आत्मोन्नति के व्यक्तिगत कार्यक्रम

August 1963

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(श्री प्रेमचन्द सारस्वत)

युग-निर्माण योजना में जिन कार्यक्रमों को लेकर जागरण की शंखध्वनि की गई है वे ऐसे है कि उनके आधार पर ही मनुष्य का आत्मिक और भौतिक कल्याण हो सकता है। आहार-शुद्धि पर ध्यान दिया जाना आत्मोन्नति का एक आवश्यक अंग है। हम जैसा अन्न खाते है वैसा ही मन बनता है। यदि हमारा आहार राजसी और तामसी हुआ तो फिर उससे उत्पन्न होने वाला मानसिक स्तर मलीन ही रहेगा। उस मलीनता पर कथा, प्रवचनों का भी कोई रंग न चढ़ेगा। हम देखते है कि अनेक व्यक्ति जो नित्य धर्म-शास्त्रों को पढ़ते या सुनते रहते हैं आचरणों की दृष्टि से निम्न श्रेणी के होते हैं। इसका कारण उनके आहार का दोषयुक्त होना ही होता है। यदि हमारा आहार शुद्ध रहे आस्वाद व्रत का पालन करते हुये सतोगुणी पदार्थों का भोजन किया जाय, नियत समय पर भगवान का भोग लगाकर आहार ग्रहण करने का नियम पालन होता रहे तो उसके फल से मन शान्त रहेगा, सभी इन्द्रियाँ वश में रहेंगी और चित्त भी डाँवाडोल न होगा। सतोगुणी मन से विचार भी सतोगुणी उत्पन्न होंगे और उससे सद्भावनायें भी उठेंगी। ऐसी स्थिति जहाँ होगी वहाँ थोड़ा-सा प्रवचन या स्वाध्याय भी बहुत प्रेरणा प्रदान कर सकेगा और मनुष्य को सन्मार्ग पर काफी दूर तक बढ़ा सकेगा।

ब्रह्मचर्य का महत्व तो सबको विदित ही हैं। जीवन-शक्ति और ओज का मूल यही है। इसी से मनुष्य की प्रतिभा और स्मरण शक्ति का विकास होता है और उसकी गिनती विद्वानों में की जा सकती है। हमारे दीर्घजीवन और आरोग्य का आधार भी अधिकाँश में ब्रह्मचर्य पर ही रहता है। असंयमी मनुष्य शारीरिक और मानसिक रोगों के शिकार हुआ करते हैं, वे प्रायः अल्पायु होते हैं और उनकी सन्तान भी दुर्बल और दुर्गुणी देखी जाती है। ब्रह्मचर्य के अभाव से ही जन-संख्या वृद्धि की समस्या भारत ही नहीं समस्त संसार को परेशान किये हुये है। इसी के फल स्वरूप करोड़ों स्त्री-पुरुष यौन रोगों से पीड़ित रहते हैं। रक्त चाप, हृदय की धड़कन, मधुमेह क्षय जैसे रोग प्रायः असंयमी लोगों को ही होते हैं। अगर मन में काम-वासना सम्बन्धी विचार आते रहें तो उससे भी शरीर और मनका बहुत पतन होता है। इस प्रकार के विचारों की वृद्धि होती है जिससे अनेक व्यक्तियों और परिवारों की सुख-शान्ति नष्ट हो जाती है और वे तरह-तरह की आपत्तियों और दुर्भाग्य में फंस जाते हैं। इन बुराइयों के कारण समाज भी खोखला बन जाता हैं और उसकी श्रेष्ठता हुये युग-निर्माण योजना में सर्व साधारण को यथासंभव अधिक समय तक ब्रह्मचर्य पालन के कार्यक्रम पर अमल करने को कहा गया है। यह नियम विवाहित और अविवाहित दोनों पर लागू होता है। गृहस्थ को भी इस सम्बन्ध में पूरी सावधानी रखनी चाहिये। अमर्यादित काम सेवन एक प्रकार की आत्म-हत्या है।

सादगी का रहन-सहन और सामान्य वेश-भूषा सज्जनता और बड़प्पन का चिन्ह है। जिस तरह फौजी पोशाक पहिन लेने से उसी तरह की भावनायें और चेष्टायें बनने लग जाती हैं, साधु-सन्त जैसी पोशाक धारण करने से कुछ न कुछ उसी तरह के विचार और काम करने लग जाता है, उसी प्रकार सज्जनों की तरह सादा और आडम्बर शून्य वेषभूषा में रहने से मनुष्य के मन में सौम्य भावनायें और विचारों का उदय होता रहता है। इससे विनय, नम्रता, निरहंकारिता की वृद्धि होती है।

श्रम की महत्ता को स्वीकार करना, सब काम समय पर करना, आलस्य और प्रमाद से बचे रहना भी इस योजना के मुख्य अंग में आशा, उत्साह, प्रसन्नता आदि सद्गुणों का आविर्भाव होता है और उसका व्यक्तित्व दिन पर दिन श्रेष्ठ बनता जाता है। जो मनुष्य सदैव किसी उपयोगी कार्य में संलग्न रहता है, सबके साथ नम्रता, मधुरता, उदारता का व्यवहार करता है, वह सबको प्रिय लगने लगता है, दूसरे लोगों का सहयोग उसे सहज ही प्राप्त होता रहता है और इस प्रकार उसे हर एक कार्य में सफलता प्राप्त होती रहती है।

यद्यपि आजकल बहुसंख्यक व्यक्ति किसी प्रकार बहुत-सा पैसा इकट्ठा करके अमीर वन जाने को ही सफलता का सबसे बड़ा चिन्ह मानते है, पर यह कोरा भ्रम है। सच्ची सम्पत्ति तो ईमानदारी, मितव्ययिता और कर्तव्यपरायणता ही है। जिसमें ये गुण होगे उसे कभी किसी प्रकार का अभाव अनुभव नहीं हो सकता और यही सच्ची अमीरी का लक्षण है। जो दूसरों के दुःख में स्वयं भी दुःख अनुभव करता है और दूसरों के सुख को देखकर आनन्दित होता है वही परमार्थी कहा जाता है, अन्य लोग उसका हृदय से सम्मान करते हैं, उससे प्रेम रखते हैं। इस भावना की वृद्धि के लिये योजना में चमड़े का उपयोग, रेशम का व्यवहार और जीवों की हिंसा करके या उनको कष्ट पहुँचाकर प्राप्त की जाने वाली वस्तुएं या औषधियों को त्यागने आदेश दिया गया है। माँसाहार तो स्पष्ट ही सहृदयता की भावना को नष्ट करने वाला है। जीव-दया मनुष्यता का एक बहुत बड़ा लक्षण है। इस दृष्टि से पक्षियों को पिंजड़े में बन्द रख कर उनको कष्ट देना, पशुओं से उनकी सामर्थ्य से अधिक काम लेना, घोड़ों और बैलों को घायल होने पर भी गाड़ी ताँगों में जोतना उनको निर्दयतापूर्वक मारना-पीटना आदि कार्य अमानुषिक ही माने जायेंगे। इन कार्यों को छोड़ने से मानवता के भाव की वृद्धि होती है और आत्मोत्थान में बड़ी सहायता मिलती है।

स्वाध्याय को पूजा का ही एक अंग माना गया है। उत्तम और सदुपदेशपूर्ण ग्रंथों के पढ़ते रहने से विचारो की शुद्धि और उन्नति होती है। इसके लिये युग-निर्माण-योजना में कथा, पुराण और धर्म शास्त्रों के साथ-साथ वर्तमान समय में रची गई सद्विचारयुक्त और जीवन-निर्माण में सहायक बन सकने वाली पुस्तकों को स्वाध्याय योग्य बतलाया गया है। पूजा और उपासना की तरह जीवन की स्थूल समस्याओं और मानसिक उलझनों को समझना तथा उनको हल करने का ठीक मार्ग जानना आवश्यक है। जो पुस्तकें इस उद्देश्य की पूर्ति करने वाली हों उनमें से किसी न किसी को नित्य नियमपूर्वक पढ़ते रहना और उसके उपदेशों को मनन और चिन्तनपूर्वक व्यवहार में लाने का प्रयत्न करना ही सच्चा स्वाध्याय कहा जा सकता है। इससे हम उन भूलों से भी बच सकते हैं जो संसार की उलझनों के कारण समय-समय पर पैदा होती है और जिनमें फंसकर मनुष्य मार्गच्युत हो जाता है।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये योजना में एक बहुत बढ़िया उपाय बताया है कि हम प्रति दिन सोते समय दिन भर के कार्यों का लेखा-जोखा लें। जो भूलें हुई हों उनके लिये आगे के लिये कान पकड़ कर सावधान रहने की प्रतिज्ञा करें और अच्छी बातों को निरन्तर करते रहने का संकल्प करें। युग-निर्माण योजना के सदस्यों को सोने से पर्व इस प्रकार का आत्म निरीक्षण अवश्य करना चाहिये और आत्मशोधन तथा आत्मविकास की दृष्टि से आगामी दिन का कार्यक्रम बनाना चाहिये। प्रातः काल उठकर रात्रि के समय किये हुये निश्चय पर पुनः विचार करना और आज दिन भर विशेष सावधानी के साथ व्यवहार करने की तैयारी करनी आवश्यक है। प्रातःकाल युग-निर्माण के संकल्प का पढ़ना भी प्रत्येक सदस्य का अनिवार्य कर्तव्य है जिससे योजना का लक्ष्य सदैव ध्यान में बना रहे और उससे अपने चरित्र और आचरण की उन्नति होती रहे।

अपने परिवार को उत्तम शिक्षा देते रहना, आन्तरिक दाम्पत्य प्रेम, पतिव्रत की तरह पत्नीव्रत का भी पालन, ब्रह्मचर्य का अधिकाधिक पालन आदि के कार्यक्रमों का एक बहुत बड़ा रहस्य यह है कि नई पीढ़ी में होनहार तथा दिव्यगुण-सम्पन्न बालक पैदा किये जा सके। बालक का शरीर और मन माता के शरीर और मन का ही एक अंश होता है। जहाँ माताएँ सुयोग्य और सन्तुष्ट मनोवृत्ति रखेंगी और ज्ञान तथा सद्गुणों की दृष्टि से श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाली होंगी वहीं सद्गुणी बालक उत्पन्न हो सकेंगे। युग-निर्माण के लिये जन्मजात सुसंस्कार लेकर उत्पन्न होने वाले बालकों की आवश्यकता होगी। यह कार्य स्कूलों की पढ़ाई से पूरा नहीं हो सकता, वरन् सुसंस्कारी माताओं द्वारा ही संभव हो सकता है। पत्नी का मानसिक विकास बहुत कुछ उसके पति की मनोभूमि का निर्भर रहता है। इसी तथ्य को समझकर योजना में इस बात पर बहुत जोर दिया गया है कि प्रत्येक पुरुष पत्नीव्रत धारण करे, अपनी धर्मपत्नी के प्रति पूर्ण निष्ठावान, सहृदय और उदार रहे और साथ ही उसके सर्वांगीण विकास की उचित व्यवस्था का भी ध्यान रखे। पुरुष यदि योजना के अनुरूप अपने में इस प्रकार का परिवर्तन कर सकेंगे तो इसका फल उन्हें सच्चे दाम्पत्य-प्रेम, सुव्यवस्थित गृहस्थी और होनहार बालकों के रूप में प्राप्त होगा।

इसी प्रकार के अनेक कार्यक्रम व्यक्तिगत सुधार और जीवन-शोधन के लिये युग-निर्माण योजना में रखे गये हैं। इन्हें पालन करने वाले व्यक्ति का जीवन अवश्य ही सुख शान्तिमय बन सकता है। समाज का कल्याण भी इसके द्वारा होगा। इस दृष्टि से यह योजना निस्सन्देह एक दैवी वरदान की तरह ही समझी जायगी।

लघु कथा-


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