श्रद्धा और विवेक की परम्परा

August 1963

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वाराणसी नगरी के राजा एक दिन प्रजा के दुख-सुख को जानने के लिए राज पुरोहित के साथ राज्य में भ्रमण करने निकले। उन्होंने वेश बदल लिया ताकि कोई उन्हें पहिचान न सके।

भ्रमण करते-करते वे किसी उपनगर में पहुँचे। पुरोहित नित्य कर्म के लिए दूर गये थे। राजा पेड़ के नीचे सुस्ता रहे थे।

उधर से एक सद्गृहस्थ निकला तो सुन्दर आभा वाले इस तेजस्वी व्यक्ति को अतिथि समझ कर घर से भोजन लेने चला गया। लौटकर आया तो अनेक व्यंजनों से सुसज्जित थाल उसके हाथ में था। उसे अतिथि के आगे रख दिया।

तब तक पुरोहित भी वापिस आ चुके थे। राजा ने स्वयं भूखे होते हुए भी वह थाल पुरोहित को दे दिया। पुरोहित ने उसे खाया नहीं। वे कुछ देर सोते रहे और थोड़ी दूर तपश्चर्या में निरत एक तपस्वी को वह भोजन अर्पित कर दिया। तपस्वी ने चारों ओर दृष्टिपात किया तो उसे एक भिक्षु दिखाई दिया। तपस्वी ने थाल का भोजन भिक्षु के भिक्षा पात्र में डाल दिया। भिक्षु ने उसे सन्तोषपूर्वक खा लिया।

जो सद्गृहस्थ थाल लेकर आया था, उसने यह सब देखा और आश्चर्य चकित हो अतिथि से पूछा-”बन्धू। आपके लिये आगत भोजन को स्वयं न करके दूसरे को दे देने का क्या कारण है?”

अतिथि ने उत्तर दिया-”मैं साधारण गृहस्थ हूँ। मेरी उपयोगिता मेरे निज के जीवन तक ही सीमित है। किन्तु यह ब्राह्मण जिन्हें मैंने उपलब्ध भोजन दिया संसार के लिए अधिक उपयोगी है। इनका शरीर असंख्य मानवों को ज्ञान-दान करके उन्हें सन्मार्ग पर लगाता है, इनकी उपयोगिता अधिक है। इसलिए मैंने अपनी तुलना में उन्हें अधिक उपयोगी पाया और वह भोजन उन्हें दे दिया।

गृहस्थी ने ब्राह्मण से पूछा-भगवन्, भला आपने अपना भोजन दूसरे को क्यों दे दिया?

ब्राह्मण ने कहा-तपस्या का महत्व ब्रह्मकर्म से भी अधिक है। तप के द्वारा जो ब्रह्मतेज उत्पन्न होता है उससे ब्रह्मकर्म से भी अधिक लोक हित की संभावना रहती है। तपस्या का साहस कोई विरले ही करते हैं सो उस पुण्य परम्परा का पोषण आवश्यक है। मैंने स्वार्थ का नहीं उपयोगिता का ध्यान रखा और आगत भोजन तपस्वी को दे दिया।

गृहस्थ ने तपस्वी से पूछा-आपने वह भोजन भिक्षु को किस कारण दे डाला, भगवन्।”

तपस्वी ने शान्त स्वर से कहा- भद्र, मैं इन्द्रियों को जीतने की साधना कर रहा हूँ। इसके लिए हठपूर्वक उनका निरोध करना आवश्यक है। स्वादिष्ट व्यंजनों का आहार मेरी स्वादेन्द्रिय को विचलित करने वाला, बाधक सिद्ध होता सो मैंने यही उचित समझा कि अपने से अधिक सत्पात्र उस अपरिग्रही भिक्षु को दे दूँ।

गृहस्थ ने भिक्षु- आपने किस कारण वह भोजन स्वयं ही कर लिया? मैं विवेक को जागरण करने के लिए द्वार-द्वार पर परिभ्रमण करता हूँ ताकि व्यक्ति स्वार्थी न बने, उपयोगिता का ध्यान रखकर ही उपलब्ध साधनों का उपभोग किया जाय। यह प्रशिक्षण मेरे जीवन का व्रत है। इन तीनों में इस पुण्य परम्परा को फलित होते मैंने देखा और प्रेम-पूर्वक भोजन कर लिया।

अतिथि ने सद्गृहस्थ को और भी अधिक स्पष्टता से समझाते हुए कहा- विवेक ही इस संसार का मेरुदण्ड है। यदि मनुष्य स्वार्थ ही सोचे और उपयोगिता एवं लोकहित की बात को भुला दे तो फिर यहाँ नरक और अशान्ति के अतिरिक्त और कुछ शेष न रहेगा। यह धरती पुण्य के बल पर ही चलती है। सो हे सद्गृहस्थ। हम सबको श्रद्धा और विवेक की परमार्थिक पुण्य परम्पराओं को भूखे रह कर भी सींचते रहना चाहिए।


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