उत्साहपूर्ण वातावरण में उठते हुए कदम

August 1963

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अज्ञातवास से लौटते ही हमने अपने मार्गदर्शक के आदेश से ‘युग-निर्माण-योजना’ को विचारधारा का परिचय देना आरम्भ कर दिया था। दो वर्ष तक सैद्धान्तिक प्रशिक्षण अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों द्वारा देकर अब गत गुरु पूर्णिमा (6 जुलाई) से उसे व्यवहारिक कार्यरूप में प्रस्तुत कर दिया गया है। उस पुनीत पर्व पर इसका उद्घाटन हो गया और योजना अब कार्यरूप में अग्रसर हो रही है।

हमारे अनुरोध को परिजनों ने पूरे ध्यान से सुना और समझा है और उसी दिन तदनुसार व्यवहार भी आरम्भ कर दिया है। प्राप्त समाचारों के अनुसार तीन चौथाई परिजनों ने उस दिन उपवास रखा, विशेष जप-हवन किया और जहाँ जितने सदस्य थे उनने इकट्ठे होकर प्रतिज्ञा ली कि आज के दिन से अपनी उपासना को अधिक निष्ठापूर्वक आरम्भ करेंगे, जीवन शोधन पर पूरा ध्यान देंगे और जन-जागृति के लिए सेवा-बुद्धि से कुछ न कुछ समय नियमित रूप से लगाते रहेंगे। परमार्थ का सबसे श्रेष्ठ तरीका किसी को सन्मार्ग की प्रेरणा देना ही हो सकता है। अपना सुधार करके ही कोई मनुष्य आपत्तियों और कठिनाइयों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है। दूसरों की भौतिक सहायता तो उसे तत्कालिक थोड़ा लाभ भले ही पहुँचा दे पर स्थायी हित साधन तो अपने सुधार से ही होता है। इसलिये युग-निर्माण कार्यक्रम में जन-भावनाओं को उत्कृष्ट बनाने को ही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ माना गया है। प्रसन्नता की बात है कि योजना को कार्यान्वित करते हुये प्रत्येक सदस्य ने उपासना और जीवन शोधन के साथ-साथ परमार्थ को भी आवश्यक महत्व दिया है। ज्ञान-यज्ञ के लिए सभी परिजन अपनी भावना समय, एवं श्रद्धा अर्पित करेंगे, हमारे लिए यह सबसे अधिक प्रसन्नता और सन्तोष की बात है।

अनुमान यह था कि समाचार थोड़े आवेंगे इस लिये उनमें से अधिक प्रभावशाली समाचारों को अगस्त अंक में पाठकों की जानकारी और उत्साह वृद्धि के लिये प्रकाशित करेंगे। यह अंक दस दिन लेट भी इसी कारण किया गया है। पर जो समाचार 30 हजार परिजनों ने भेजे वे इतनी अधिक संख्या में और ऐसे महत्वपूर्ण हैं कि उन्हें संक्षिप्त करके एक-एक दो-दो पंक्ति में भी छापा जाय तो साधारण अखंड-ज्योति से तिगुने पृष्ठों की आवश्यकता पड़ेगी। इस विवशता से समाचार नहीं छापे जा रहे हैं। इस अंक में केवल वे लेख ही दिये गये हैं जिनमें प्रबुद्ध मनीषियों ने युग-निर्माण-योजना के सम्बन्ध में अपने-अपने दृष्टिकोण उपस्थित किये हैं। इनसे पाठकों को योजना का स्वरूप समझने में सहायता मिलेगी।

समाचारों का साराँश यह है कि ‘अखण्ड-ज्योति’ के प्रायः प्रत्येक पाठक ने गुरुपूर्णिमा के दिन निश्चय किया है। इस परिवर्तन को ही हम युग-निर्माण की आधारशिला मानते है। हम बदलेंगे तो हमारी दुनिया भी बदलेगी यह निश्चित है। उपासना अध्यात्म का मूल है। गायत्री उपासना को तो हिन्दू-संस्कृति की गंगोत्री माना गया है। इसलिए नवीन प्रेरणा के अनुसार पुराने उपासकों ने अपना जप-साधन अधिक श्रद्धा-भावना से परिपूर्ण बनाने का निश्चय किया है। जो इस मार्ग पर आगे बढ़ चुके हैं उन्होंने पंचकोशी गायत्री-साधना के माध्यम से अपने अन्नमयकोश, मनोमयकोश, प्राणमयकोश विज्ञानमयकोश, आनन्दमयकोश का परिष्कार करते हुये आत्म-साक्षात्कार की स्थिति तक पहुँचने का प्रण किया है। जो लोग अभी नये-नये ही इस परिवार में सम्मिलित हुए हैं, उन्होंने गुरुपूर्णिमा से अपनी साधना किसी न किसी रूप से प्रारम्भ कर दी है। साथ ही सबने यह आश्वासन दिया है कि अपने कुटुम्बी, सम्बन्धी और मित्रों को उपासना मार्ग में लगाने का शक्तिभर प्रयत्न करेंगे। स्त्रियों की उपासना पर अधिक जोर दिया गया था, ताकि नई पीढ़ी को प्रबुद्ध बनाने में सहायता मिले। इस सुझाव का प्रायः सभी ने स्वागत किया है और तदनुसार प्रयत्न भी आरम्भ कर दिया है। जैसा कि आश्वासन मिला है यदि ‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ के सदस्यों की धर्मपत्नियाँ निष्ठापूर्वक गायत्री-उपासना में सम्मिलित हो सकीं तो इसमें सन्देह नहीं कि अगली पीढ़ी के लिए सहस्रों महापुरुष और महा नारियाँ भारतमाता का गौरव बढ़ाने वाले पैदा हो सकेंगे। पारिवारिक ज्ञान गोष्ठियाँ इस दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक हैं। इस सम्बन्ध में भी उत्साहवर्धक सूचनाएँ मिली हैं। आधे से अधिक पाठक ऐसे हैं जिन्होंने अपने घरों में एक घण्टा रोज ज्ञानचर्चा और शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था में प्रतिदिन लगाना आरम्भ कर दिया है। परिवार सुधरेंगे तो सारा समाज ही सुधरेगा और इसी क्रम से समस्त संसार का सुधार संभव हो सकेगा। अपने परिवारों में हमें नम्रता, शिष्टाचार, उदारता, प्रेम, न्याय, एकता और सहिष्णुता की परम्परा कायम करनी है। ‘अखण्ड ज्योति परिवार’ को इस दिशा में सब से पहले और सबसे प्रभावशाली कदम उठाना है। प्राप्त समाचारों से विदित होता है कि यह कदम हजारों विचारशील पाठकों ने इसी गुरुपूर्णिमा से उठा दिया है और शेष कुछ ही दिनों में उठाने जा रहे हैं।

रात को जल्दी सोना, प्रातः जल्दी उठना, दिन भर की दिनचर्या का प्रोग्राम सबेरे ही बना लेना और फिर उसी के अनुसार काम करना चाहिए। प्रातः बहुत हल्का जलपान करना, दिन में दो बार भोजन करना, सप्ताह में एक दिन उपवास रखना, थाली में जूठन न छोड़ना, भगवान को भोग लगाकर खाना जैसी आहार शुद्धि की योजना दो तिहाई लोगों ने स्वीकार कर ली है। कितने ही ऐसे भी हैं जिन्होंने आजीवन नमक मसाले छोड़ देने का व्रत लिया है। ब्रह्मचर्य सम्बन्धी सूचनाओं से पता चलता है कि लोगों का जो क्रम अब तक रहा है उससे संयम नियम की मात्रा दूनी हो जायगी। असंयम आधा घट जायगा।

नशा, माँस, फैशन, फिजूलखर्ची, सिनेमा, पान, चाय आदि छोड़ने वालों की संख्या पाँच हजार से ऊपर है। वृक्षारोपण में सैकड़ों लोगों ने भाग लिया है। तुलसी और फूल घर-घर में बोये जा रहे हैं। सेवा-भावना से सैकड़ों प्रौढ़ पाठशालाएँ जगह-जगह पारस्परिक सहयोग के आधार पर स्थापित हुई है, जिनमें साक्षरता के साथ-साथ जीवन-विद्या के प्रत्येक पहलू पर भी प्रशिक्षण की व्यवस्था रहेगी। इसी प्रकार प्रेरणाप्रद पुस्तकें संग्रह करके उन्हें घर-घर पढ़ाये जाने का कार्यक्रम बनाकर लगभग पचास उत्साही व्यक्तियों ने छोटे-छोटे पुस्तकालय स्थापित किये हैं। महिलाओं को गृहविज्ञान तथा सिलाई की शिक्षा के साथ-साथ प्रयोग महिला विद्यापीठ की परीक्षाएँ दिलाने वाले सात केन्द्र विभिन्न नगरों में स्थापित हुए हैं।

मृत्युभोज, पशुबलि, बाल विवाह, अनमेल विवाह कन्या विक्रय, पर्दा प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों को हटाने के लिये जगह-जगह आन्दोलन आरम्भ कर दिया गया है। दहेज उन्मूलन की ओर सबसे ज्यादा ध्यान दिया है। प्रयत्न यह किया जा रहा है कि अपने परिवार में ऐसे आदर्श विवाहों की परम्परा चल पड़े जिनमें वरपक्ष दहेज न ले और कन्यापक्ष जेवर न चढ़ने दे। बिना धूमधाम और लम्बी चौड़ी बरात के बहुत ही सादी रीति से विवाह हुआ करे। विवाह योग्य लड़के और लड़कियों में यह हस्ताक्षर आन्दोलन आरम्भ कर दिया गया है कि यदि उनके अभिभावक दहेज और फिजूलखर्ची से भरा विवाह करना चाहेंगे तो उसे स्वीकार न करेंगे और आजीवन कुँवारे ही बने रहेंगे। इस प्रकार की कुरीतियों के विरुद्ध जन-भावनाएँ जागृत करने के लिये कितने ही विचार-शील लोगों ने टोली बनाकर निकालना और घर-घर जाकर अपन अभिप्राय समझाना आरम्भ कर दिया है। आदर्श वाक्य दीवारों पर लिखने का आन्दोलन बहुत जोर पकड़ेगा ऐसा लगता है, क्योंकि इसे कार्यान्वित करने की सूचनाएँ आधे के लगभग परिजनों ने भेजी हैं।

परिवार के जो सदस्य चिकित्सा-कार्य कर रहे हैं उन्होंने अपने रोगियों को सात्विक आहार-विहार तथा जप-स्वाध्याय की आवश्यकता समझाना शुरू कर दिया है। कितने ही अध्यापक अपने छात्रों को अतिरिक्त रूप से नैतिकता और मानवता की शिक्षा भी देने लगे हैं। पुरोहितों ने अपने यजमानों को धर्म शिक्षा देनी आरंभ कर दी है। जिन लोगों के पास अवकाश है उनमें से कई वयोवृद्ध सज्जनों ने रामायण, गीता की कथाएँ कहना और पाठशालाएँ चलाना आरम्भ कर दिया है। सन्त-महात्मा भी इधर आकर्षित हुये हैं और उन्होंने भी शिक्षा-प्रसार के कार्यक्रम में सहयोग देना आरम्भ कर दिया है। एक महात्मा ने तो छः गाँवों में कन्या पाठशालाएँ स्थापित कराई है जिनका खर्च इस वर्ष ग्रामवासी चन्दा करके चलायेंगे और अगले वर्ष उन्हें सरकारी सहायता प्राप्त हो जायगी। छोटे गाँवों में जहाँ स्कूल नहीं थे वहाँ इस वर्ष कितनी ही प्राइमरी पाठशालायें इसी प्रकार के प्रयत्नों द्वारा खुली हैं।

सवालक्ष गायत्री मंत्र लिखाकर सामूहिक गायत्री-मन्दिर स्थापित करने का कार्यक्रम बहुत जगह आरम्भ हुआ है। अहमदाबाद शाखा ने सवा करोड़ मंत्र लिखाये हैं और उन मंत्रों का एक मंदिर युग-निर्माण केन्द्र के रूप में शीघ्र ही स्थापित होने वाला है। इन केन्द्रों में ही परिवार का कार्यालय रहेगा और वहाँ समय-समय पर कीर्तन-भजन तथा जप-स्वाध्याय के आयोजन होते रहेंगे। इनमें गायत्री माता का एक बड़ा चित्र भी स्थापित किया जायगा। पुराने मंदिरों में धर्म प्रवृत्तियाँ आरंभ कराने का भी कितनी ही जगह प्रयत्न चल रहा है। कुछ टूटे मंदिरों की मरम्मत करके उन्हें पूजा-उपासना और सत्संग आदि के कार्यक्रमों के उपयुक्त बनाया जा रहा हैं।

साप्ताहिक सत्संगों की प्रक्रिया शिथिल पड़ गई थी। अब उसमें पुनः जागृति आई है और प्रति सप्ताह किसी एक सदस्य के घर पर सत्संग होते रहने का क्रम फिर से आरम्भ कर दिया गया है। इन सत्संगों में एक तिहाई समय हवन में और दो तिहाई प्रवचनों में लगा करेगा। आगामी आश्विन में नवरात्रि प्रायः सभी शाखाओं में सामूहिक अनुष्ठानों और शिक्षण शिविरों के रूप में मनाई जायगी। पर्व और त्यौहारों का सामूहिक आयोजन करने की विधिवत पद्धति बनाने की सभी जगह से माँग आई है और आशा है कि वह जल्दी ही बन जायगी। षोडश संस्कारों में से प्रमुख संस्कारों को सरल विधि से कर सकना लोग सीखना चाहते हैं, जिससे परस्पर मिल-जुलकर बिना खर्च के ऐसे आयोजन कर लिया जाया करे। ऐसी सरल, संक्षिप्त और सर्व साधारण के लिये उपयोगी पद्धति भी शाखाओं की आवश्यकता पूरी करने के लिये जल्दी ही बन जायगी। एक छोटी पुस्तक जन्म-दिन मनाने की भी बनाई जानी है। जन्म दिन मनाने की प्रथा उत्साहपूर्वक चलाई जानी चाहिये ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन की महत्ता और उपयोगिता पर आवश्यक विचार करते हुये भावी-जीवन का सदुपयोग करने के लिये विशेष प्रेरणा प्राप्त कर सके।

कई व्यक्तियों के ऐसे पत्र आये हैं जो अपनी-अपनी जातियों या उपजातियों में कुरीतियों का उन्मूलन तथा सत्प्रवृत्तियों की वृद्धि करने के लिये जातीय-संगठन बनाना चाहते हैं। यह कार्य हमें उपयोगी ही प्रतीत हुआ है और ऐसे लोगों को स्वीकृति देते हुये हमने उन्हें व्यवहारिक मार्ग दर्शन के लिये मथुरा भी बुलाया है। ऐसे छोटे-छोटे प्रयत्नों से भी सामाजिक उत्कर्ष में बहुत योगदान मिल सकता है।

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर आये हुये हजारों समाचारों को छापना संभव न हो सका, परिजन व्यक्तियों ने विशेष रचनात्मक कार्य किये हैं, उन्हें वे कार्य करने की प्रेरणा कैसे मिली, प्रयत्न कैसे किये, कठिनाई क्या आई और प्रगति कैसे हुई, इसको आवश्यक जानकारों दूसरों का मार्ग-दर्शन करने के उद्देश्य से छोटे-छोटे लेखों के रूप में छापी जाया करेगी। कोई सज्जन आत्मश्लाघा की दृष्टि से ऐसे समाचार न भेजे। वरन् विशुद्ध रूप से जन-मार्ग दर्शन ही उसका उद्देश्य हो तो अच्छा है। इसमें व्यक्तियों के नाम रहे ही नहीं। यदि अत्यन्त आवश्यकतावश कहीं उनका उल्लेख करना ही हो तो अत्यन्त संक्षेप में किया जाय। स्मरण रहे कि नाम छपाने की मनोवृत्ति लोकेषणा-अहंकार को उत्पन्न करती है, जो कि सच्चे लोक सेवकों के लिये विष के तुल्य त्याज्य मानी गई है। इससे पुण्य क्षीण होते चले जाते हैं और परस्पर ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न होते हैं सो अलग।

यह स्पष्ट है कि युग-निर्माण का उद्देश्य जन-मानस में अध्यात्म तत्वों का समावेश करना है। उपासना, जीवन-शोधन और परमार्थ के त्रिविध कार्यक्रमों को अपनाते हुये हमें जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिये ही अग्रसर होना है। योजना में सन्निहित कार्यक्रम हमारे आध्यात्मिक उद्देश्यों की पूर्ति हो सहायक या साधन-मात्र ही हो सकते हैं। हमें लक्ष्य को प्रधानता देते हुये उसकी पूर्ति के लिये ही इन कार्यों को करना है। लक्ष्य को भूल कर दूसरी संस्थाओं की तरह लोकरंजन, दिखावट, यश की कामना या तुच्छ स्वार्थ की प्राप्ति के लिये कार्य करने से तो वही दुर्गति हमारी भी होगी जो दूसरी की हो रही है।


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