वरदान

August 1964

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एक बार पाँच असमर्थ और अपंग लोग इकट्ठे हुए और कहने लगे, यदि भगवान ने हमें समर्थ बनाया होता तो बहुत बड़ा परमार्थ करते। अन्धे ने कहा—यदि मेरी आँखें होतीं तो जहाँ कहीं अनुपयुक्त देखता वहीं उसे सुधारने में लग जाता। लंगड़े ने कहा—पैर होते तो दौड़-दौड़ कर भलाई के काम करता। निर्बल ने कहा—बल होता तो अत्याचारियों को मजा चखा देता। निर्धन ने कहा—धनी होता तो दीन दुखियों के लिए सब कुछ लुटा देता। मूर्ख ने कहा—विद्वान होता तो संसार में ज्ञान की गंगा बहा देता।

वरुण देव उनकी बातें सुन रहे थे। उनकी सचाई को परखने के लिए उनने आशीर्वाद दिया और इन पाँचों को उनकी इच्छित स्थिति मिल गई। अन्धे ने आँखें, लंगड़े ने पैर, निर्बल ने बल, निर्धन ने धन और मूर्ख ने विद्या पाई और वे फूले न समाये। परिस्थिति बदलते ही उनके विचार भी बदल गये। अन्धा सुन्दर वस्तुएँ देखने में लगा रहता और अपनी इतने दिन की अतृप्ति बुझाता। लंगड़ा सैर-सपाटे के लिए निकल पड़ा। धनी ठाठ-बाठ जमा करने में लगा। बलवान ने दूसरों को आतंकित करना शुरू कर दिया। विद्वान ने अपनी चतुरता के बल पर जमाने को उल्लू बना दिया। बहुत दिन बाद वरुण देव उधर से लौटे और उन असमर्थों की प्रतिज्ञा निभी या नहीं, यह देखने के लिए रुक गये। पता लगाया तो वे पाँचों अपने-अपने स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हुए थे।

वरुण देव बहुत खिन्न हुए और अपने दिये हुए वरदान वापिस ले लिए। वे फिर जैसे के तैसे हो गये। अन्धे की आँखों का प्रकाश चला गया। लँगड़े के पैर जकड़ गये। धनी निर्धन हो गया। बलवान को निर्बलता ने जा घेरा। अब उन्हें अपनी पुरानी प्रतिज्ञायें याद आईं और पछताने लगे कि पाये हुए सुअवसर को उन्होंने इस प्रकार प्रमाद में क्यों खो दिया। समय निकल चुका था, अब पछताने से बनता भी क्या था?


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