संसार की सर्वोपरि सम्पत्ति-ज्ञान

August 1964

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साँसारिक सुखों की उपलब्धि के लिये शरीर-बल आवश्यक है। धन हो तो प्रत्येक मनोवाँछित वस्तु सरलतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं। जन-शक्ति के आधार पर अयोग्य व्यक्ति तक सत्तारूढ़ हुए हैं। चातुर्य, पद, सत्ता आदि से कोई भी व्यक्ति मनचाही इच्छाएँ पूरी कर सकता है, किन्तु ज्ञान के अभाव में यह सारी शक्तियाँ लघु प्रतीत होती हैं। ज्ञान संसार का सर्वोत्तम बल है। इसी के आधार पर दूसरी सफलतायें प्राप्त की जा सकती हैं। अज्ञानवश मनुष्य तन-धन-जन सभी का नाश कर लेता है। दुष्कर्म में लगे व्यक्ति का कहाँ तो शरीर ठीक रहेगा, कितने दिन धन ठहरेगा और कब तक दूसरों का सहयोग-सहानुभूति व आत्मीयता मिलेगी? मनुष्य ज्ञान के अभाव में ही बुरे कर्मों की ओर प्रेरित होता है। इसलिये संसार में ज्ञान को ही सर्वश्रेष्ठ बल कहा गया है।

बुद्धिमान व्यक्ति कम-से-कम साधनों में भी सुखी दिखाई देते हैं। इसका कारण यह है कि अज्ञानता के दुष्परिणामों से वे बचे रहते हैं। उनके प्रत्येक कार्य में विवेक होता है, जो कुछ करते हैं उसे पहिले भली प्रकार सोच समझ लेते हैं। पूरी तरह विचार करने के बाद किये गये कार्यों से हानि की सम्भावना प्रायः समाप्त हो जाती है। और उस कार्य में पड़ने वाली बाधाओं, परेशानियों और मुसीबतों से बचने का रास्ता मिल जाता है। ज्ञान मनुष्य को जीवन का सही रास्ता प्रदर्शित करता है, जिससे उसे कठिनाईयाँ कम होती और सफलतायें अधिक मिलती हैं। कदाचित् परिस्थितिवश कोई विघ्न आ भी जाए तो अपनी दूरदर्शिता के कारण बुद्धिमान व्यक्ति उसे आसानी से हल कर लेते हैं।

ओछे कर्म करने वाले लोगों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि ऐसे कार्य वे अधिकाँश अज्ञानता-वश ही करते हैं। जीवन की सही दिशा निर्माण करने की क्षमता न तो धन में है, न पद और प्रतिष्ठा में। आत्म-निर्माण की प्रक्रिया सत्कर्मों से पूरी होती है। सन्मार्ग में भी कोई स्वतः प्रवृत्त होता हो यह भी नहीं कहा जा सकता । यह प्रेरणा हमें औरों से मिलती है। दूसरों की अच्छाइयों का अनुकरण करते हुए ही महानता की मंजिल तक पहुँचने का नियम बना हुआ है। ऐसी बुद्धि किसी को मिल जाए तो उसे यही समझना चाहिए कि परमात्मा की उन पर बड़ी कृपा है। ज्ञान से मनुष्य की ऐसी ही धर्मबुद्धि जागृत होती है, इसलिये ज्ञान को परमात्मा का सर्वोत्तम वरदान मानना पड़ता है।

अज्ञानता के दुष्परिणामों से बचने का यह तरीका सबसे अच्छा है कि हम अपनी मानसिक चेष्टाओं को संसार का रहस्य समझने में लगायें। विचार करने की शक्ति हमें इसीलिए मिली है कि हम सृष्टि की वस्तु स्थिति को समझें और इसका लाभ अपने सजातियों को भी दें, किन्तु यह सब कुछ तभी सम्भव है जब हमारा ज्ञान बढ़े। जब-तक हम ज्ञानवान् नहीं बनते, अज्ञानता का शैतान हमारे पीछे पड़ा रहेगा, ऐसी अवस्था में हमारी मोह-ग्रन्थियाँ ज्यों की ज्यों बंधी रहेंगी। अज्ञानता का अन्धकार और विश्व-रहस्य की जानकारी के लिये ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता पड़ती है। इसी से भव-बन्धन टूटते हैं।

व्यक्ति के पात्रत्व की सच्ची कसौटी उसके ज्ञान से होती है। समाज में अधिक देर तक सम्मान व प्रतिष्ठा उन्हीं को मिलती है जो शीलवान, शिष्ट व विनम्र होते हैं उद्दण्ड दुराचारी व अशिष्ट व्यक्तियों को सभी जगह तिरस्कार ही मिलता है। इन आध्यात्मिक सद्गुणों का आन्तरिक प्रतिष्ठान ज्ञान से होता है इससे सदाचार में रुचि बढ़ती है। आप्त वचन है “विद्या ददाति विनयम् विनयम् ददाति पात्रत्ताम्” अर्थात् विद्या से, ज्ञान से विनयशीलता आती है। विनयशील ही पात्रत्व के सच्चे अधिकारी होते हैं।

मानवीय प्रतिभा का विकास ज्ञान से होता है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उन सभी के महान् व्यक्तित्व का विकास ज्ञान से हुआ है। भगवान् राम, कृष्ण, गौतमबुद्ध, ईसामसीह, सुकरात आदि सभी महापुरुषों ने ज्ञान की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है। साँसारिक दुखों से परित्राण पाने के लिये मानव जाति को सदैव ही इसकी आवश्यकता हुई है। शास्त्रकार ने ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित करते हुए लिखा है—

मोक्षस्य न हि वासेऽस्ति न ग्रामान्तर मेव वा

अज्ञान हृदयग्रन्थिर्नाशो मोक्ष इति स्मृतः॥

(शिव-गीता)

अर्थात् मोक्ष किसी स्थान विशेष में उपलब्ध नहीं होता। इसे पाने के लिये गाँव-गाँव भटकने की भी आवश्यकता नहीं। हृदय की अज्ञान ग्रन्थि का नष्ट हो जाना ही मोक्ष है। दूसरे शब्दों में स्वर्ग, मुक्ति का साधन है ज्ञान। इसे पा लिया तो इसी जीवन में जीवन-मुक्ति मिल गई समझनी चाहिये।

इस युग में विज्ञान की शाखा-प्रशाखायें सर्वत्र फैली हैं। प्रकाश, ताप, स्वर, विद्युत चुम्बकत्व और पदार्थों की जितनी वैज्ञानिक शोध इस युग में हुई है उसी को ज्ञान मानने की आज परम्परा चल पड़ी है। इसी के आधार पर मनुष्य का मूल्याँकन भी हो रहा है। तथाकथित विज्ञान को ही ज्ञान मान लेने की भूल सभी कर रहे हैं किन्तु यह जान लेना नितान्त आवश्यक है कि ज्ञान, बुद्धि की उस सूक्ष्म क्रियाशीलता का नाम है जो मनुष्य को सन्मार्ग की दिशा में प्रेरित करती है। विज्ञान का फल है इहलौकिक कामना पूर्ति और ज्ञान का संबंध है अंतर्जगत से। ज्ञान वह है जो मनुष्य को आत्म-दर्शन में लगाए।

इसके लिए प्रमाद को त्यागकर विनम्र बनना पड़ता है। जो केवल अपनी ही अहंता प्रतिपादित करते रहते हैं, जिन्हें केवल अहंकार प्यारा है वे अपने संकुचित दृष्टिकोण के कारण ज्ञान के आनन्द और अनुभूति को जान नहीं पाते। छोटे-से-छोटा बन जाने पर ही महानता की पहचान की जाती है। गल्ले के भारी ढेर पसेरियों से तौले जाते हैं। कपड़ों के थान गजों से नापते हैं। अमुक स्थान कितनी दूर है, यह मील के पत्थर बताते हैं। ऐसे ही विराट के साथ संबंध स्थापित करने के लिए महानता से गठबन्धन करने के लिए—हमें विनम्र बनना पड़ता है। भय लज्जा और संकोच को त्यागकर तत्परतापूर्वक अपनी चेष्टाओं को उस ओर मोड़ना पड़ता है। तब कहीं ज्ञानवान् बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है।

अपने पास धन हो तो संसार की अनेकों वस्तुएँ क्रय की जा सकती हैं। शारीरिक शक्ति हो तो दूसरों पर रोब जमाया जा सकता है। इससे दूसरों पर शासन भी कर सकते हैं औरों के अधिकारों का अपहरण भी कोई बलशाली कर सकता है। किन्तु विद्या किसी से खरीदी नहीं जा सकती, दूसरों से छीन भी नहीं सकते। इसके लिये एकान्त में रहकर निरन्तर शोध, अध्ययन और पर्यवेक्षण की आवश्यकता पड़ती है। अपनी मानसिक चेष्टाओं को सरस व मनोरंजक कार्य-क्रमों से मोड़कर इसमें लगाना पड़ता है। ज्ञानार्जन एक महान् तप है। इसे प्राप्त करने के लिए दृढ़ता, मानसिकता और अध्ययनशीलता अपेक्षित है। इसे प्राप्त कर लेने के बाद खो जाने का भय नहीं रहता।

किन्हीं बालकों में किशोरावस्था में ही अलौकिक बौद्धिक क्षमता की प्रतिभा देखते हैं तो यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि एक ही वय, स्थान व वातावरण में अनुकूल स्थिति प्राप्त होने पर भी दो बालकों की मानसिक शक्ति में यह अन्तर क्यों होता है? तब यह मानना पड़ता है कि एक में पूर्व जन्मों के ज्ञान के संस्कार प्रबल होते हैं दूसरे में क्षीण। भरत, ध्रुव, प्रहलाद, अभिमन्यु आदि में जन्म से ही प्रखर ज्ञान के उज्ज्वल संस्कार पड़े थे। जगद्गुरु शंकराचार्य ने थोड़ी ही अवस्था में पूर्णता प्राप्त कर ली थी। यह उनके पिछले जन्मों के परिपक्व ज्ञान के कारण ही हुआ मानना पड़ता है। इससे इस मत की पुष्टि होती है कि चिर-सहयोगी के रूप में जन्म-जन्मान्तरों तक साथ रहने वाला अपना ज्ञान ही है। ज्ञान का नाश नहीं होता। वह अजर है, अमर है।

सार्थक-जीवन की आधार-शिला ज्ञान है। बुद्धिमत्ता की सच्ची कसौटी यह है कि मनुष्य अपनी सच्ची जीवन-दिशा निर्धारित करे। कुछ न कुछ करता रहे चाहे वह अहितकर ही क्यों न हो, यह बात तर्क-संगत प्रतीत नहीं होती। कर्म का महत्व तब है जब उससे हमें अपना जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने में सफलता मिलती है। यह प्रक्रिया मानव जीवन में सन्मार्ग पर चलने से पूरी होती है और सन्मार्ग पर देर तक टिके रहना ज्ञान-प्राप्ति से ही सम्भव है। इसे प्राप्त करने के लिये अपने जीवन को साधनामय बनाए तो ही ज्ञानवान् बनने का सच्चा सुख प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान ही इस संसार की सर्वोपरि सम्पत्ति है।


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