“जिओ और जीने दो” की व्यावहारिक शिक्षा

August 1963

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(श्री गुरुचरण दत्त शास्त्री, काव्यतीर्थ)

मनुष्य की जिन्दगी इस पृथ्वी की सब से बड़ी विभूति है। परमात्मा यदि आत्मा को सब से बड़ा उपहार दे सकता है तो वह यही है कि उसे मनुष्य शरीर में निवास करने का सौभाग्य प्रदान कर। बोलने, हँसने, पढ़ने, लिखने, सोचने, करने के जितने साधन मनुष्य शरीर में प्राप्त है उतने चौरासी लाख योनियों में से किसी को प्राप्त नहीं हैं। हमें जो मनुष्य का जीवन प्राप्त हुआ हैं, इसे साधारण नहीं, असाधारण सौभाग्य मानना चाहिये और इस सुअवसर का पूरा लाभ उठाने का प्रयत्न करना चाहिये।

पर हममें से अधिकाँश मनुष्य न तो इस जीवन का महत्व समझते हैं और जीने की ठीक विधि जानते हैं। उल्टे-सीधे ढंग से किया हुआ कोई कार्य वैसा ही परिणाम भी उत्पन्न करता है। जिन्दगी जीना न आता हो तो यह सौभाग्य भी दुर्भाग्य के समान सिद्ध होता है। हम प्रायः देखते हैं कि बहुसंख्यक व्यक्ति मानव जीवन पाकर भी दयनीय स्थिति में पड़े रहते और दुःख, दरिद्रता की पीड़ा, कष्ट सहन करते रहते हैं। इसका कारण यही है कि उन्हें जीना नहीं आता। यदि वे जीवन को ठीक ढंग से व्यतीत करने की कला सीख लें तो फिर रोग-शोक और दुःख-दारिद्र का कोई कारण नहीं रह सकता।

किसी के पास मोटर गाड़ी तो बहुत बढ़िया हो पर ठीक चलाना न आवे तो वह उसके द्वारा संकट ही पैदा करेगा। तैरना न जानने वाले के लिये तालाब में घुस कर मनोरंजन करना विपत्ति का कारण ही बनेगा। बिजली सम्बन्धी जानकारी जिसे न हो, और वह उसकी उधेड़बुन करने लगे तो खतरे का सामना ही करना पड़ेगा। अनाड़ी चिकित्सक अस्पताल में रखी कीमती दवाओं से भी रोगी का अहित ही करेगा। सरकस में काम करने वाले खिलाड़ी यदि अपने-अपने खेलों में अभ्यस्त न हों तो अपनी जान के हाथ धो बैठेंगे और सरकस वाले की भी बदनामी करेंगे। इस संसार को हम भगवान का सरकस कह सकते हैं। इससे कुछ योग्य खिलाड़ी तो स्वयं यश प्राप्त करते हैं और मालिक का गौरव भी बढ़ाते हैं और कुछ ऐसे फूहड़ होते हैं कि स्वयं चोट खाते हैं और परमात्मा की निन्दा के कारण भी बनते हैं।

वस्तुतः यह संसार बहुत सरल और सुरम्य है। हमें वह क्षमता और योग्यता भी प्राप्त है जिससे आनन्दमय जीवन व्यतीत करने लायक सामग्री उत्पन्न कर ले अथवा जो कुछ उपलब्ध है उसे ही अपने अनुकूल ढाल लें। इस संसार की तथा मनुष्य जीवन की रचना ऐसे सुन्दर ढंग से हुई है कि यहाँ आनन्द और उल्लास के अतिरिक्त और कुछ देखने को मिल ही नहीं सकता। इतना होते हुये भी जब यह जान पड़ता है कि अधिकाँश मनुष्य अपने जीवन से असंतुष्ट और खिन्न हैं तो यही निकलता है कि वे जीवन को सही रास्ते से जीने की विद्या नहीं जानते।

मनीषियों का कथन है कि ‘जिओ और जीने दो।’ सचमुच बुद्धिमान वही माना जा सकता है जो जिन्दगी ठीक तरह से जी सके और सज्जन वह है जो दूसरों को भी जी सकने की सुविधा मिलने में सहायक बन सके। पर स्थिति यह है कि हम न तो जीते हैं और न दूसरों को जीने देते हैं। जिन विचारों, जिन विश्वासों, जिन आकाँक्षाओं और जिन आदर्शों को ग्रहण करने से हमें जिन्दगी के जीने का सही रास्ता मिल सकता हैं उनको न तो हम अपनाते हैं और न उनकी आवश्यकता समझते हैं। इसके विपरीत उन निरंकुश, अदूरदर्शिता पूर्ण एवं निरर्थक विचारों को अपना लेते हैं जो पग-पग पर चिन्ता, असफलता और तनाव पैदा करते हैं।

थोड़ी और साधारण श्रेणी की साधन-सामग्री द्वारा भी बड़ी प्रसन्नता के साथ जिया जा सकता है। अपने साथियों का स्तर यदि बहुत ऊँचा न हो तो भी उन्हें निभाया जा सकता है और हँस-खेल कर काम चल सकता है। जैसी भी स्थिति हमें प्राप्त है उसी को सुव्यवस्थित बना लिया जाय तो हँसी-खुशी का जीवन बिताने की उसी में गुँजाइश हो सकती है। यह सोचने की बजाय कि अमुक लाभ प्राप्त होने से हम प्रसन्न हो सकते हैं हम को यह विचार करना चाहिये कि अपना कर्तव्य ठीक तरह से पालन करना ही पर्याप्त है और उसी से हमको सदैव प्रसन्नता प्राप्त होती रहेगी। संयमी और संतोषी के लिये रोग-शोक और चिन्ताओं की कहीं गुँजाइश ही नहीं रहती। जो इस संसार को एक नाट्य शाला की तरह मानकर अपना अभिनय ठीक तरह करने में ही सफलता मान लेता है उसे प्रिय-अप्रिय घटनाओं का बहुत चिन्ता नहीं रहती। एक ही व्यक्ति नाटक में कभी राजा कभी रंक, कभी स्त्री कभी पुरुष, कभी पंडित कभी मूर्ख बनता रहता है और जब खेल समाप्त हो जाता है तो अपने को नाटक कम्पनी का एक साधारण कर्मचारी मात्र समझकर संतोष की साँस लेता हुआ गहरी नींद सो जाता है। यही जिन्दगी जीने का ठीक तत्व-दर्शन है। पग-पग पर आने वाली भली बुरी स्थितियों को जो धूप-छाँह की तरह समझता है और उनको निरन्तर परिवर्तनशील मानता है उसे न कभी निराशा होगी और न मदोन्मत्तता। मनोरंजन के लिये खेलने वाले खिलाड़ी जिस तरह हार-जीत को विशेष महत्व नहीं देते उसी तरह जिन्दगी का स्वरूप ठीक तरह समझ सकने वाले व्यक्ति भी अपना मन हर स्थिति में प्रसन्न बनाये रहते हैं।

अपने गुण-कर्म-स्वभाव में आवश्यक संतुलन रखने वाले व्यक्ति की जीवन-नौका आसानी से तैरती चली जाती है। जिसने अपने में निरालस्यपन, नियमितता, एकाग्रता लगन धैर्य, साहस जैसे सद्गुण पैदा कर लिये जिसने अपना मार्ग सदाचार और मानवीय मर्यादाओं के अनुरूप चुन लिया, जिसने अपने स्वभाव में प्रसन्नता, प्रफुल्लता, मधुरता शिष्टाचार, सेवा, उदारता, आदि सत्प्रवृत्तियों को सम्मिलित कर लिया उसको सदा और सर्वत्र सफलता ही प्राप्त हुआ करेगी। ऐसा व्यक्ति जहाँ भी रहेगा उसे लोग सिर-आँखों पर रखेंगे। घटिया और घृणित व्यक्तित्व के मनुष्य ही जहाँ-तहाँ दुत्कारे जाते हैं। उन्हें ही उपहास और तिरस्कार का भाजन बनना पड़ता है। शोषण भी कायरों का होता है। जिसमें आवश्यक शौर्य और साहस मौजूद है उसको न तो सताया जा सकता हैं और न गिराया। चट्टान जैसे सुदृढ़ व्यक्तित्व परिस्थितियों के आगे झुकते नहीं वरन् उन्हें झुका लेते हैं। उन्हें कोई बिगाड़ नहीं सकता वरन् वे बिगड़ों को भी सुधारने में कृतकार्य होते हैं।

जिसने जिन्दगी जीने की विद्या सीख ली उसने सब कुछ सीख लिया। जिसको यह नहीं आता, उसको चाहे और बहुत सी बातें आती हों तो भी यही कहना पड़ेगा कि अभी वह कुछ भी नहीं जानता। युग निर्माण योजना में मुझे सबसे बड़ी विशेषता यही जान पड़ी कि उसमें जिन्दगी को ठीक ढंग से जीने की एक ऐसी प्रक्रिया है, जिससे मानव जाति के विकास में अड़ी हुई सभी बाधाओं का समाधान हो जाता हैं। जितनी प्रचार की शिक्षायें और कला कौशल की तालीम दी जा रही है उन सबकी अपेक्षा आवश्यक और महत्वपूर्ण शिक्षा यही है कि मनुष्य जिन्दगी को इस तरह जिये कि जिससे पशु स्थिति से निकल कर मनुष्य-योनि में जन्म लेने का सच्चा आनन्द और लाभ प्राप्त कर सके। ऐसा प्रशिक्षण मानव जाति के लिये कितना उपकारी हो सकता है, जब मैं उसकी विस्तृत संभावनाओं पर विचार करता हूँ तो मेरा मन आशा और उल्लास से भर जाता है।

हम न तो स्वयं ही जीना जानते हैं और न दूसरों को ही जीने देते हैं। दाम्पत्य जीवन का स्वर्गीय आनन्द ले सकने लायक न तो हमारा स्वभाव ही सुविकसित होता है और न स्त्रियों को हम इस बात का अवसर देते हैं कि वे शिक्षा और लोक व्यवहार का ज्ञान प्राप्त करके अपना समुचित विकास कर सकें। घर के भीतर साधनहीन, तिरस्कृत और उपेक्षित स्थिति में पड़ी रहने के कारण वे बेचारी अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकने में असमर्थ रहती हैं और पति के कामों में सहयोग देकर उनकी त्रुटियों का संतुलन भी नहीं कर सकतीं। स्त्री और पुरुष दोनों का व्यक्तित्व यदि गिरा हुआ रहे तो उससे उनकी गृहस्थी नरक के सदृश्य बन जाती है और उनकी सन्तान भी दुर्गुणों की खान बन निकृष्ट जीवन व्यतीत करती है।

पिछड़ी हुई जाति वालों के साथ भी हमारा व्यवहार बर्बरतापूर्ण होता है। किसी वंश विशेष में जन्म लेने के कारण मनुष्य को नीच माना जाय और उसके नागरिक अधिकारों का अपहरण किया जाय अथवा उसे हेय माना जाय तो इस तिरस्कृत स्थिति में बने रहने से उसका विकास रुक ही जायगा। अस्वर्णों को आज कैसी गिरी हुई स्थिति में जीवन बिताना पड़ रहा हैं यह हम अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देख रहे हैं। ‘जियो और जीने दो’ सिद्धान्त की आज सर्वत्र अवहेलना हो रही है। जीने की कला सीखकर न तो हम स्वयं विकास करने का प्रयत्न करते हैं और न दूसरों को वह अवसर मिलने देना चाहतें हैं जिससे वे विकसित बन कर मानवीय अधिकारों को प्राप्त कर सकें।

ईर्ष्या की दुष्प्रवृत्ति आज जन मानस में एक भयानक महामारी बन कर घुसी हुई है। दूसरों को उन्नति करते देख जल-भुनकर खाक हो जाना और उसे नीचा दिखाने के लिये अपनी हानि भी सह लेना आज की एक साधारण रीति-नीति बनी हुई है। इससे कितने ही विकासोन्मुख व्यक्तियों को अकारण ही पद दलित स्थिति में ही पड़े रहने को विवश होना पड़ता हैं। यदि लोग ईर्ष्या को त्याग कर दूसरों की उन्नति में प्रसन्न होने और सहायता करने की प्रवृत्ति को अपनावें तो उससे सभी को लाभ पहुँच सकता है और मानव जाति की शक्ति का एक भारी अपव्यय रुक सकता है।

युग-निर्माण योजना का साराँश मैंने तो यही समझा है कि वह जिन्दगी जीने की विद्या है। ‘जियो और जीने दो’ की शिक्षा का प्रसार करने के लिये ही यह कार्यक्रम बनाया गया है। इस प्रशिक्षण द्वारा मानव जाति की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति होगी। पृथ्वी पर स्वर्ग को अवतरित करने के इस महान कार्यक्रम की जितनी प्रशंसा की जाय कम है।


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