गायत्री और यज्ञ की उच्चस्तरीय साधना

August 1963

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री रविशंकर करुणाशंकर औदीच्य)

आचार्य जी का विकसित जीवन गायत्री उपासना के साथ आरंभ होता है। अधेड़ आयु होने तक उनने अपना अधिकाँश समय इसी कार्य में लगाया है। उनके जीवन का विश्लेषण करें तो गायत्री उपासना गायत्री तत्व ज्ञान का अध्ययन, गायत्री उपासकों को खोजना और उनके अनुभवों का लाभ प्राप्त करना ही प्रमुख कार्य प्रतीत होते हैं। चालीस वर्ष के आयु के पीछे उनने आवश्यक आत्म-बल और आत्म-विश्वास प्राप्त करने के पश्चात गायत्री प्रचार आरम्भ किया और थोड़े ही वर्षों में उसे उच्च शिखर तक पहुँचा दिया। करोड़ों को उन्होंने यह तत्वज्ञान सिखाया और समझाया, लाखों ने उनके बताये मार्ग पर निष्ठापूर्वक कदम उठाये और अब तक वे उसी उपासनाक्रम को श्रद्धापूर्वक अपनाये हुए हैं। इस प्रकार विहंगम दृष्टि से देखा जाय तो आचार्य जी का जीवन गायत्रीमय ही दीखता है।

पिछले 15 वर्षों में अनेक बार मेरा उनसे मिलना हुआ। गायत्री उपासना में मेरी अत्यधिक श्रद्धा है, इसलिए तद्विषयक अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए मैं उन्हीं के पास दौड़ता हूँ। अन्यान्य बातों के साथ एक बात पर मैं सदा ही उनसे चर्चा करता हूँ कि- गायत्री उपासना का जो महात्म्य बताया जाता है, उसके द्वारा अनेक कामनाओं की पूर्ति, प्रस्तुत कठिनाइयों का समाधान, उज्ज्वल भविष्य की संभावना, पाप निवारण और परलोक की सद्गति का जो लाभ मिलना प्रतिपादित किया जाता है, वह कहाँ तक ठीक? इस संबंध में उनने अपने ग्रन्थों में बहुत कुछ लिखा है। मौखिक रूप से वे इतना कहते रहते थे- ‘यह असत्य नहीं, हम असत्य को प्रतिपादित नहीं करते। उपासना के द्वारा व्यक्ति का अन्तःकरण निर्मल बनता है और उसमें सुसंस्कारों के बीज आसानी से बोये तथा बढ़ाये जा सकते हैं। सुसंस्कारों, सत्कर्मों और सद्भावनाओं का फल मनुष्य के लिए सब प्रकार श्रेयस्कर ही होता है। इसलिए यदि गायत्री उपासक का भविष्य उज्ज्वल बने तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है?

फिर भी मेरा समाधान न हो पा रहा था, क्योंकि मैं देखता हूँ कि कई व्यक्ति उपासना तो बहुत करते हैं पर उनमें मानवीय गुण निकृष्ट कोटि के ही बने रहते हैं। ऐसी दशा में यह कैसे माना जाय कि उनका भविष्य उज्ज्वल बनेगा। उपासना तो वही सार्थक मानी जा सकती है जो मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव को उत्कृष्ट बना सके। उत्कृष्टता के फलस्वरूप ही वह प्रतिभा और क्षमता प्राप्त होनी संभव है जिसके द्वारा उन्नति का सुयोग मिले, अनिष्ट हटे और जन-साधारण का स्नेह, विश्वास प्राप्त हो। उन्नति इन्हीं बातों पर निर्भर है। लोक और परलोक की सुख शान्ति का आधार भी यही तथ्य है। यदि यह स्थिति प्राप्त न हुई तो कोई व्यक्ति केवल गायत्री जप से ही कैसे उन्नतिशील बनेगा? और कैसे सुख शान्ति का अधिकारी बनेगा? यह बात मेरी समझ में ठीक तरह नहीं आ रही थी। इस सम्बन्ध में मेरा मन सदा संदिग्ध ही बना रहा। जप के द्वारा ही जब सारे काम हो सकते हैं तो फिर पुरुषार्थ का क्या महत्व रह जायगा? यह संदेह मन में बार-बार उठता ही रहा।

पिछली गायत्री जयन्ती के चांद्रायण शिविर में में जब मैं मथुरा गया और आचार्य जी ने जो नया रहस्योद्घाटन किया उससे मेरा संदेह तिरोहित हो गया। उनने कहा-पिछले दस वर्षों में उपासकों की मनोभूमि को जोता गया है, अब उसमें बीज बोया जा रहा है। कुसंस्कारी व्यक्ति न तो आत्मशोधन जैसे महान् कार्य का महत्व समझता है और न उसके लिए तैयार ही होता है। मंद दृष्टि के कारण उसे अपने दोष दीखते ही नहीं, कोई दूसरा बताता है तो उसे अहंकारवश अपना अपमान मानता है। आत्मशोधन के बिना व्यक्तित्व निखरता नहीं और इस निखार के बिना वह श्रेष्ठता उत्पन्न नहीं होती जिसके फलस्वरूप जीवन का हर क्षेत्र सफलता और सुख शान्ति से परिपूर्ण होता है। गायत्री उपासना के द्वारा मिलने वाले असंख्य लाभों का मूल कारण आत्म शोधन और आत्म परिष्कार ही है। जप, ध्यान, अनुष्ठान आदि द्वारा व्यक्ति की मनोभूमि को कोमल एवं उर्वर बनाया जाता है। उसके बाद उसमें सत्प्रवृत्तियों के बीज बोये जाते हैं। अब तक जप तक की प्रक्रिया बताकर उपासकों की भूमि का शोधन किया है अब उन्हें सत्प्रवृत्तियों की प्रेरणा देकर बीज बोया जा रहा है। यह बीज सत्कर्मों के रूप में उगेगा, हरा भरा होगा, फलेगा-फूलेगा, तब स्पष्ट हो जायगा कि गायत्री महामंत्र का जो महात्म्य बताया जाता है वह सही है या गलत। ऋषियों की वाणी कभी असत्य नहीं होती। गायत्री का जो महात्म्य लिखा मिलता है उसमें एक अक्षर भी असत्य नहीं है, यह अब कुछ ही दिन में स्पष्ट हो जायेगा। जो अनुष्ठान के माध्यम से केवल सनो-भूमि जोती जाती है, उतने मात्र को ही पूर्ण गायत्री उपासना नहीं मानना चाहिए। वह तो पूर्वार्ध मात्र है। अब उपासना का उत्तरार्ध सिखाया जायगा, जिसे जीवन निर्माण की साधना कहना चाहिए। उपासना और साधना के दो पहिये होने से ही आत्मिक उन्नति का रथ अग्रसर होता है और वही लक्ष्य तक पहुँचाते हैं। उन्हीं के द्वारा साधक सिद्धियों और विभूतियों का अधिकारी बनता है। हमने उपासना के साथ-साथ सेवा धर्म और आत्मशोधन को भी समान महत्व दिया है। त्रिपदा गायत्री का एक पाद सेवन करने से नहीं वरन् तीनों पादों की समुचित उपासना करने से ही पूर्णता प्राप्त होती हैं।

इस प्रवचन का सार यह निकला कि जप ध्यान अनुष्ठान आदि की उपासनात्मक पूजा प्रक्रिया साधना का पूर्वार्ध है। उसकी पूर्णता आत्म-शोधन करने वाली सद्बुद्धि का व्यवहारिक जीवन में व्यवहारिक प्रयोग करने से ही संभव होता है। ऐसी उपासना जिसमें भगवान् का स्मरण करने के साथ-साथ आन्तरिक दोष दुर्गुणों का शमन एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन का प्रयत्न भी चल रहा हो निश्चय ही सर्वांगपूर्ण साधना कहलायेगी। उसका फल मनुष्य को महापुरुष बनने के रूप में ही दृष्टि गोचर होगा। जमीन जोतने मात्र से किसी किसान को भरी पूरी फसल नहीं मिल सकती। उसे बीज बोने, सींचने, निराने, रखाने, काटने आदि की झंझट की क्रियाएं भी करनी पड़ती है तब कहीं उसके कोठे अन्न से भरते है। इसी प्रकार गायत्री उपासना में जप-अनुष्ठान के अतिरिक्त आत्म निर्माण का कार्य भी करना होता है। बिजली के दोनों तार मिलने पर जैसे बल्ब जलता है उसी प्रकार उपासना के साथ जीवन साधना का समन्वय होने पर मनुष्य अनेक विभूतियों का अधिकारी बन जाता है। इस सुनिश्चित तथ्य पर किसी को संदेह की गुँजाइश नहीं हो सकती। मेरा भी संदेह उस दिन के प्रवचन को भूलकर भली प्रकार दूर हो गया।

युग निर्माण योजना का सूक्ष्म परिचय कराते हुए उस दिन आचार्य जी ने कहा था- ‘यह गायत्री उपासना का ही विकसित रूप है। छोटे छात्रों को पहले अक्षर ज्ञान कराते हैं। जब उतना याद कर लेता है तो उसे अंक गणित सिखाना आरम्भ कर दिया जाता है। एक के बाद एक सिखाने की पद्धति हमें अच्छी लगी सो अब तक जप, ध्यान अनुष्ठान रूपी अक्षर ज्ञान सिखाते रहे। अब आत्म शोधन रूपी अंक गणित सिखाया जा रहा है। पूर्ण शिक्षा में अक्षरों की भाँति अंकों को भी सीखना पड़ता है। सच्चे उपासक को जप ध्यान के अतिरिक्त सद्बुद्धि की देवी गायत्री को अपने अन्तःकरण में बिठा कर उसे निर्मल, उज्ज्वल एवं प्रकाशवान भी बनाना पड़ता है। इसे युग-निर्माण योजना की अंक गणित कहा जा सकता है। जप ध्यान का अक्षर ज्ञान सीखने के साथ-साथ उसकी भी अनिवार्य आवश्यकता थी। सो अब प्रत्येक अध्यात्म प्रेमी को शेष आधी मंजिल पूरी करने के लिए भी कटिबद्ध होना चाहिए और इस कार्यक्रम में भी उसी श्रद्धा के साथ भाग लेना चाहिए जैसे कि गायत्री उपासना के जप, अनुष्ठान वाले प्रथम चरण में भाग लिया था।”

उसी प्रकार उसी दिन आचार्य जी ने यज्ञ की सूक्ष्म विवेचना करते हुए कहा “वायु शोधन, और अन्न वनस्पति प्राणियों का परिपोषण करने वाला अग्नि होत्र आत्म विकास की पहली मंजिल है जिसमें होता को अपना अन्न, घृत, शाकल्य चरु समिधा आदि धर्म से प्राप्त हो सकने वाली वस्तुएं होमनी पड़ती हैं। इसलिए अग्नि होत्रों को द्रव्य यज्ञ भी कहते हैं। इनमें द्रव्य संग्रह करना पड़ता है, और उसी का खर्च होता है। पंडितों को भी दक्षिणा में द्रव्य ही दिया जाता है। यज्ञ का यह दक्षिणा में द्रव्य ही दिया जाता है। यज्ञ का यह स्थूल रूप है। इसलिए इसका फल भी स्वास्थ्य संवर्धन जैसा स्थूल ही होता है। यह प्राथमिक शिक्षण है। परमार्थ के लिए, लोक सेवा के लिए हमें अपनी कमाई का एक अंश खर्च करना चाहिए। इसी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए समारोहपूर्वक या कार्यों का आयोजन किया जाता है। उसे भावनात्मक सूक्ष्म यज्ञ अभिनय का प्राथमिक अभ्यास कह सकते हैं। जिस प्रकार अभिनेता लोग एकान्त में अभिनय का अभ्यास करके उसमें प्रवीणता प्राप्त कर लेने के उपरान्त रंग मंच पर उतरते हैं उसी प्रकार अग्नि होत्र का द्रव्य यज्ञ कर लेने के बाद जब लोक हित के लिए एक सीमा तक स्वार्थ त्याग का अभ्यास हो जाता है तब अध्यात्म मार्ग का पथिक अपना समय, बुद्धि,

भावना और श्रद्धा को जनता जनार्दन की सेवा में अर्पण करने के लिए भली प्रकार अग्रसर होता है, यहाँ समग्र यज्ञ कहला सकता है। यही सर्वांगपूर्ण है और इसी का प्रतिफल वह होता है जो यज्ञों के महात्म्य का प्रतिपादन करते हुए धर्मशास्त्रों विस्तारपूर्वक बताया गया है।

युग निर्माण योजना का पूरा कार्यक्रम परमार्थ पूर्ण सेवा कार्यों से भरा हुआ है। इन 108 कार्यक्रमों को 108 कुण्डों का यज्ञ कह सकते हैं। आचार्य जी ने पहला गायत्री यज्ञ 108 कुण्डों का गायत्री तपोभूमि में किया था। उसमें साधक अपने-अपने उपयुक्त कुण्ड पर बैठे और होता बने थे। यह दूसरा गायत्री यज्ञ जो अब युग-निर्माण योजना के नाम से आरंभ किया गया है अधिक महत्वपूर्ण, अधिक शक्तिशाली है। उसमें बैठने वालो को घी सामग्री आदि की आहुतियाँ देनी पड़ती थीं, इसमें समय रूपी घृत और भावना रूपी सामग्री होमनी पड़ेगी। जिस प्रकार जप अनुष्ठान के बाद आचार्य जी ने गायत्री की उच्च स्तरीय साधना आत्म शोधन के रूप में प्रस्तुत की हैं इसी प्रकार जीवन यज्ञ का प्रखर स्वरूप धर्म अपनाने के रूप में सामने रखा है। युग-निर्माण योजना में यही सब कुछ भरा हुआ है कि जिसके माध्यम से जन मानस का स्तर भरा हुआ हैं जिसके माध्यम से जन मानस का स्तर ऊँचा उठे और एक व्यक्ति दूसरों को ऊँचा उठाने एवं आगे बढ़ाने में प्रसन्नता अनुभव करे।

आचार्य जी के आयोजन कितने महत्वपूर्ण हैं इसका आज मूल्याँकन नहीं हो सकता। उसका महत्व तो भावी इतिहासकार ही आँक सकेगा। गायत्री और यज्ञ के माध्यम से वे आत्म-शोधन और सेवा धर्म का व्यापक अभियान आरंभ कर रहे हैं उससे न केवल उसमें सम्मिलित होने वालों का ही महा-हित साधन होगा वरन् समस्त विश्व की सुख शान्ति बढ़ेगी। इस महान आयोजन की शतमुख से प्रशंसा कर सकना भी मेरे लिए संभव नहीं हो सकता।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles