सत्प्रवृत्तियों का प्रबल आन्दोलन

August 1963

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(श्री प्रेमप्रकाश वार्ष्णेय एम. ए.)

यह सुनिश्चित तथ्य है कि व्यक्ति का चरित्रबल और मनोबल न बढ़ सका तो वह सब कुछ साधन रहते हुये भी दुर्बल ही रहेगा। लड़ाई में कायर लोग कीमती हथियारों को भी छोड़कर भाग खड़े होते हैं और बहादुर लोग लाठियों के बल पर ही विजय प्राप्त कर लेते हैं। सामान नहीं, साहस जीतता है। धन केवल रोजगार करने से ही नहीं मिल जाता वरन् उसके लिये चतुरता और योग्यता की भी आवश्यकता होती है। आरोग्य दवाओं से नहीं, संयम से मिलता है। दोस्त और दुश्मन बढ़ाने की जड़ मनुष्य के भले या बुरे स्वभाव में छिपी रहती है। ईश्वर को प्राप्त करने में पूजा, परिचर्या ही नहीं अन्तःकरण की श्रद्धा ही सफल होती है। किसी राष्ट्र की संपत्ति वहाँ का सोना-चाँदी नहीं वरन् उसके नागरिकों का व्यक्तित्व ही होता है। इसलिये ज्ञानी लोग सदा से यही उपदेश देते आये हैं कि यदि किसी समाज या राष्ट्र को बलवान बनाना हो तो केवल उसकी सुविधायें और सामग्री बढ़ाने से काम न चलेगा वरन् वहाँ के जन-साधारण के चरित्र और साहस को बढ़ाना होगा। आदर्शवादी व्यक्ति ही वह कार्य कर सकते हैं, जिसमें से अन्धकार को नष्ट करने वाली आशा की किरण उत्पन्न होती हैं।

लोकशिक्षण की जितनी उपयोगिता प्राचीन काल में थी, आज उससे कहीं अधिक है। क्योंकि जन-मानस में जितनी विकृति उस समय भी आज उससे अधिक ही है। इस बात को लोग समझ भी रहे हैं और सभी स्वीकार करते हैं। किसी मनुष्य का जीवन केवल धन या सुखोपभोग की सामग्री के आधार पर ही सफल नहीं बन सकता। उसके लिये एक उत्तम श्रेणी के व्यक्तित्त्व की भी आवश्यकता होती है। इसलिये सच्ची सुख-समृद्धि के लिये विभिन्न सामग्रियों के साथ ही मानवीय सद्गुणों के विकास की आवश्यकता होती है। ओछे स्वभाव के और हीन दृष्टि कोण रखने वाले मनुष्य अपार समृद्धि प्राप्त हो जाने पर भी उसका सदुपयोग नहीं कर सकते और हीन ही बने रहते हैं। इसलिये प्राचीन समय की भाँति वर्तमान काल में भी यह तथ्य ज्यों का त्यों विद्यमान है कि उन्नति करने के लिये जन साधारण की आन्तरिक स्थिति को उत्कृष्ट बनाया जाय। इसके बिना यदि किसी अन्य उपाय से प्रगति हो भी गई-समृद्धि बढ़ गई, तो भी वह ज्यादा दिन तक टिक न सकेगी। मानवीय दोष-दुर्गुणों की भट्टी में धन-वैभव का ईंधन कुछ ही देर में जल-बल कर भस्म हो जाता है।

मनुष्य की प्रकृति अनुकरण करने की है। जहाँ बुरी परम्परायें चल पड़ती हैं वहाँ लोग उनका ही अनुकरण करने लगते हैं, और जहाँ अच्छे रिवाज चल पड़ते वहाँ उन्हीं को पसन्द करने लग जाते हैं। बंगाल में अधिकाँश व्यक्ति मछली खाते हैं तो वहाँ मछली न खाने की बात सुनकर आश्चर्य किया जाता है और गुजरात में बहुसंख्यक जनता शाकाहारी हैं तो वहाँ माँस-मछली खाने की बात पर घृणा का भाव प्रकट किया जाता है। बुरे और भले और स्वभाव, आचरण, व्यवहार, एवं कार्यों के बारे में भी यही बात है। देखा-देखी से मनुष्य जाति में जितनी गतिविधियाँ बढ़ती और फैलती फूटती हैं उतनी और किसी प्रकार नहीं बढ़तीं।

धर्म शास्त्रों में अनेक अच्छी बातें लिखी हुई हैं। उन्हें कथा-प्रवचन और पाठ-स्वाध्याय के रूप में हम सुनते-समझते भी रहते हैं, पर वैसे आदर्श कार्यों के उदाहरण देखने को न मिल सकने से वे बातें सिद्धान्तों तक ही सीमित रह जाती हैं। व्यवहार में तो वे ही बातें सीखी जाती हैं जो अपने चारों ओर दिखाई पड़ती हैं। तमाखू पीने की बुरी आदत बेतरह बढ़ती जा रही है। उससे लाभ किसी प्रकार का कुछ भी नहीं, हानि अनेक प्रकार की है। इसका कारण देखा−देखी का भाव ही है। बाप को पीते देखकर बेटा और दोस्त को पीते देखकर दोस्त उस लत को सीखता है और यह बुराई छूत की बीमारी की तरह दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती चली जा रही है।

इसी प्रकार अन्य बुराइयाँ भी पनपती रहती हैं। किन्तु अच्छाइयों की कभी बढ़ती होती है तो उसमें भी यही नियम काम करता है। भगवान वृद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर जब कुछ स्त्री-पुरुषों ने संन्यास ग्रहण किया तो उनकी देखा−देखी अन्य सहस्रों व्यक्ति भी प्रव्रज्या के लिये तत्पर हो गये। देखते-देखते लाखों की संख्या में बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणी बौद्ध धर्म का प्रचार करते हुए देश देशान्तरों में दृष्टिगोचर होने लगे। महात्मा गान्धी द्वारा संचालित स्वराज्य-संग्राम में भी यही हुआ। नमक सत्याग्रह, धरना, झण्डा, जुलूस, हड़ताल आदि की लहर दौड़ी तो उसके प्रवाह में स्वराज्य आन्दोलन के सिद्धान्तों और लक्ष्य से अपरिचित लोग भी हजारों-लाखों की संख्या में जेल जाने को तैयार हो गये थे। दहेज, मृत्युभोज जैसी कुरीतियों को प्रायः हर समझदार आदमी हानिकारक मानता है, पर उनका प्रचलन इसीलिये बन्द नहीं होता कि दूसरे लोग वैसा करते हैं अपने को भी वैसा ही करना पड़ता है।

अच्छे कामों, अच्छी, बातों, अच्छी परम्पराओं का फलना-फूलना इस बात पर निर्भर है कि उनका प्रचार एक सुव्यवस्थित आन्दोलन के रूप में किया जाय और उनकी जानकारी अधिकाधिक लोगों को कराई जाती रहे। सत्कार्यों का आयोजन और उनका नियमपूर्वक प्रचार करने से वह वातावरण बन सकता है जिससे प्रभावित होकर लोग स्वयं भी उस मार्ग का अनुकरण करने लगें। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति का मूल्य और महत्व राजनीतिक क्रान्ति से कई गुना अधिक है। ऐसा व्यापक कार्यक्रम न तो व्यक्तिगत उपासना की तरह एकाकी उपायों से संभव है और न कथा-प्रवचनों द्वारा उसे प्रत्यक्ष रूप दिया जा सकता है। यह कार्य जब कभी सम्पन्न किया जायगा तभी यही प्रयत्न करना होगा कि अच्छे आचरणों तथा श्रेष्ठ परंपराओं को उत्साहपूर्ण वातावरण में एक सुनियोजित रूप में अग्रसर किया जाय।

युग-निर्माण योजना को मैंने इसी रूप में देखा और समझा है। शरीर, मन, परिवार और समाज के माध्यम से जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों का प्रचलन इस योजना का उद्देश्य प्रतीत होता है। संसार के इतिहास में क्राँतियाँ इसी प्रकार उत्पन्न, विकसित और सफल हुई है। योजना के 108 कार्यक्रमों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो यही प्रकट होता हैं कि सद्विचारों और सत्कार्यों को एक योजनाबद्ध आन्दोलन का रूप देकर उन्हें जन-स्वभाव में अभ्यस्त कराने के लिये यह प्रयत्न मजबूत हाथों द्वारा आरम्भ किया गया है। इसकी सफलता धर्म की, सदाचार की, संस्कृति की और मानवता के उच्च आदर्शों की विजय मानी जायगी। मुझे आशा है कि मानवीय विवेक और देवत्व की भावना का पूरा सहयोग इस ‘ज्ञान-यज्ञ’ में पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होगा।


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