(श्री भवानीदत्त आयुर्वेदाचार्य)
मैं छोटा ही था तब कहीं से एक विचित्र पत्र मेरे पिताजी के नाम से आया। उसमें लिखा था कि आगामी कुम्भ पर्व पर प्रयोग में शाकलद्वीपीय ब्राह्मणों का ‘अखिल-भारतीय-सम्मेलन’ होगा उसमें सब विचारशील स्वजातिबन्धु अवश्य पधारें। इस संदेश के साथ उसमें यह भी लिखा था कि इस पत्र की दस नकल करके जाति बन्धुओं को भेजनी चाहिये, जो भेजेगा उसे ब्रह्मयज्ञ का फल मिलेगा जो आलस या उपेक्षा करेगा वह जाति द्रोह के पाप से नरक में पड़ेगा। ऐसी ही एक चिट्ठी कुछ दिन बाद और भी देखने में आई “हरे राम-हरे कृष्ण” वाक्य 108 बार लिखा था और साथ ही यह संदेश भी था कि इसकी दस प्रतियाँ करके दूसरों को देनी चाहिये। जो देगा उसे सुख, सौभाग्य, धन संतान की प्राप्ति होगी और जो उपेक्षा करेगा उसे ईश्वरीय कोप का भागी बनना पड़ेगा।
उन दिनों तो इस प्रकार के पत्रों की उपयोगिता मैं न समझ सका, पर पीछे जब विचार किया जो जान पड़ा कि प्राचीन काल में जब प्रचार के आधुनिक साधन न थे तब किसी संदेश को व्यापक रूप से फैलाने के लिये एक से दस की पद्धति बहुत उपयोगी थी। इस उपाय से कोई भी संदेश या विचार देश-देशान्तरों तक सहज ही पहुँचाया जा सकता था। व्यक्ति के साधन सीमित होते हैं, पर जब सब लोग सम्मिलित साधनों से किसी बात को फैलाने में सहयोग देने लगें तो उसके व्यापक बन सकने की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है।
आज प्रचार के अनेक साधन उत्पन्न हो गये हैं फिर भी ‘एक से दस’ वाली प्राचीन पद्धति की उपयोगिता अब भी इसलिये बहुत अधिक है कि उसमें व्यक्तियों का व्यक्तित्व और प्रभाव भी प्रचार के साथ जुड़ा रहता है। उस बात को दस आदमियों तक फैलाने का प्रयत्न जो व्यक्ति करता है उसका मनोबल, मस्तिष्क साथ में जुड़ जाने से उसमें एक नवीन शक्ति उत्पन्न हो जाती है। वह व्यक्ति लोगों को अपनी ओर से भी समझाता है और पूछी हुई शंकाओं का उत्तर भी देता है। परिचित व्यक्ति जब अपनी जान पहिचान वालों के पास कोई सन्देश भेजता है तो उसे अधिक विश्वस्त भी माना जाता हैं। इसलिये चाहे वह पद्धति आज प्रचलित न हो पर उपयोगिता की दृष्टि से उसकी महत्ता आज ही नहीं सदैव अक्षुण्ण रहेगी।
देखते हैं कि ‘युग-निर्माण-योजना’ में सत्प्रवृत्तियों के प्रसार के लिये उसी ‘एक से दस’ वाली चिर पुरातन और परीक्षित मनोवैज्ञानिक पद्धति को आधार बनाया गया है। जो संदेश सूत्र−संचालक द्वारा प्राप्त हो उसे हर सदस्य अपने प्रभाव क्षेत्र के दस व्यक्तियों को कहें, समझावें और उसी मार्ग पर चलने के लिये तैयार करने में अपने प्रभाव का उपयोग करें तो यह निस्सन्देह एक महत्वपूर्ण एवं ठोस कार्य हो सकता है। सीमा विस्तार की दृष्टि से भी यह पद्धति इतनी तेजी से बढ़ने और फैलने वाली है कि कुछ ही समय में समस्त विश्व में उसका विस्तार हो सकता संभव जान पड़ता है।
स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की नव रचना का जो आध्यात्मिक कार्यक्रम इस योजना द्वारा प्रसारित और कार्यान्वित किया जा रहा है उसे विश्वव्यापी बनाया जाना आवश्यक है। हजार, दो हजार व्यक्तियों तक कोई अच्छी परम्परा सीमित रह जाय तो करोड़ों में फैली हुई बुराई की तुलना में उसका क्या महत्व है? इसलिये इतनी बड़ी योजना के लिये उसकी व्यापकता का ध्यान रखना ही पड़ेगा। यह संभावना एक से दस वाली पद्धति से जैसी सरलतापूर्वक सफल हो सकती है उतनी और किसी प्रकार नहीं हो सकती।
‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ के हम 30 हजार सदस्य आचार्य जी की प्रेरणा से आत्म निर्माण और समाज-निर्माण की पुण्य-प्रक्रिया को कार्यान्वित करने के लिये कटिबद्ध हुये हैं। इस योजना को हमें दस-दस व्यक्तियों तक फैलाना है। इस प्रकार पहले ही प्रयास में हम 30 हजार से 3 लाख बनेंगे। दूसरे प्रयास में 3 लाख के दस गुने अर्थात् 30 लाख होंगे। तीसरे में यह संख्या दस गुनी होकर 3 करोड़ तक पहुँचेगी। चौथी मंजिल पर पहुँचकर 30 करोड़ और पाँचवीं मंजिल पर दस गुने के क्रम से 3 अरब हो सकती है। इतनी ही जनसंख्या इस पृथ्वी पर रहती है। पाँच बार प्रयास करके-पाँच मंजिलें पार करके “एक से दस” की योजना के अनुसार हम इस पुण्य प्रक्रिया को देशव्यापी ही नहीं विश्व-व्यापी भी बना सकते हैं।
माना कि इस संसार में आलसी, प्रमादी, नास्तिक, अपराधी प्रकृति के, अच्छे कामों में रोड़ा अटकाने वाले व्यक्ति भी कम नहीं हैं, जो सहयोग देना तो दूर उल्टा उपहास करेंगे और जहाँ तक बन पड़ेगा बाधा डालेंगे। कुछ शिक्षा के अभाव से इसे समझ भी न सकेंगे और कुछ समझेंगे तो अहंकार-वश उसका अनुसरण न करेंगे। इतना होते हुये भी यदि दसवाँ अंश सफलता मिल सके तो भी कम महत्व की बात नहीं है। पाप में आकर्षण तो बहुत होता है तो भी वह किसी तरह पुण्य की बराबरी नहीं कर सकता। डाकू , हत्यारे, पापी, ठग व्यभिचारी, शराबी बहुत कोशिश करने पर अपने जैसे 10-20 व्यक्ति ही नये पैदा कर सकते हैं। पर गाँधी, बुद्ध, ईसा और महावीर जैसी आत्माएं अपने असंख्यों अनुयायी बनाने में समर्थ हो गईं। निश्चय ही यदि सत्प्रवृत्तियाँ सच्चे व्यक्तियों द्वारा श्रेष्ठ साधनों से प्रसारित की जायें तो वे भी गतिशील होती हैं और उनका भारी प्रभाव जन-मानस पर पड़ता है। अधिक समय नहीं हुआ कि भारतीय-स्वाधीनता संग्राम में लाखों व्यक्तियों ने देशभक्ति की उद्दात्त भावनाओं से प्रेरित होकर अपना तन-मन-धन मातृभूमि की बलिवेदी पर प्रसन्नतापूर्वक अर्पण कर दिया था। यदि कोई वैसा ही सारयुक्त और वस्तुतः उपयोगी आन्दोलन पुनः सामने आवे तो जनता का पर्याप्त सहयोग फिर मिल सकता है। इसलिये निराश होने की जरा भी आवश्यकता नहीं कि बहुत से लोग इस कार्य की उपेक्षा या उपहास करेंगे। यदि थोड़े लोग भी साहस प्रदर्शित कर सकें तो लक्ष्य की पूर्ति आसानी से हो सकेगी। दुष्प्रवृत्तियों की तरह सत्प्रवृत्तियाँ भी छूत की तरह लोगों पर असर करती हैं और जो प्रयत्न हृदय से किये जाते हैं वे कभी निष्फल नहीं होते।
हर व्यक्ति को अपने प्रभाव क्षेत्र में सेवा का स्वतन्त्र उत्तरदायित्व सौंप कर लोगों को संस्थावाद को उस बुराई से बचा लिया गया है जिसके कारण आये दिन राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, नामवरी और यश के लिये सिर फूटते हैं, और धन-संग्रह करके हड़पने का अवसर मिलता है। राजनीति में या आर्थिक विषयों से सम्बन्धित संस्थाओं में चुनाव पद्धति की आवश्यकता हो सकती है, पर आध्यात्मिक कार्यक्रमों में तो व्यक्ति की उत्कृष्टता ही सर्वोपरि रहती है। सुचारक को अकेला एक ओर खड़ा होना होता है और सारी दुनिया उसका विरोध करती है। उसे जमाने को पलटना पड़ता है और यह कार्य पग-पग पर विरोध और तिरस्कार सहते हुये भी करना होता है। यदि ऐसे कार्य जनमत द्वारा चुनाव के आधार पर चला करे, तो बहुमत जैसा कुछ हैं-अथवा अधिकाँश लोग जैसे हैं, वैसी ही रीति-नीति युग-निर्माताओं को भी स्वीकार करनी पड़ेगी।
आर्ष आदर्शों को जीवन में उतारने और उन्हें अपने परिचित लोगों में- अपने प्रभाव क्षेत्र में फैलाने का कार्य ऐसा हैं जिसे बिना किसी संगठन के भी चलाया जा सकता है। संसार के सभी धर्म इसी प्रकार चलाये गये है। पीछे तो हर अच्छी वस्तु में भी विकृति आ जाती है, पर अपने-अपने समय पर सभी धर्मों ने जनता की बड़ी सेवा की है और जन-जीवन को आवश्यक मोड़ दिये हैं। हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई, मुसलमान, पारसी जैन आदि कोई भी धर्म संस्था बनाकर आगे नहीं बढ़ा है। श्रेष्ठ लोगों ने अपनी श्रेष्ठता को फैलाकर ही इन धर्मों का विस्तार किया था। युग-निर्माण योजना भी मानव-धर्म पर आधारित है और यह हरी दूब की भाँति स्वयं ही फैलेगी। एक दीपक से दूसरा चलने वाली पद्धति ही इसमें सफल होगी।
अनेक दोषों से इस योजना को बचाये रखने के लिये इसमें एक महत्वपूर्ण तथ्य का ध्यान रखा गया है। यह कार्यक्रम आँधी-तूफान के ढंग का नहीं है। आत्मोन्नति की पुण्य-प्रक्रिया शान्ति और सुव्यवस्था के आधार पर ही अग्रसर होती है। युग-निर्माण योजना के मुख्य सिद्धान्तों को समझने के बाद उसके प्रचार का उत्तरदायित्व विचारशील प्रबुद्ध आत्माओं पर छोड़ दिया गया है। इसको जो जितने अंशों में कार्यान्वित कर सकेगा वह अपना और दूसरों का उतना ही हित साधन करेगा।
योजना में दिये गये छोटे-छोटे कार्यक्रमों को देखकर कोई सज्जन कदाचित यह सोचने लगे होंगे कि इसमें तो खाने पीने पौधे उगाने, पाठशालायें चलाने जैसे साधारण कार्यक्रम हैं, इनसे युग परिवर्तन कैसे संभव होगा? आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त करना जैसा महान कार्य इसके द्वारा कैसे हो सकेगा? ऐसा सन्देह करने वालों को महात्मा गाँधी के चर्खा और खादी आन्दोलन का स्मरण करना चाहिये। बापू सदा यह कहते रहते थे कि “चर्खे से ही स्वराज्य मिल सकता है, खादी के बिना आजादी संभव नहीं।” लोग उनकी हँसी उड़ाते थे और कहते थे कि इतनी बड़ी और शक्तिशाली अंगरेजी सल्तनत चर्खा चलाकर कैसे हटाई जा सकती है, इसके लिये तो मारधाड़ उखाड़-पछाड़ से भरी हुई कोई तूफानी योजना बननी चाहिये। गान्धी जी कहते थे-”मारधाड़ में हम हार जायेंगे, क्योंकि इसके साधन अँग्रेजों के पास अधिक हैं। हमको जन-मानस में आजादी, आत्म गौरव और स्वावलम्बन के प्रति तड़पन पैदा करनी है। वह तड़पन जिस दिन उत्पन्न हो गई उसी दिन अंग्रेजों को भागना पड़ेगा।” उस तड़पन को उत्पन्न करने के लिये गाँधी ने छोटे-छोटे प्रतीक रूप कार्यक्रम सामने रखे थे। चर्खा को आत्म निर्भरता, स्वावलम्बन और देशभक्ति का प्रतीक बनाकर गाँधी जी ने राष्ट्र के सम्मुख उपस्थित किया था। खादी से इन्हीं भावनाओं का उद्भव पहनने वाले के अन्तःकरण में होता था। नमक सत्याग्रह छेड़कर उन्होंने विदेशी कानून के प्रति व्यापक अवज्ञा उत्पन्न की थी। यों नमक का प्रश्न कोई बहुत बड़ी बात न थी। उससे प्रति वर्ष केवल दो-चार पैसा टैक्स प्रत्येक आदमी का बचाया जा सकता था। इतनी सी बात अंग्रेज सरकार आसानी से मान सकती थी और गाँधीजी के कहने से नमक टैक्स छोड़ सकती थी। पर बात इतनी ही नहीं थी। उसके पीछे प्रचण्ड प्रेरणा देने वाले भावनात्मक तथ्य छिपे थे। नमक सत्याग्रह द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को तत्कालीन सरकार के कानूनों के प्रति बगावत करने की प्रेरणा दी गई थी। विशुद्ध रूप से वह एक मनोवैज्ञानिक आन्दोलन था।
खादी की बात भी ऐसी ही थी। चर्खा के सम्बन्ध में देश के बड़े-बड़े आदमी कहते थे कि हमारा वक्त कीमती है, इस छोटे काम में हम उसे खर्च क्यों करें? इससे जितनी देर में दो-चार पैसे का उपार्जन होगा उतनी देर में हम सैकड़ों रुपये कमा कर स्वराज्य आन्दोलन में दे सकते हैं। पर गाँधीजी ने ऐसे लोगों को समझाया कि प्रश्न पैसे का नहीं हैं, भावना का है। भावना न जगे तो पैसा व्यर्थ है। बिना पैसे के भावनाशील व्यक्ति सब कुछ कर डालते है, पर भावना से शून्य पैसा धूल के समान है। उससे कोई महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये कार्य का असीम भार होते हुये भी गान्धी जी नियमित रूप से स्वयं चर्खा चलाते थे और अपने साथियों से भी चलवाते थे। भावनायें किसी प्रतीक का आश्रय लेकर ही जग सकती हैं। कोरी कल्पना करते रहने से मनोरंजन भले ही हो जाय पर उससे स्वभाव और संस्कारों का निर्माण नहीं हो सकता। यही कारण है कि प्राचीन काल में भी भावनाओं को जागृत करने के लिये भाँति-भाँति के कर्मकाण्डों की व्यवस्था की गई थी, चाहे वे तर्कशील व्यक्तियों को अनावश्यक ही क्यों न जान पड़ते हों। ईश्वर के प्रति भक्ति -भावना और श्रद्धा विश्वास जागृत करने के लिये प्रतिमा पूजन, आरती, नैवेद्य, धूप, चन्दन आदि के उपचार करने आवश्यक होते हैं। इनकी सहायता से ही क्रमशः जन-मानस में भावना का उदय हो जाता है।
यही कारण है कि किसी भी विषय में यदि हम छोटे से छोटा नियम भी स्वीकार कर लें और उस पर सच्चाई के साथ चलें तो कुछ ही समय में हमारे भीतर एक नवीन परिवर्तन हो जाता है। जातकों में एक कथा है कि एक बार एक बहेलिया भगवान बुद्ध के पास आकर मुक्ति का उपाय पूछने लगा। बुद्ध ने उसे अहिंसा धर्म का उपदेश दिया कि जो मन वचन कर्म से किसी प्राणी को कष्ट पहुँचायेगा वह भव-बन्धन से अवश्य छुटकारा पा जायगा। बहेलिया ने कहा-”भगवन्। यह बात तो मेरे लिये असम्भव है, क्योंकि मेरी जीविका का साधन तो पशु-पक्षियों का मारना, पकड़ना ही है। यदि मैं अहिंसा-धर्म को स्वीकार करूंगा तो फिर मेरा निर्वाह कैसे हो सकेगा? मुझे तो इसके सिवाय और काम आता भी नहीं।” बुद्ध जी ने कुछ देर सोच कर कहा-पूर्ण अहिंसा पालन संभव न हो तो जितना बन पड़े उतने अंश में ही पालन करो। कबूतर, चिड़िया, खरगोश, लोमड़ी जैसे निर्बल और निरीह प्राणियों का मारना त्याग का अहिंसा व्रत का पालन करो। बहेलिया ने उत्तर दिया-भगवन्। मैं ऐसे साधारण, छोटे जीवों को पकड़ कर ही तो अपना गुजारा करता हूँ। सिंह, व्याघ्र आदि का शिकार करने की न मेरी सामर्थ्य है और न उसके साधन ही मुझे प्राप्त हैं। बुद्ध ने कहा- अच्छा, तब तुम अपनी इच्छा से किसी एक जीव को कभी न मारने का व्रत ग्रहण कर लो और फिर जैसे-जैसे सुविधा हो अन्य जीवों के सम्बन्ध में भी प्रतिज्ञा करते रहना। बहेलिया ने बहुत सोच विचार कर केवल एक जीव को अपने लिये अनावश्यक समझा और उसने भगवान बुद्ध के सामने कौआ को न मारने का व्रत लिया। इसके फलस्वरूप अहिंसाव्रत की महत्ता उसके हृदय में जम गई और समयानुसार वह स्वयमेव अधिकाधिक विकसित होती चली गई। अन्त में वह बहेलिया पूर्ण रूप से अहिंसक बन गया और बुद्ध का शिष्य बनकर एक बहुत बड़े महात्मा के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
यही कार्य पद्धति युग-निर्माण योजना में व्यवहार में लाई गई है। सर्व साधारण के सामने छोटे-छोटे कार्यक्रम रखकर उनकी मनोवृत्ति को आध्यात्मिक तत्वों की ओर प्रेरित करने का प्रयत्न किया गया है। उपासना की विधि एक नहीं हजारों है। साधारण जप, नाम स्मरण से लेकर कठिन योगाभ्यास तक का विधान विभिन्न मनोवृत्तियों के व्यक्तियों के लिये किया गया है। कोई व्यक्ति जो आरंभ में केवल एक माला जपने से उपासना आरम्भ करता है। धीरे-धीरे बहुत बड़ी साधनाओं तक पहुँच जाता है और अन्त में परमहंसों के समान संसार से पूर्णतः निर्लिप्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। उस समय उसे सभी ईश्वरीय शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं और लोग उसे साक्षात भगवान स्वरूप ही मानने लगते हैं। पर यह भगवान केवल बाहरी नहीं अन्तःकरण की होनी चाहिये। परमात्मा मनुष्य के मन और अन्तर की भावनाओं को देखता है। उसकी दृष्टि में महत्व इस बात का है कि मनुष्य धार्मिक सिद्धान्तों पर कहाँ तक सचाई के साथ आचरण करता है। गुण-कर्म-स्वभाव की शुद्धि हुये बिना, भावना और चरित्र का परिमार्जन हुये बिना, साधना निरर्थक ही बनी रहती है। भ्रष्ट चरित्र वाला व्यक्ति कितना भी जप, ध्यान क्यों न करे वह सब निष्फल है। अन्तःकरण का स्तर ऊँचा हो, हृदय में ईश्वर-भक्ति के अंकुर मौजूद हों तो साधारण उपासना द्वारा भी केवट, शबरी, विदुर गोपी द्रौपदी, नरसी, नाई की तरह परमात्मशक्ति की कृपा उपलब्ध की जा सकती है।
जीवन की शुद्धि का सबसे बड़ा साधन परमार्थ ही माना गया है। दूसरों के दुःख में अपना दुख और दूसरों के सुख में अपना सुख समझने से उदार बुद्धि जागृत होती है। ऐसे व्यक्ति की आत्मा स्वभावतः पुण्य-कर्मों की ओर अग्रसर होती है और उसके फलस्वरूप लोक-परलोक का सुख भी मिलता है और ईश्वर का अनुग्रह भी प्राप्त होता है। जीवन-शोधन और परमार्थ की भावनायें किस प्रकार मन में उठें, किस तरह उनका विकास हो यह समस्या भी आध्यात्मिकता की वृद्धि के लिये विचारणीय है। प्राचीन काम लें उस समय की स्थिति और आवश्यकता को देखते हुये परमार्थ के कार्यक्रम बनाये गये थे। आज की स्थिति में लोक कल्याण और व्यक्ति का आत्मविकास जिस प्रकार हो सके उस पर विचार करके युग-निर्माण-योजना बनाई है। इसके कार्यक्रम छोटे-छोटे दीखते हुये भी इनके पीछे जो महान तथ्य छिपा पड़ा है वह निश्चय ही असाधारण है। इस योजना में व्यक्ति के कल्याण के साथ समाज का व्यापक हित भी दिखाई पड़ता है।