शील से ही साहस की शोभा है

August 1963

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अपने शिष्यों को साथ लेकर महर्षि बोधायन एक बार बन विहार के लिए गये । मध्याह्न होते-होते वे लोग थक गये। वृक्षों की सघन छाया में विश्राम करने लगे तो सभी को नींद आ गई।

दिन ढल चुका था। महर्षि जगे और उनसे अपने सब शिष्यों को पुकारा। जागते, सोते और नींद ने सभी शिष्य गुरुदेव की आज्ञा सुनते ही उठ बैठे। पर गार्ग्य ज्यों का त्यों अब तक पड़ा रहा।

महर्षि को आश्चर्य हुआ और गार्ग्य के पास जाकर धीरे-धीरे उसे जगाने लगे। पर वह तो जागा पड़ा था। गार्ग्य ने कहा-भगवन्, एक महा भयंकर सर्प मेरे पैरों में लिपटा सोया पड़ा है। कुछ देर में जागेगा तब अपने रास्ते चला जायेगा। इतनी देर धैर्यपूर्वक मेरा अविचल पड़ा रहना ही उचित है।

गार्ग्य ज्यों का त्यों पड़ा रहा। दो घड़ी के बाद सर्प की नींद खुली और वह पास की गाड़ी की ओर अपने बिल में चला गया।

शिष्य उठा तो महर्षि ने उसे छाती से लगा लिया और उसके शील की भूरि-भूमि प्रशंसा की। दूसरे शिष्य मैत्रायण ने कहा-यह तो साहस का कार्य था, गुरु देव। आप गार्ग्य की साहसी क्यों नहीं कहते, शीलवान् क्यों कहते हैं?

महर्षि के होठों पर एक हलकी मुस्कान दौड़ गई। उनने कहा-भद्र। शील से ही साहस की शोभा है। जो शील के लिए साहस किया जाता है वही सराहनीय है। दुःशील के लिए दुस्साहस करने वाले निन्दनीय होते हैं। सराहा वही साहस जाता है जो विवेक, धैर्य और सदाचरण से संयुक्त हो।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles