प्रगति की दिशा में सही प्रयत्न

August 1963

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(स्वामी सन्तोषानन्द जी महाराज)

सभी क्षेत्रों में आज यह अनुभव किया जा रहा है कि एक ओर जितने प्रयत्न उन्नति के लिये किये जा रहे है उतना ही दूसरी ओर अवनति का द्वार प्रशस्त हो रहा है। आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये उद्योग-धन्धे बढ़ाये जा रहे हैं, कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने की व्यवस्था की जा रही है, शिक्षा की प्रगति के लिये स्कूल-कालेजों की संख्या बढ़ रही है, चिकित्सा के लिये अस्पतालों और डाक्टरों की संख्या वृद्धि की जा रही है, अपराध रोकने के लिये कानून, पुलिस और अदालत पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है, यातायात की सुविधा बढ़ाने के लिये रेल, मोटर, जहाज, स्कूटर, सड़कें आदि के निर्माण का विशाल कार्यक्रम चल रहा है। मनोरंजन के लिये सिनेमा, सर्कस, नाटक, खेल-कूद, पार्क आदि का विकास हो रहा है। इन्हें देखते हुये सहज ही यह अनुभव होता है कि प्रगति के इन भारी साधनों द्वारा मनुष्य जाति की सुख-सुविधाओं में अवश्य ही वृद्धि होगी।

लोक-शिक्षण के प्रयत्न भी स्वल्प नहीं हैं। सरकार अपनी योजनाओं और सफलताओं से जनता को परिचित करने के लिये भारी व्यय करके प्रदर्शनियाँ लगाती हैं, सिनेमा दिखाती हैं, ग्राम सेवक, ब्लॉक-कर्मचारी, कल्याण-विभाग के कार्य कर्ता भारी संख्या में काम कर रहे हैं। कृषि, स्वास्थ्य, सहयोग, शिक्षा आदि का प्रशिक्षण करने के लिये बड़े-बड़े विभाग बने हुये हैं और उनमें प्रचुर धन एवं जन शक्ति का उपयोग होता है। रेडियो द्वारा देश-भक्ति , सदाचार स्वास्थ्य आदि के अनेक प्रकार के कार्यक्रम प्रसारित होते रहते हैं। राजनेता, मंत्री आदि के भाषणों की आये दिन धूम मची रहती है। राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र के कार्यकर्ता अपने-अपने ढंग से निरन्तर प्रवचन करते रहते हैं। उनके विशाल प्रयत्नों को देखते हुये यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जनता को अवश्य ही उच्च भावनाओं से ओत-प्रोत, कर्तव्य परायण, आदर्श प्रेमी और सुखी बन जाना चाहिये।

विकास और सुधार का, शिक्षा और समृद्धि का, चिकित्सा और सुविधाओं का जितना विशाल आयोजन आज हो रहा है उतना संसार के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। इसे देखते हुये जहाँ एक ओर बँधती हैं वहाँ दूसरी ओर देखते हैं तो निराशा से चित्त क्षुब्ध होने लगता है। इतनी चेष्टा करने पर भी स्थिति हर दिशा में बिगड़ती ही जा रही है। शारीरिक दृष्टि से लोग अपने को अशक्त , दुर्बल और रोगी ही अनुभव करते हैं। ऐसे भाग्यशाली विरले ही मिलेंगे जो अपने को पूर्ण निरोग होने का भरोसा कर सकें। श्रद्धा, विश्वास और आत्मीयता का गृहस्थ-जीवन कोई विरले ही बिता पा रहे हैं। दाम्पत्य और पारिवारिक जीवन जहाँ भी देखिये वहाँ विषाक्त बना दिखाई देता है। आमदनी से खर्च सबका बढ़ा हुआ है। सभी अपने को गरीब अभावग्रस्त अनुभव करते हैं। शिक्षितों को नौकरी न मिलने पर ठीक वेतन न मिलने की शिकायत रहती है। गुण्डागर्दी और अपराधों की तो बाढ़ ही आ गई है जिससे हर व्यक्ति सदैव सशंकित बना रहता है। सरकारी क्षेत्रों में रिश्वतखोरी और लापरवाही बेहिसाब बढ़ गई है जिससे न्याय और अधिकारों का प्राप्त होना दिन-दिन महंगा और कष्टसाध्य बनता चला जा रहा है। सार्वजनिक संस्थाओं के पोल खाते जब सामने आते है तब और भी अधिक निराशा होती हैं। जिनकी स्थापना लोगों को उच्च आदर्श सिखाने के लिये की गई हो, उसके संचालक और पदाधिकारी ही यदि आदर्शहीनता का परिचय देने लगें तो फिर कौन उनके उपदेशों को सुनेगा और कौन उन पर आचरण करेगा?

धार्मिक अनुष्ठानों की आये दिन धूम रहती है। कथा, हवन, कीर्तन, सम्मेलन रोज ही कहीं-न-कहीं होते रहते हैं। इन्हें देखते हुये यही जान पड़ता है कि धर्म का विस्तार हो रहा है। साधु-सन्तों की संख्या लाखों तक पहुँच जाने से एक सामान्य मनुष्य यही समझता है कि उनके द्वारा जनता में ज्ञान वृद्धि और धर्म की जागृति होती ही होगी। पर जब वास्तविक परिणाम का पता लगाया जाता है तो आँखों के आगे अँधेरा छा जाता हैं और यही प्रतीत होता है कि यहाँ तो मेंड़ ही खेत को खाये जा रही है।

प्रगति का बाह्य आवरण दिन-दिन बहुत बढ़ता चला जाता है, आडम्बर का घटाटोप बँध रहा है, पर भीतर सब कुछ खोखला हैं। मनुष्य का चरित्र, दृष्टिकोण एवं आदर्श पतित होने पर सभी ऊपरी उपचार निरर्थक सिद्ध होते है। रक्त-विकार से रुग्ण शरीर में जगह-जगह निकलते रहने वाले फोड़ों पर मरहम लगा देने मात्र से कोई स्थायी हल नहीं निकल सकता। जड़ के सींचे बिना केवल पत्तों पर छिड़काव कर देने से पेड़ की हरियाली कब तक बनी रहेगी?

संसार में दिन-दिन बढ़ती जाने वाली उलझनों का एक मात्र कारण मनुष्य के आन्तरिक स्तर, चरित्र, दृष्टिकोण एवं आदर्श का अधोगामी होना है। इस सुधार के बिना अन्य सारे प्रयत्न निरर्थक हैं। बढ़ा हुआ धन, बढ़े हुये साधन, बढ़ी हुई सुविधाएं कुमार्गगामी व्यक्ति को और भी अधिक दुष्ट बनायेगी। इन बढ़े हुये साधनों का उपयोग वह विलासिता, स्वार्थपरता, अहंकार की पूर्ति और दूसरों के उत्पीड़न में ही करेगा। असंयमी मनुष्य को कभी रोग-शोक से छुटकारा नहीं मिल सकता भले ही उसे स्वास्थ्य-सुधार के कैसे ही अच्छे अवसर क्यों न मिलते रहें।

कठिनाइयाँ, अभावों और विपत्तियों की जड़ मनुष्य के भीतर रहती हैं। जितना प्रयत्न संसार को सुखी और समृद्ध बनाने के लिये किया जा रहा है यदि उसका सौवाँ भाग भी मनुष्यों के आन्तरिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिये किया जाता तो आज स्थिति कुछ और ही होती। जब तक हम वास्तविक दशा को न समझेंगे तब तक असफलता और निराशा के अतिरिक्त और क्या हाथ लगने वाला है। जिन लोगों के कन्धों पर जन सेवा का भार है वे ही यदि अपने कर्तव्य की उपेक्षा करके जैसे बने वैसे स्वार्थ साधने का ठान लें तो फिर उनके दिखावटी प्रयत्नों से किसी शुभ परिणाम की आशा कैसे की जा सकती है?

बाहरी आडम्बरों के बढ़ने से किसी समस्या का हल न होगा। मानव-जीवन की दिन-दिन बढ़ने वाली समस्त आपत्तियों का समाधान करने का केवल एक ही मार्ग है कि उठाया जाय और उसकी भावना, श्रद्धा तथा आकाँक्षाओं को धर्म एवं सदाचार से नियंत्रित रखा जाय। जब मनुष्य अपने आत्म गौरव, कर्तव्य और लक्ष्य को भली प्रकार अनुभव कर सकेगा तभी पशु प्रवृत्ति से ऊंचा उठ कर मनुष्य के योग्य यशस्वी पथ का पथिक बन सकता है।

रोग का ठीक निदान हो जाने पर चिकित्सा संबंधी आधी कठिनाई हल हो जाती है। पेट में कब्ज रहने पर अनेक रोग उठ खड़े होते हैं, स्वभाव में क्रोध की मात्रा बढ़ जाने से अनेकों विरोधी तथा शत्रु पैदा हो जाते हैं। इसी प्रकार मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित और चरित्र पतित हो जाने पर उसे प्रत्येक दिशा में आपत्तियाँ दिखाई देने लगती हैं। इसी प्रकार जिस राष्ट्र की जनता स्वार्थी, विलासी, कायर, आलसी और दुर्गुणी हो जाती है, वहाँ अगणित प्रकार के शोक सन्ताप बढ़ने लगते हैं। बाहरी उपचारों से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता रोग के कारणों को हटाने से ही व्यथा दूर होती है। व्यक्तियों का आन्तरिक स्तर ऊँचा उठाने पर ही पतन का प्रत्येक दृश्य उन्नति में बदलने लगता है।

विश्वशान्ति की स्थिति उत्पन्न करने का कोई प्रयत्न तभी सफल होगा जब व्यक्तियों की भावनाओं को ऊँचा उठाने को सर्वोपरि महत्व की बात मान कर योजना बनाई जाय। मुझे युग-निर्माण योजना में ऐसा ही प्रयत्न प्रतीत होता है। उसके संयोजकों ने समस्या की जड़ ढूँढ़ने का प्रयत्न किया है और रोग के सही निदान के अनुरूप चिकित्सा आरम्भ की है। सही दिशा में उठाये हुये कदम ही सही परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं। यदि इन प्रयत्नों को प्रोत्साहन मिला तो विश्वासपूर्वक यह आशा की जा सकती है कि संसारव्यापी अशान्ति की समस्या का हल निकलेगा और मानव जाति का भविष्य पुनः उज्ज्वल बनेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118