गीता-माध्यम से जन-जागृति की योजना

August 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गीता के द्वारा भगवान कृष्ण ने कायरता और शोक संताप से घिरे हुए किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को पुनः कर्तव्यरत बनाया था। इसी महान् ज्ञान को प्राप्त करके वह पाञ्च-जन्य बजाता हुआ, गाँडीव को टंकारता हुआ कर्तव्य-धर्म के महाभारत में प्रविष्ट हुआ था। उसका सत्साहस देखकर भगवान स्वयं उसका जीवन रथ चलाने के लिए सारथी बने थे। आज हमारे व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक वातावरण की स्थिति मोहग्रस्त अर्जुन जैसी ही बनी हुई है। इसे वीरोचित कर्तव्य पथ पर अग्रसर करने के लिए आज फिर गीता का सहारा उसी प्रकार आवश्यक हो गया है जैसा कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व उस महत्वपूर्ण युग परिवर्तन की सन्धि बेला में आवश्यक हुआ था। आज के अन्धकारमय वातावरण में गीता से हमें समुचित प्रकाश मिल सकता है। गायत्री उपासना द्वारा आत्म-बल और गीता द्वारा कर्तव्य-दर्शन प्राप्त करके हम आज की सभी समस्याओं को हल कर सकते हैं। गायत्री और गीता हमारे ज्ञान-योग और कर्मयोग को परिपूर्ण कर सकती हैं ताकि ईश्वर प्राप्ति की पुण्य प्रक्रिया भक्ति का सच्चा मार्ग हमें मिल सके।

यों दस पैसे वाली गीता का पाठ लाखों व्यक्ति रोज ही करते हैं। हजारों व्यक्ति ऐसे भी मिलेंगे जिन्हें गीता कण्ठाग्र याद होगी। यह पाठ पूजा की प्रणाली भी उत्तम है पर इतने मात्र से कुछ विशेष प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। गीता की उस तेजस्विता को हमें ढूँढ़ना पड़ेगा जिससे अकर्मण्य अर्जुन की भुजाएं फड़फाने लगी थीं और ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’ का उभय पक्षीय लाभ देखकर ‘युद्धय कृत निश्चयः’ के परिणाम पर पहुँच गया था। जो दीनता और हीनता का जीवन बिता रहे हैं वे गीता का नित्य पाठ भले ही करते रहें उसके प्रकाश से लाख कोस दूर पड़े हैं यही मानना पड़ेगा। जिस औषधि को खाकर अर्जुन कर्तव्य परायण हुआ था उसे हम खावें तभी काम चलेगा। मीठा-मीठा रटने से मुँह मीठा नहीं हो सकता। मिठास का आनन्द तो उसे मिलेगा जो उसे खाने लगेगा। गीता पूजा-पाठ की पुस्तक नहीं, जीवन का मार्ग दर्शन उसमें भरा पड़ा है। आवश्यकता इस बात की है कि हम ठीक तरह उसे समझें और जो समझ सकते हों वे उसे जीवन में उतारने की विधि बनायें। ऐसा ही तेजस्वी गीता परायण युग-निर्माण की पुण्य बेला में आज के अर्जुन को अभीष्ट है।

‘गीता माध्यम से नव-जागरण की शिक्षा’ शीर्षक लेख में गत मास विस्तारपूर्वक यह बताया जा चुका है कि गीता-सप्ताह में परायण और गायत्री यज्ञ का समन्वय होकर एक सुन्दर धर्मानुष्ठान किस प्रकार बन सकता है? जेष्ठ के तीन शिविरों में जीवन-निर्माण की, युग-निर्माण की प्रेरणाप्रद शिक्षा और कार्यपद्धति इस बार मथुरा में समझाई गई थी। उस तेजस्वी शिक्षण में सम्मिलित होने वाले व्यक्ति एक नया जीवन, नया प्रकाश, नया कार्यक्रम और नया उत्साह लेकर यहाँ से गये हैं और उनमें से अधिकाँश की जीवन दिशा में नया मोड़ आया है। प्रयत्न यह है कि ऐसे ही तेजस्वी प्रशिक्षण की व्यवस्था गाँव-गाँव में होती रहे। दस दिन न सही सात दिन में भी काम चल सकता है। गीता सप्ताह के माध्यम से धर्मानुष्ठान के वातावरण में जीवन निर्माण की युग-निर्माण की शिक्षा यदि जनता को मिले तो निस्सन्देह उसका परिणाम सब प्रकार श्रेयस्कर ही होगा और उससे अपने लक्ष्य की पूर्ति में भारी सहायता मिलेगी।

जिस प्रकार पिछले दिनों जगह-जगह गायत्री यज्ञ हुआ करते थे और उनके माध्यम से नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान की भावनाएं प्रसारित की जाती थीं, उसी प्रकार अब आगे गीता सप्ताहों का कथा अनुष्ठान जगह-जगह चलेगा। हर शाखा इसी माध्यम से अपना वार्षिकोत्सव कर लिया करेगी। सात दिन तक योजनाबद्ध प्रशिक्षण चलेगा। अन्तिम दिन ही गायत्री यज्ञ होगा। सीमन्त, नामकरण, अन्न-प्राशन, विद्यारम्भ, मुण्डन, यज्ञोपवीत आदि संस्कार भी जिनको कराने होंगे वे भी एक-एक दिन एक-एक संस्कार के लिए निर्धारित रहने से सात दिन में वे भी पूरे हो जायेंगे। गीता पारायण को पद्यानुवाद के साथ सामूहिक गायन के माध्यम से चलाने पर वह भजन कीर्तन जैसा संगीतमय एवं आकर्षक बन जायगा। गीता के श्लोकों के साथ रामायण की चौपाइयों का समन्वय अपना एक अलग ही रस उत्पन्न करेगा फिर प्रत्येक श्लोक की व्याख्या में अनेकों पौराणिक कथाएँ, ऐतिहासिक गाथाएं महापुरुषों के स्मरण तथा मनोरंजक दृष्टान्तों का समन्वय हो जाने से वह इतनी मधुर बन जायगी कि सुनने वालों को अधिक से अधिक देर उस प्रसंग को सुनने में अभिरुचि रहेगी। इस प्रकार का प्रशिक्षण-बाल-वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित सभी के-लिए प्रेरणाप्रद ही नहीं मनोरंजक भी रहेगा।

इस प्रकार की गीता कथा कहने और षोडश संस्कार कराने की पद्धति द्वारा लोक शिक्षण एवं जन उद्देश्यों की पूर्ति होगी। इन सात दिनों में नगर में अनेकों रचनात्मक प्रवृत्तियों के जन्म से सुधारात्मक उत्साह को अग्रसर करने का प्रयत्न किया जायगा जिससे जिस शाखा में ऐसी कथाएं होंगी वहाँ एक उत्साह और नया जीवन उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

यह गीता सप्ताह के धर्मानुष्ठान आर्थिक दृष्टि से भी बहुत सस्ते रहेंगे। पैंतीस से लेकर पचास रुपये तक कथा वाचक का पारिश्रमिक, लगभग आठ-दस रुपया मार्ग व्यय, अन्तिम दिन सामूहिक हवन का खर्च 30) रुपया, व्यवस्था खर्च 20) रु0 अन्त में प्रसाद वितरण और कन्या भोजन 50)रु0 इस प्रकार करीब 150) रु0 खर्च पड़ेगा। इसे कम किया जाय तो 100) रु0 में भी काम चल सकता है और बढ़ाया जाय तो 200) रु0 पर्याप्त हो सकते हैं। इतना पैसा सात दिन तक चलने वाले इस धर्मानुष्ठान के लिए कहीं भी आसानी से इकट्ठा हो सकता है और हर साल यह उत्सव आनंदपूर्वक चलता रह सकता है।

कार्यकर्त्ताओं की आजीविका का प्रश्न भी इससे हल हो सकता है। भोजन मार्ग व्यय आदि खर्च की सुविधा रहने पर महीने में तीन आयोजन सम्पन्न कर लेने पर सौ डेढ़ सौ रुपया घर भेजने के लिए बच जाय तो मध्यम श्रेणी का कोई व्यक्ति धर्म प्रचार का कार्यक्रम नियमित रूप से चलाता रह सकता है। जिनके पास अपनी घर की आजीविका पेन्शन आदि मौजूद है, उन्हें दक्षिणा लेने की आवश्यकता नहीं। वे इस पैसे को शाखा का कार्य चलाने के लिए जहाँ धर्मानुष्ठान हो वहीं दान कर सकते हैं।

गीता सप्ताह के धर्मानुष्ठान के अतिरिक्त प्रतिदिन सायंकाल को थोड़ी-थोड़ी गीता कथा कहने की नियमित व्यवस्था चल सकती है। सप्ताह में एक दिन सत्संग के रूप में यह भी क्रम चल सकता है। पूरी गीता का साराँश लेकर दो-ढाई घण्टे का एक आयोजन सत्यनारायण व्रत कथा की तरह भी रखा जा सकता है। इस प्रकार कितने ही तरीकों से जहाँ जैसी सम्भावना हो वहाँ व्यवस्था बनाई जा सकती है। भगवान कृष्ण का सन्देश और गीता का तत्व ज्ञान बिलकुल वही है जो युग-निर्माण आन्दोलन का है। अस्तु भगवान और उनकी वाणी गीता में से लेकर इस महान् विचारधारा को जन-साधारण तक आसानी से पहुँचाया जा सकता है। इस दृष्टि से युग निर्माण पद्धति नये युग का सूत्रपात करने में बड़ी उपयोगी सिद्ध होगी।

गीता प्रवचन की इस अभिनव शैली और षोडश संस्कारों के द्वारा व्यक्तिगत जीवन को सुसंस्कृत करने की पद्धति का तेजस्वी शिक्षण एक महीने का रखा गया है। इसी अवधि में गायत्री यज्ञ कराने की परिपूर्ण प्रक्रिया भी सिखा दी जायगी। कार्तिक (21 अक्टूबर से 19 नवम्बर ) पौष (18 दिसम्बर से 17 जनवरी तक), फाल्गुन (15 फरवरी से 17 मार्च तक) बैसाख (16 अप्रैल से मई तक) इस वर्ष ये चार शिविर एक-एक महीने के लिए धार्मिक प्रशिक्षण के होंगे। युग-निर्माण की रचनात्मक प्रवृत्तियों एवं सुधारात्मक आन्दोलनों को किस प्रकार आगे बढ़ाएं जा सकता है इसके उतार-चढ़ावों का मनोविज्ञान एवं समाज विज्ञान के अनुरूप समाधान बताते हुए शिक्षार्थी को एक व्यवहारवादी ऐसा कार्यकर्ता बनाने का प्रयत्न किया जायगा कि वह युग-निर्माण के इस ऐतिहासिक अभियान में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सके।

इस प्रशिक्षण के लिए परिवार के उन सभी स्वजनों को इन पंक्तियों द्वारा आमन्त्रित किया जा रहा है जो सामाजिक एवं नैतिक क्रान्ति के सम्पन्न करने में अपना योगदान देना चाहते हों। राजनीति आज सर्वोपरि बन गई है। पर कल समाज-निर्माण के कार्य को महत्व मिलने वाला है। इस दिशा में उचित नेतृत्व कर सकने वाले तेजस्वी व्यक्तियों की अगले दिनों भारी आवश्यकता पड़ेगी। पोथी-पत्री पड़ना आज तिरस्कृत कार्य इसलिए है कि उसे घटिया श्रेणी के लोग अपने हाथ में लिये हुए हैं। जब विधवायें ही चरखा काता करती थीं तब बेचारा चरखा हेम बना हुआ था। पर जब गाँधीजी जैसे नेताओं और राज पुरुषों ने उसे अपना लिया तो वही स्वराज्य का प्रमुख अस्त्र-चक्र सुदर्शन के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करने लगा। धार्मिक मञ्च से जन-जागरण का काम ऐसा छोटा या हेय नहीं है जिसे करने में किसी को झिझक या संकोच की आवश्यकता पड़े।

जिन लोगों के यहाँ पौरोहित्य कर्म होता चला आया है, ऐसे सज्जनों के लिए तो यह शिक्षण अतीव उपयोगी है। जिनके ऊपर गृहस्थ की जिम्मेदारियाँ नहीं हैं वे आत्मकल्याण के लिए भी यह शिक्षण प्राप्त कर सकते हैं। जिनमें प्रतिभा है और जन नेतृत्व करने के लिये उत्सुक हैं वे भी इस ज्ञान के आधार पर बहुत बड़ा काम कर सकते हैं। गृहस्थ के गुजारे की सम्भावना भी इस शिक्षण के पीछे मौजूद है। शाखाएँ अपने प्रतिनिधि भेजकर उन्हें यह प्रशिक्षण प्राप्त करा सकती हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से भी यह ज्ञान कम महत्वपूर्ण नहीं है। जिन्हें उपयुक्त ढाँचे वे उपरोक्त चार महीनों में अपनी सुविधानुसार आने की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। पूर्व स्वीकृति प्राप्त करना हर शिक्षार्थी के लिए अनिवार्यतः आवश्यक है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118