राजनीति धर्म पर आधारित हो।

August 1964

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भौतिक जीवन में राजनीति का स्थान प्रमुख है। जनसाधारण की अभिरुचि आज राजनीति में इसलिए है कि उसके द्वारा जनसाधारण की अनेकों गुत्थियों का सुलझाया जाना सम्भव हो सकता है। जीवन के हर क्षेत्र में अब राजनीति का नियंत्रण होता जाता है इसलिये यह आशा करना उचित ही है कि यदि सरकार अच्छी हो और उसकी कार्य-पद्धति ठीक रहे तो उससे जनता के दुःखों की निवृत्ति और सुखों की अभिवृद्धि में भारी योगदान मिल सकता है।

अच्छी सरकार बने और उसकी अच्छी कार्य पद्धति रहे, यह आकाँक्षा स्वभावतः प्रत्येक प्रजाजन को रहती है। क्योंकि उसकी प्रगति एवं सुरक्षा बहुत कुछ सुशासन पर ही निर्भर रहती है। चाहे व्यक्तिगत सुख सुविधा की दृष्टि से विचार किया जाय, चाहे समाज के सामूहिक उत्कर्ष की दृष्टि से, हर हालत में सुशासन की आवश्यकता दृष्टि-गोचर होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए विविध प्रकार के प्रयत्न भी किए जाते हैं। अनेक राजनैतिक पार्टियाँ बनती हैं, चुनाव लड़ती हैं, घोषणा पत्र प्रकाशित करती हैं। देखने में यह प्रयत्न बड़े उपयुक्त और आकर्षक प्रतीत होते हैं। जिस पार्टी का कार्यक्रम और घोषणा-पत्र ध्यानपूर्वक देखते हैं उसमें केवल जनहित की बात दृष्टिगोचर होती है और यही लगता है कि इनमें से कोई भी कार्यक्रम अपना लिया जाय तो देश और जाति का अवश्य हित होगा।

पर देखा यह जाता है कि चुनावों में जीती हुई सत्तारूढ़ पार्टी भी वह कर नहीं पाती जो करने के लिए उसने अपने चुनाव घोषणा-पत्रों में वचन दिया था। कारण यह है कि जिन लोगों के हाथों शासन का कार्य चलता है वे उन आदर्शों को अपने जीवन में शामिल नहीं करते जो शासन तन्त्र के प्रत्येक कल-पुर्जों के लिए नितान्त आवश्यक है। उच्च चरित्र के बिना कोई व्यक्ति कितना ही योग्य एवं परिश्रमी क्यों न हो किसी का कोई हित साधन नहीं कर सकता। प्रदर्शन और प्रचार के लिये उसके कार्य कुछ समय तक प्रभावशाली दिखाई पड़ सकते हैं पर अन्ततः वे सब कार्य खोखले ही सिद्ध होते हैं।

राजनीति की शक्ति निश्चय ही बड़ी महत्वपूर्ण है। उसका सुसंचालन जनता के हित के लिए सब प्रकार श्रेयस्कर ही हो सकता है। संसार के जिन देशों का इन दिनों उत्कर्ष हुआ है उसमें वहाँ की सुयोग्य सरकारों का बड़ा श्रेय है। राजनीतिज्ञों में सूझ-बूझ, कुशलता, क्षमता और योग्यता का होना आवश्यक है इसके बिना शासन-तंत्र ठीक प्रकार नहीं चल सकता। पर इससे भी अधिक आवश्यक है शासकों की ईमानदारी। यदि वे आदर्शों के प्रति निष्ठावान होंगे। व्यक्तिगत जीवन में पवित्रता और सेवा का व्रत धारण किए हुए होंगे तो कम योग्यता होने पर भी उनके कार्यों से जनता का अत्यधिक हित साधन होता चलेगा। इसके विपरीत यदि वे आलसी, प्रमादी, लालची, अहंकारी और स्वार्थी हैं तो फिर उनकी बड़ी से बड़ी योग्यता भी निरर्थक सिद्ध होगी। इतना ही नहीं, उनका व्यक्तित्व जनता के लिए हानिकर और भारस्वरूप ही सिद्ध होगा। सुशासन की छाया में किसी भी देश का आशाजनक विकास होना स्वाभाविक है। सुशासन की सबसे बड़ी कसौटी शासकों की सच्चरित्रता और आदर्शों के प्रति गहन-निष्ठा हो सकती है। जहाँ इस तथ्य में कमी रहेगी वहाँ प्रकाशित घोषणायें एवं नीतियाँ कितनी ही आकर्षक क्यों न हों, उनके विपरीत ही काम होता रहेगा और उससे जनहित को हानि ही पहुँचती रहेगी।

जिन लोगों की दिलचस्पी राजनीति में है उनका कर्तव्य है कि प्रशासन के हर क्षेत्र में ईमानदारी ओर आदर्शवादिता उत्पन्न करने का प्रयत्न करें। राजनैतिक दलों में से प्रत्येक की नीतियाँ और घोषणायें उत्तम हैं। इनमें से किसी का भी सहारा ईमानदारी के साथ किया जाय तो उससे देश का उत्थान ही हो सकता है। नीतियाँ किसी भी पार्टी की बुरी नहीं कही जा सकतीं। संसार के विभिन्न देशों ने विभिन्न प्रकार के कार्य-क्रम अपना कर उन्नति की है। इस उत्कर्ष में वे नीतियाँ नहीं वरन् शासन तन्त्र की पवित्रता ही प्रधान कारण रही है। आदर्शों से भ्रष्ट लोग किसी भी शासन पद्धति को अपनावें, किसी भी रीति-नीति की घोषणा करें, परिणाम कुछ भी न निकलेगा।

इसलिये आवश्यकता तो इस बात की है कि राजनीति के मर्म स्थल पर हमारा ध्यान हो। नेतृत्व उन लोगों के हाथ सौंपा जाय जो आदर्शवाद से अपने जीवन का हर पहलू ओत-प्रोत किए हुए रह सकें। सार्वजनिक जीवन और व्यक्तिगत जीवन में इस प्रकार के दो भेद करना उचित नहीं। कहा यह जाता है कि सार्वजनिक जीवन में मनुष्य कर्तव्य पालन करता है तो उसके व्यक्तिगत जीवन की अनैतिकताओं की ओर क्यों ध्यान दिया जाय? यह तर्क निरर्थक है। वस्तुतः चरित्र की सच्ची परीक्षा व्यक्तिगत जीवन में ही होती है। जो मनुष्य व्यक्तिगत जीवन में दुराचार करता होगा और भ्रष्ट परम्पराएँ अपनाता होगा वह सार्वजनिक जीवन में ईमानदार रह सके यह कदापि सम्भव नहीं। आदर्शों के प्रति गहन आस्था जिसके जीवन में नहीं है उसके अनाचार व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित रहेंगे इसकी कोई गारण्टी नहीं हो सकती।

शासन तन्त्र को चलाने वाले व्यक्ति चाहे मिनिस्टर हों चाहे अधिकारी, चाहे चपरासी उनकी सच्चरित्रता अक्षुण्य होनी चाहिए। प्रत्येक प्रजाजन को पूरी सतर्कता उसी ओर रखनी चाहिए। और देखते रहना चाहिए कि हमारे शासक अपनी दुष्प्रवृत्तियों से सारे समाज को दुष्परिणाम भुगतने के लिए विवश न करने लगें। जिनके हाथ में सरकार की बागडोर हो उन्हें अपना पूरा-पूरा ध्यान इस तथ्य पर केन्द्रित करना चाहिए कि शासनतन्त्र को चलाने वाले व्यक्ति जन-साधारण के स्तर से ऊँचे हैं या नहीं। जन-नेतृत्व और जनहित करने के लिए राज-तन्त्र का उत्तरदायित्व आज इतना बढ़ा-चढ़ा है कि उसका ठीक तरह निबाहा जाना तभी सम्भव होगा जब उसके संचालक और कार्य-कर्ता प्राचीन काल के ब्राह्मण और साधुओं की तरह पवित्र हों।

यह तर्क सही नहीं है कि कम वेतन के लोग इसलिए रखने पड़ते हैं कि जनता अधिक टैक्स नहीं देना चाहती है। कम वेतन के लोग अपनी बढ़ी-चढ़ी जरूरतें पूरी करने के लिए भ्रष्टाचार फैलाते हैं। यदि ऐसा ही हो तो जनता को खुशी-खुशी अधिक टैक्स देना चाहिये और शासकों की उचित आवश्यकताएँ पूरी करने लायक भरपूर वेतन अवश्य देना चाहिए। इस प्रकार यदि अधिक टैक्स बढ़े तो भी भ्रष्टाचारी सस्ते कर्मचारी रखने की अपेक्षा जनता लाभ में ही रहेगी। पर वस्तुस्थिति दूसरी ही है। बढ़ा-चढ़ा भ्रष्टाचार अधिकतर वे लोग करते हैं जिन्हें भरपूर वेतन मिलता है और जिन्हें अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त हैं। दुराचार वस्तुतः एक मानसिक रोग है जो गरीबों को भी हो सकता है और अमीरों को भी। उसमें चपरासी भी ग्रसित हो सकते हैं और अफसर भी। हर स्तर पर से इसका उन्मूलन होना चाहिए।

शत्रु के साथ या दुष्ट दुरात्मा और अपराधियों के साथ कूटनीति का बरता जाना किसी आवश्यकता के समय उपयुक्त हो सकता है। किन्तु वह भी जनहित की दृष्टि से होना चाहिए। व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए तो किसी से भी, यहाँ तक कि दुष्टों से भी दुर्व्यवहार न किया जाना चाहिए। जनता के प्रति सर्वसाधारण के लिए सरकारी नीति सेवा न्याय और सद्भावनाओं पर आधारित होनी चाहिए। किसी वर्ग का अनुचित शोषण और किसी का पक्षपात—ऐसी राजनीति जहाँ कहीं भी चल रही होगी वहाँ क्षोभ और विद्रोह की भावनाएँ ही पनपेंगी। शासन का कर्तव्य यह है कि सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने में कोई कमी न रखे। साथ ही दुष्टता और अपराधी प्रवृत्ति के दमन में उग्र कठोरता बरती जाय। जहाँ सज्जनों की सत्प्रवृत्तियों को निरुत्साहित किया जाता हो और अपराधों की ओर उपेक्षा बरती जाती हो वहाँ प्रजा की सुरक्षा और समृद्धि सम्भव नहीं हो सकती।

शासन की पवित्रता उतनी ही आवश्यक है जितनी धर्म पुरोहितों की सदाचारिता। जो जितना महत्वपूर्ण कार्य है उसे उठाने के लिए उतने ही उत्तरदायी एवं परखे हुए व्यक्तित्व अभीष्ट हैं। प्रजातंत्र पद्धति के शासन में हर मतदाता का परम पवित्र कर्तव्य है कि वोट देते समय किसी लोभ या पक्षपात से प्रेरित होकर मतदान न करे वरन् आदर्शवादी व्यक्तियों को ही सर्वोपरि स्थान दे। और यह भी देख-रेख रखे कि शासन तन्त्र में चरित्र भ्रष्टता तो बढ़ने नहीं लगी है। यदि यह बुराई बढ़ रही होगी तो अच्छी से अच्छी योजनाएँ और नीतियाँ निष्फल चली जाएँगी। भ्रष्टाचारी लोग अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए जनता का भारी अहित करने में भी संकोच नहीं करते। इसलिए यदि किसी राष्ट्र को अपना स्वस्थ विकास करना हो तो शासन तन्त्र की सच्चरित्रता का पूरा ध्यान रखे। प्रजा की ओर से अधिकारियों को प्रलोभन देकर कोई अनुचित कार्य कराने का प्रयत्न न किया जाय और कर्मचारी जनता को परेशान करने की शक्ति का दुरुपयोग करके जनता के शोषण की विवशता उत्पन्न न करने पायें ऐसी व्यवस्था बनाना उन लोगों का कार्य है जिनके कन्धे पर शासन-तंत्र चलाने का उत्तरदायित्व पड़ा हुआ है।

खेद है हमारे देश में इस संबंध में भारी अव्यवस्था फैली हुई है। इसका दुष्प्रभाव जनता के नैतिक स्तर पर पड़ता है। यह किसी भी राष्ट्र की भारी हानि है। भले ही लोग गरीब बने रहें पर यदि उनका चरित्र ऊँचा है तो वे अपने कठिन परिश्रम से गरीबी को अमीरी में बदल लेंगे। किन्तु यदि चरित्र नष्ट हो गया तो अमीरी भी धीरे-धीरे नारकीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करेगी। शासकों का कर्तव्य प्रजा की सुख शान्ति को बढ़ाना है इसलिए उन्हें अन्य प्रकार की प्रगति का आयोजन करने से पूर्व राष्ट्र की सच्चरित्रता को सुरक्षित रखने एवं विकसित करने का ध्यान रखना चाहिए। अनीति का आश्रय पाकर कोई भी समृद्धि चिरस्थायी नहीं हो सकती। गलत उपायों से कोई तात्कालिक हल निकाल भी लिया जाय तो पीछे उसकी प्रतिक्रिया अत्यन्त भयावह होती है और जो लाभ उपार्जित किया गया था वह किसी अन्य रास्ते बर्बाद हो जाता है।

‘स्वराज्य’ असफल ही माना जायगा यदि हमारी चारित्रिक उत्कृष्टता उसके द्वारा बढ़ न सकी। यदि जनमानस में समाई हुई स्वार्थ-परता और संकीर्णता को हटाया न जा सका तो प्रगति के सारे सपने एक विडम्बना मात्र ही बनकर रह जावेंगे। प्रगति मनुष्यों की पारस्परिक सद्भावना, सहायता, सज्जनता और आत्मीयता पर निर्भर रहती है। सुरक्षा हथियारों से नहीं साहसी, बलिदानी और निष्ठावान नागरिकों की मनोभूमि के द्वारा ही सम्भव होती है। किसी देश का बल वहाँ की समृद्धि से नहीं वरन् वहाँ के नागरिकों के चरित्र से आँका जाता है। हमारा राष्ट्र बलशाली बने, समृद्ध बने, समुन्नत हो इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें जन-मानस की भावनात्मक उत्कृष्टता को बढ़ाने के लिए तत्पर होना चाहिए।

राजनैतिक दृष्टि से हम सफल हुए या असफल? इसका एक ही प्रमाण हो सकता है कि शासनतंत्र के संचालकों और नागरिकों में कर्तव्य परायणता एवं नैतिकता कितनी बढ़ी। इस कसौटी पर जो शासन खरा उतर सकेगा उसे ही यह राजनैतिक सफलता का श्रेय मिलेगा। इतिहास साक्षी है कि जब भी, जहाँ भी, नैतिक दिवालिया-पन बढ़ा है तब उसका परिणाम सर्वनाश के रूप में ही प्रस्तुत हुआ है। इसलिए यदि राजनीति की प्रचण्ड शक्ति से राष्ट्र को लाभान्वित करना अभीष्ट हो तो एक ही काम पर सर्वोपरि ध्यान रखें—वह है शासकीय कर्मचारियों की सज्जनता और उसके फलस्वरूप जनता में उत्पन्न होने वाली उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया। राष्ट्र इसी नीति पर चलते हुए उठते और बढ़ते हैं। हमारे लिए भी इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।


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