का, वह है सबको धैर्य-पूर्वक सहन किया जाय, बचकर अपना रास्ता बना लिया जाय। सहिष्णुता समुद्र की-सी गम्भीरता है। इसमें कठिनाइयों का बड़ा पर्वत भी डाल दिया जाय तो गर्भ में समा जायगा, लेकिन उसकी स्थायी शान्ति गम्भीरता को नष्ट नहीं कर सकेगा। जीवन में आने वाले उद्वेगों में, घटनाओं में अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रखने के लिये सहिष्णुता एक महत्वपूर्ण साधन है।

अपने स्वास्थ्य में सुधार करके, उपयुक्त भोजन का क्रम बनकर, अच्छी सत्संगति और पवित्र वातावरण में रहकर, सत् साहित्य का क्रम बनाकर उद्वेगों से बचने का प्रयत्न कीजिए। सन्तुलित मनोभूमि ही सफलता का महत्वपूर्ण आधार है। शान्त और सन्तुलित मन ही कोई रचनात्मक महान् कार्य करने की दिशा में आगे बढ़ सकता है।


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