नारी का महान गौरव पुनः प्रकटेगा

August 1963

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मानव नर और नारी के दो भागों में विभक्त है। गुठली के भीतर दो दल रहते है और दोनों के सम्मिश्रण से ही उसका अस्तित्व रहता है। इसी प्रकार नर-नारी का सम्मिलित स्वरूप ही मनुष्य नाम का अधिकारी होता है। नारी को अर्द्धांगिनी कहते हैं। आधा अंग पुरुष है, आधा नारी, दोनों ही अपूर्ण हैं। इस अपूर्णता की पूर्ति उनके पारस्परिक सहयोग से ही होता है।

जिस प्रकार शरीर में दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो नथुने, दो कान, दो फेफड़े, दो गुर्दे, दो कंधे होते हैं और दोनों की उपयोगिता एवं स्थिति समान हैं, उसी प्रकार मानव जाति के दो अंग नर और नारी ईश्वर के यहाँ से अपनी अपनी विशेषता उपयोगिता एवं महत्ता लेकर आये हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक तो हैं, पर कोई, किसी से हेय सा हीन नहीं है। दोनों के कर्तव्य और अधिकार समान हैं। सुविधा की दृष्टि से प्राचीन काल में ऐसी व्यवस्था की गई कि एक घर की देखभाल करे और दूसरा बाहर जाकर उपार्जन का प्रयत्न करे। इस प्रकार का कार्य विभाजन कर लेने से दोनों को सुविधा और निश्चिन्तता रहती है। संसार के अधिकाँश भागों में बहुत करके पुरुष बाहर का काम सँभालना है और स्त्रियाँ गृह कार्य करती हैं। पर वह नियम भी कोई पत्थर की लकीर नहीं। भारत के पर्वतीय प्रदेशों में सैंकड़ों स्थान ऐसे हैं जहाँ स्त्रियाँ उपार्जन करती हैं और पुरुष गृह-प्रबन्ध संभालते हैं। टिम्बकटू (अफ्रीका) में तो ऐसा रिवाज है कि पुरुषों को स्त्रियों के आगे घूँघट निकाल कर रहना पड़ता है।

सुविधा की दृष्टि से संसार के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी-अपनी रीति-रिवाजों के अनुसार नर-नारी के कार्य-क्षेत्र बँट गये हैं। फिर भी इसके कारण दोनों के नागरिक अधिकारों में कोई अन्तर नहीं आता। जो मानवीय अधिकार पुरुष को प्राप्त है वही स्वभावतः नारी को भी प्राप्त होने चाहिये। दोनों के लिये सामाजिक और नैतिक व्यवस्था एक सी होनी चाहिए। दोनों के ऊपर एक से नियम कानून और बंधन लागू होने चाहिये। प्राचीन काल में ऐसी ही न्यायोचित व्यवस्था प्रचलित भी थी। नर और नारी समान रूप से मानवीय अधिकारों का उपभोग करते थे। पर मध्यकालीन सामंतीयुग में जब कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का जंगली कानून जोर पकड़ रहा था, नारी की शारीरिक निर्बलता का अनुचित लाभ उठा कर ऐसे प्रतिबंध लगा दिये गये जिससे उसकी स्थिति मनुष्य की न रह कर पशु की-सी हो गई। पुरुष को स्त्री के ऊपर इतना अधिक स्वामित्व प्रदान किया गया कि वह उसे अचल सम्पत्ति की तरह खरीद और बेच भी सकता था। मारने पीटने का भी उसे वैसा ही अधिकार मिला जैसा पशु-पालक अपने पशुओं के साथ किया करते हैं।

नारी की दुर्दशा पिछले दिनों इतनी बढ़ी कि उसे तिनके की तरह दीन-हीन और पराधीन बना दिया गया। पिंजड़े में बन्द रहने वाले पक्षी को कम से कम मुँह ढक कर तो नहीं रहना पड़ता, पर भारतीय स्त्रियों की स्थिति उनसे भी गई बीती हो गई। घर की चहार दीवारी के भीतर भी उन्हें पर्दे में मुँह ढके रहने को विवश होना पड़ा। शिक्षा के नाम पर शून्य, स्वावलम्बन के नाम पर अपाहिज, अनुभव के नाम पर सर्वथा अज्ञान जिस दृष्टि से भी देखा जाय उनकी स्थिति गई गुजरी हो गई। कभी वैधव्य का दुर्भाग्य सहन करना पड़े तो बेचारी का जीवन घोर तिरस्कृत और कष्टपूर्ण हो जाता है। जिनके बच्चों के लिये पतिदेव कुछ संपत्ति न छोड़ गये हों, उनके लिये तो अपना और बच्चों का पेट भर सकना भी महा-कठिन हो जाता है।

इस उत्पीड़न का फल नारी के लिये तो त्रासदायक हुआ ही, पुरुष भी अर्धांग पक्षाघात से पीड़ित रोगी तरह लुंज-पुंज हो गये। जिसकी अर्धांगिनी बौद्धिक दृष्टि से गई बीती स्थिति में पड़ी हो, जिसकी गृहलक्ष्मी ज्ञानशून्य अवस्था में हो वहाँ प्रगतिशील घरों की तरह उत्तम व्यवस्था रह सके इसकी आशा नहीं की जा सकती। ऐसे घरों में सद्गुणी सन्तानें भी कहाँ से आवेंगी? बच्चे का शरीर माता के ही शरीर में से बनता है। उसको छाती का रस-दूध पीकर ही तो वह बड़ा होता है। माता के पास जैसे कुछ संस्कार होंगे वैसे ही बालक में आयेंगे। जब कि माता शिक्षा, दीक्षा, अनुभव से हीन है, गुण कर्म, स्वभाव की दृष्टि से अविकसित अवस्था में पड़ी है, तो यह आशा करना कि उससे उत्पन्न होने वाली संतान श्रेष्ठ-सत्पुरुषों की श्रेणी गिने जा सकने लायक बन सकेगी, दुराशा मात्र ही है। शिक्षा के द्वारा भले ही वे कोई बड़ी या छोटी नौकरी प्राप्त कर लें, पर सद्गुणों से रहित माता द्वारा उत्पन्न बालक आदर्श-वान नहीं हो सकते। हम देखते हैं कि हमारी आगामी पीढ़ियाँ दिन पर दिन घटिया किस्म की बनती चली जा रही है। इसका मुख्य कारण नारी का अविकसित स्थिति में पड़ा रहना ही है।

नारी के प्रति सामन्तवादी-अन्यायपूर्ण दृष्टि कोण रखते हुये पुरुष कभी सच्ची प्रगति का अधिकारी नहीं हो सकता। जो किसी को सताता है उसे ईश्वर सताता है। जो दूसरों को गुलाम रखना चाहता है उसे कोई और गुलाम बना लेता है। हम पिछले एक हजार वर्ष तक राजनैतिक गुलामी में रहे हैं। और इस कारण भली प्रकार जानते हैं कि पराधीनता कितनी कष्टकारक होती हैं। नारी को जैसी पराधीनता सहनी पड़ती है वह तो राजनैतिक पराधीनता से भी अनेक गुनी अधिक कठोर और कष्टकारक है। जो लोग परम्पराओं के नाम पर, शास्त्रों के नाम पर इस अनीति का समर्थन करते हैं वे ईश्वर की दृष्टि में अपराधी ही माने जायेंगे और अपने अपराध का दण्ड भी उनको भोगना पड़ेगा।

युग-निर्माण योजना की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि उसमें नारी के उत्थान पर बहुत अधिक जोर दिया गया है। नारी के लिये जिस प्रकार पति-व्रत धर्म माना जाता है उसी प्रकार युग-निर्माण योजना में पत्नी-व्रत को भी एक अनिवार्य धर्म-कर्तव्य माना गया है। नारी के प्रति नर का भी वही कर्तव्य है जिसका पालन नारी नर के प्रति करती है। दोनों को समान नियमों, धर्मों का पालन करना चाहिये। जो कुछ सुविधा या छूट एक पक्ष चाहे, वही दूसरे पक्ष को भी मिलना चाहिये। इस न्यायोचित मान्यता को युग-निर्माण योजना और स्वतन्त्रता के ईश्वर प्रदत्त अधिकारों का दोनों ही उपभोग करे और सच्चाई प्रेम तथा वफादारी के बंधनों में दाम्पत्य-जीवन को स्वर्गीय आनन्द से परिपूर्ण बनावें तो योजना के अनुसार नर-नारी एक दूसरे के सच्चे मित्र बनकर अपने परिवारों को देवताओं का निवास स्थान बना सकते हैं। योजना के सदस्यों से आग्रह-पूर्वक यह कहा गया है कि अपने-अपने घरों में स्त्री शिक्षा की अनिवार्य रूप से व्यवस्था करें। जो स्त्रियाँ साक्षर नहीं हैं उन्हें साक्षर बनावें, साथ ही उनके बौद्धिक विकास के लिये एक घरेलू विद्यालय चलाया जाय। पारिवारिक ज्ञान गोष्ठियों का कार्यक्रम इसी दृष्टि से बनाया गया है। पुस्तकें पढ़कर सुनाना, ऐतिहासिक घटनायें, कहानियाँ, समाचार एवं प्रश्नोत्तर के माध्यम से जीवन को विकसित करने वाली विचारधारा स्त्रियों को निरन्तर देते रहने पर योजना में बहुत जोर दिया गया है। इसका फल यह होगा कि नारी अपने गौरव को समझेगी, जीवन की बहुमूल्यता और उसके सदुपयोग की तरफ ध्यान देगी।

लड़कियों को नियमित रूप से स्कूल भेजने और स्त्रियों की तीसरे पहर चलने वाली प्रौढ़ पाठशालाओं की ओर यदि हम भली प्रकार ध्यान दें तो

स्त्री-शिक्षा का आवश्यक विकास होगा। शिक्षा के साथ-साथ उन्हें कला कौशल की, उद्योग-धन्धों की ऐसी शिक्षा भी दी जानी चाहिये जिससे आवश्यकतानुसार वे कुछ आर्थिक स्वावलम्बन भी प्राप्त कर सकें। परिवार की नैतिक, सामाजिक आर्थिक दृष्टि से उत्तम व्यवस्था करना नारी की प्रवीणता पर ही निर्भर है। एक व्यापक पाठ्यक्रम बनाकर घर-घर में शिक्षा-व्यवस्था का विस्तार करके नारी को प्राचीन काल की तरह सब तरह से योग्य और समर्थ बनाना ही युग-निर्माण योजना का उद्देश्य है। यह लक्ष्य जितना ही पूर्ण होगा उतना ही हमारे घरों का वातावरण स्वर्गीय बनता चला जायगा।

युग-निर्माण योजना में पर्दा प्रथा को मिटाने का पूर्णतः समर्थन किया गया है। बड़ों के सम्मान में सिर ढकने की परम्परा को शिष्टाचार की दृष्टि से स्वीकार किया जा सकता है, पर ऐसा पर्दा जिसमें किसी से बोलने और मुँह को पेट तक घूँघट से ढके रहने का प्रतिबंध हो किसी दृष्टि से उचित या लाभदायक नहीं कहा जा सकता। उसे हटाने का प्रयत्न अवश्य किया जाना चाहिये ताकि नारी भी अपने मानवीय अधिकारों और व्यक्तित्त्व का अनुभव कर सकें।

दहेज को युग-निर्माण योजना में हिन्दू-समाज का गलित-कोढ़ माना है और यह प्रयत्न किया जा रहा है कि इस अनीति का जल्दी से जल्दी अन्त हो। युग-निर्माण योजना के सदस्य सबसे पहले इस संबंध में श्रीगणेश करेंगे। वे बिना दहेज के विवाहों का आदर्श जनता के सामने रखेंगे तो निश्चय ही उसका प्रभाव दूसरों पर पड़ेगा। अब तक दहेज के विरुद्ध प्रस्ताव पास करके ही हम उसका विरोध किया करते थे, जिससे उसका फल भी नाम मात्र का दिखाई पड़ता था। पर जब प्रत्यक्ष और सक्रिय रूप से उसके उन्मूलन का प्रयत्न किया जायगा तो इस घृणित प्रथा का अन्त अवश्य निकट आ जायगा, ऐसी आशा है।

गायत्री-उपासना के द्वारा आचार्य जी ने नारी को भगवान की सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा सिद्ध किया है। उसके प्रति पूज्य और पवित्र भाव रखने, श्रद्धा और सत्कार का व्यवहार करने की शिक्षा गायत्री की प्रतिमा पूजा के रूप में देनी आरम्भ की है। यज्ञ-अनुष्ठानों के बाद कन्या-भोजन की परम्परा इसी दृष्टिकोण को व्यावहारिक रूप देने के विचार से प्रचलित हुई है। नारी मात्र को माता गायत्री का प्रतिनिधि मानकर जब उसका समुचित सत्कार होने लगेगा तो मनु भगवान की वह उक्ति सार्थक होकर रहेगी जिसमें कहा गया है “जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं।”

अश्लीलता की वह दुष्प्रवृत्ति जिसके अनुसार नारी को कामिनी एवं रमणी माना जाता है और उसे विलासिता के भाव से देखा जाता है युग-निर्माण योजना के अनुसार अत्यन्त घृणित है। युवा स्त्रियों के अर्ध नग्न चित्रों को इसलिये टाँगना और देखते रहना कि पाशविक वृत्तियाँ भड़के मनुष्य की शील मर्यादा के बाहर की वस्तु है। गन्दे उपन्यास, कहानियाँ, तस्वीरें, फिल्में, गन्दे गाने, जिनसे नारी के प्रति विकार बुद्धि भड़के मानव जाति के लिये निश्चय ही अहितकर बात है। नारी का सम्मान गिराने वाले इन कुकृत्यों को यदि हम त्यागने का निश्चय कर लें और उनसे घृणा की जाने लगे तो सर्वत्र पवित्रता का वातावरण दृष्टिगोचर हो सकता है। योजना में लड़कियों को यह विशेष रूप से समझाया गया है कि वे अपने गौरव का ध्यान रखते हुये ऐसी पोशाक न पहिने, ऐसा वेश विन्यास और शृंगार न करें जो उन्हें रमणी या ओछे स्तर की सिद्ध करता हो। शील, लज्जा और शिष्टता ही नारी का भूषण है, जो उनकी पोशाक, वाणी, दृष्टि एवं चेष्टा से सदैव प्रकट होते रहना चाहिये।

आन्दोलन के रूप में नारी-उत्थान का जो महान कार्यक्रम लेकर युग-निर्माण-योजना चल रही है उसमें सतयुग के अवतरण की सम्भावनाएँ निहित जान पड़ती हैं। ऐसे आन्दोलन सफल हों तभी हम प्राचीन भारत की संस्कृति को पुनः जीवित, जागृत होते देख सकते हैं और तभी नारी को उसका वह गौरवान्वित पद प्राप्त हो सकता है, जिस पर मनुष्य जाति का भाग्य और भविष्य निर्भर है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118