इस वर्ष जीवन साधन के चार मासिक-शिविर

August 1964

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‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के सदस्य हमारे वैसे ही आत्मीय एवं निकटवर्ती हैं जैसे कि किसी पर- कुटुम्ब के सदस्य घनिष्ठ एवं निकटवर्ती होते हैं। अपने परिजनों तक जीवन को ऊँचा उठाने वाली प्रेरणायें एवं अनुभूतियाँ पहुँचाने की हमारी आन्तरिक अभिलाषा है। जो कुछ ‘उत्तम’ जाना है और जो कुछ ‘श्रेष्ठ’ इस जीवन में पाया है उसको अपने स्वजनों को दे जाने की इच्छा बहुत दिन से उठती रहती थी। अब वह सुयोग और अवसर आ गया जब कि यह आकाँक्षा पूरी होने का एक व्यवस्थित क्रम बन गया है।

गत अंक में जीवन निर्माण का मासिक प्रशिक्षण’ और गीता-माध्यम से जन-जागरण की शिक्षा” शीर्षक दो लेख छपे हैं। इन्हें ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के सदस्यों के लिये एक खुला निमन्त्रण समझा जाना चाहिये। दो आधारों पर स्वजनों को एक-एक महीना मथुरा आने के लिये आह्वान किया गया है। इन शिविरों में क्या सिखाया जायेगा यह स्पष्टीकरण उन पृष्ठों पर छप चुका है। वह भी कम उपयोगी नहीं है। पर इस सुशिक्षण पद्धति के पीछे हमारी व्यक्तिगत आकाँक्षा यह है कि स्वजनों को अपने साथ रखने का अवसर हमें मिले और भावनाशील आत्मीय जनों के साथ-साथ रहने में जो अलौकिक आनन्द मिलता है उसका रसास्वादन किया जाय। सामान्यतया अपने कुटुम्बियों और सम्बन्धियों की समीपता लोगों को बहुत प्रिय लगती है, भले ही उनमें दोष दुर्गुण भरे पड़े हों। फिर हमारा परिवार तो देश जैसे दुर्बल आधार पर नहीं भावना एवं आदर्शों के आधार पर विनिर्मित होने के कारण साधारण परिवारों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण—प्रगाढ़ता पूर्ण—है। ऐसे परिजनों के साथ रहने में कौटुम्बिक मोह ही नहीं, श्रेष्ठता एवं सद्भावनाओं का मिलन भी एक बहुत बड़ा कारण है जिसमें आनन्द की अविरल धारा बहती है। स्वजनों की समीपता, फिर वह भी आध्यात्मिक उच्च आधार पर यदि मिले तो उससे कौन लाभान्वित न होना चाहेगा। हमारे मन में भी ऐसी ही भाव तरंग उठती रहती है और व्यक्तिगत रूप से वही हमारी तृप्ति का एक बहुत बड़ा कारण है।

यों यह दोनों प्रशिक्षण व्यवस्थायें व्यक्ति निर्माण एवं समाज निर्माण की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण भी हैं और इन्हें बहुत सोच समझकर बनाया गया है। शरीर और मन के रुग्ण रहने पर मनुष्य अपने लिये—अपने परिवार के लिये—भार रूप ही बना रहता है। फिर उसके लिये भौतिक सफलताओं या आध्यात्मिक विभूतियों को प्राप्त कर सकना तो संभव ही कैसे हो सकता है? शरीर और मन यही तो दो साधन जीवात्मा के पास हैं जिनके आधार पर वह सभी लौकिक पारलौकिक सफलतायें प्राप्त करता है। यह दोनों पहिये यदि टूटे-फूटे हों तो प्रगति का रथ आगे बढ़ ही कैसे सकेगा? इसलिये मनुष्य की प्रथम आवश्यकता यह है कि उसका शरीर और मन निरोग हो। शरीर की बीमारियाँ स्थूल होने से उन्हें दर्द, ताप, बेचैनी अशक्तता, जकड़न आदि के रूप में आसानी से पहचाना जा सकता है और उनका उपचार भी हो सकता है। पर संशय, भ्रम, आवेश, उद्वेग, चिन्ता निराशा, जल्दबाजी, उदासीनता, आलस, दुर्भावना, इन्द्रिय लालसा, लालच, संकीर्णता, असहिष्णुता जैसी अनेकों मानसिक बीमारियाँ ऐसी होती हैं जो होश-हवास दुरुस्त रहते हुये भी हमें पागल जैसा बनाये रहती हैं। प्रगति की संभावनाओं को नष्ट करके जीवन को असफल, अशाँत और दुःखी बनाने के लिए यह अदृश्य मानसिक बीमारियाँ वह दुष्परिणाम उत्पन्न करती हैं जो बेचारी शारीरिक बीमारियाँ तो कर ही क्या सकेंगी। शरीर रोग तो अधिक से अधिक शरीर नष्ट कर सकते हैं पर मानसिक रोग तो जन्म-जन्मान्तरों के लिए हमारा भविष्य अन्धकारमय बना कर रख देते हैं। इन दुष्टों की एक भारी भयंकरता यह है कि रोगी को इनका पता तक नहीं चल पाता, ऐसी दशा में उनसे मुक्त होने की इच्छा भी नहीं उठती। कोई दूसरा बताये तो बुरा लगता है, आत्म निरीक्षण का अभ्यास न होने से स्वयं उन्हें पहचान नहीं पाते। अस्तु यह व्यथायें बढ़ती ही रहती हैं और मनुष्य इनसे भी दर्द ताप आदि की तरह अशाँत एवं विक्षुब्ध बना रहता है।

तात्कालिक कष्ट दूर करने के लिए दवा दारु उपयोगी हो सकती है पर दुर्बलता और रुग्णता से स्थायी छुटकारा तो आहार विहार एवं रहन-सहन का क्रम बदलने से ही संभव हो सकता है। जीवन-निर्माण के मासिक प्रशिक्षण में उपयुक्त रहन-सहन का अभ्यास कराया जायगा। यों स्वास्थ्य रक्षा के नियमों को जानते सभी हैं पर उन्हें अभ्यास में ला सकना नहीं बन पड़ता। इस कठिनाई का समाधान इस एक मास की अवधि में संभव हो सकेगा ऐसी आशा है। पाचन क्रिया का ठीक न रहना ही समस्त बीमारियों की जड़ होता है। पुराने संग्रहीत मल को एनीमा द्वारा बाहर निकाल कर, उपवास द्वारा थके हुए पाचन तंत्र में विश्राम देकर, मिट्टी उपचार, जल चिकित्सा वाष्प स्नान, सूर्य रश्मि विज्ञान, मालिश आदि प्राकृतिक माध्यमों से दुर्बल पाचन प्रणाली पुनः सतेज हो सकती है और स्वास्थ्य का लड़खड़ाता हुआ ढाँचा फिर संभल सकता है। शरीर यात्रा चला सकने में असमर्थ छूत के रोगी, एवं साथ रहने में दूसरों को असुविधा उत्पन्न करने वाले रोगों के रोगी अभी नहीं लिये जाते हैं। अभी तो पाचन क्रिया की मन्दता की ही चिकित्सा में हाथ लगाया है। इसलिये चिकित्सा की दृष्टि से केवल मन्दाग्नि का रोग ही हाथ में लिया गया है। पर यह निश्चित है कि यदि यह एक रोग ठीक हो जाय तो समयानुसार अन्य रोग भी पलायन कर ही जावेंगे। प्राकृतिक चिकित्सा की विधि की काम चलाऊ शिक्षा इस एक महीने में ही प्राप्त हो जाय और कोई व्यक्ति अपने तथा अपने समीपवर्ती लोगों की चिकित्सा करने योग्य इस एक महीने में ही बन जाय, इतना ज्ञान प्राप्त कर लेने की दृष्टि से भी यह एक महीना बहुत महत्वपूर्ण है।

चान्द्रायणव्रत करते हुए गायत्री अनुष्ठान करने का आध्यात्मिक कार्य-क्रम शरीर शोधन की ही तरह मानसिक एवं आध्यात्मिक दोष दुर्गुणों का भी समाधान करता है। चान्द्रायणव्रत का व्यक्ति की स्थिति के अनुरूप सरल रूप भी बना दिया जाता है, जिसे दुर्बल शरीर के लोग भी आसानी से कर सकें जो चान्द्रायण नहीं कर सकते उनके लिए दूध कल्प, छाछ-कल्प, शाक-कल्प, फल-कल्प, एवं अन्न-कल्प जैसी विधियों से दूसरे प्रकार के उपवासों का क्रम बना दिया जाता है। मनोविकारों की निवृत्ति के अन्य आध्यात्मिक उपचार भी होते हैं और सुझाव भी। प्राणायाम की विविध क्रियाओं द्वारा विविध मनोविकारों पर काबू प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकता है। यही सब शरीर और मन को शोधन करने में उपचार जीवन-निर्माण के मासिक प्रशिक्षण में होता रहेगा।

अपने सान्निध्य में रखकर अपने संग्रहीत ज्ञान अनुभव एवं प्रकाश का लाभ स्वजनों को दे सकने की तथा उन्हें अपने समीप पाकर प्रमुदित होने की जो आकाँक्षा है वह भी उस अवधि में पूरी हो जायेगी। प्रेम का अर्थ देना ही तो है। इस एक महीने की अवधि में शरीर और मन के स्वास्थ्य को सुधारने की दृष्टि से जो सेवा बन पड़ेगी वह तथा और भी जो विशेष आध्यात्मिक उपहार दे सकना सम्भव होगा वह देने का प्रयत्न करेंगे।

यों इस समय हर कोई बहुत व्यस्त है। महंगाई की मार और जीवनक्रम में उलझन भरी अड़चनें किसी को सहज ही बाहर जाने की, सो भी एक महीने के लिए बाहर रहने की, सहज ही इजाजत नहीं दे सकती। फिर भी हमारा अनुरोध है कि जैसे बीमार पड़ने पर हजार हर्ज होते हुए भी मनुष्य को चारपाई पर पड़ा ही रहना पड़ता है, उसी प्रकार इस एक महीने के प्रशिक्षण में आने के लिए भी मथुरा आने की बात सोचनी चाहिए।

इस वर्ष आश्विन (21 सितम्बर से 21 अक्टूबर) मार्गशीर्ष (19 नवम्बर से 18 दिसम्बर। माघ (17 जनवरी से 15 फरवरी) चैत्र (17 मार्च से 16 अप्रैल) यह चार शिविर जीवन निर्माण साधना के होंगे। इनमें जो सज्जन अपनी पत्नी या अन्य कुटुम्बियों समेत जाना चाहें आ सकते हैं। किन्तु इसकी पूर्व स्वीकृति अवश्य प्राप्त कर लेनी चाहिए। यहाँ जितना स्थान है, जितनों की चिकित्सा परिचर्या आदि कर सकना सम्भव होगा उतने ही व्यक्तियों को स्वीकृति मिलेगी। बिना स्वीकृति आने वालों के लिये तत्काल व्यवस्था न हो सकेगी।

एक मास की जीवन निर्माण शिक्षा में सम्मिलित होने के लिए एक खुला निमन्त्रण इन पंक्तियों द्वारा अखण्ड ज्योति परिवार के सदस्यों के सम्मुख उपस्थित है, जिन्हें सुविधा हो वे इसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर सकते हैं।


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