आध्यात्मिक क्रान्ति और उसकी पुण्य-प्रक्रिया

August 1963

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(पं. जुगलकिशोर शर्मा शास्त्री एम. ए.)

भारतवर्ष में समय-समय पर क्राँतियाँ हुई हैं और उनके फल स्वरूप महापुरुषों ने इस देश को अधर्म के गर्त में गिरने से बचाया है। आध्यात्मिक उत्थान के साथ-साथ नैतिक, धार्मिक एवं सामाजिक उत्थान भी हुआ। इन क्रान्तियों से बहुत बड़ा लोकहित होता रहा है। पर यह सम्भव तभी हुआ जब उस परिवर्तन का आधार वैदिक परम्परायें रहीं। उन परम्पराओं की पुनर्जागृति ने भारत ही नहीं समस्त संसार को प्रकाशवान बनाया।

आज मानव-समाज जिन अभावों और संकटों की स्थिति में घिरा हुआ है उससे छुटकारा पाने के लिये वह प्रयत्नशील है। समय भी गतिशील है। संसार के सभी राष्ट्र अपने-अपने-ढंग से उन्नति कर रहे हैं। हम पिछड़ते हैं। दौड़ इतनी तेजी से चल रही है कि जो पिछड़ गया उसे बहुत पश्चात्ताप करना पड़ेगा। इसलिये समय रहते जागने और प्रगति पथ पर अग्रसर होने की आकाँक्षा हम भारतियों के मन में भी उठना स्वाभाविक है। ऐसी सामूहिक आकांक्षायें ही क्रान्तियाँ बनकर प्रकट होती हैं। कोई साधारण व्यक्ति भी पहले कदम उठाये तो जनता उसके पीछे चल पड़ने में संकोच नहीं करती।

हमारी वर्तमान शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति निस्सन्देह असंतोषजनक है और उसमें परिवर्तन की आवश्यकता स्पष्ट रूप से प्रतीत हो रही है। इस परिवर्तन के लिये अनेक प्रयास चल रहें हैं। पर देखना यह है कि उनमें साध्य के साथ साधनों की भी पवित्रता रहती है या नहीं। हमारी प्राचीन वैदिक परम्पराओं को फलने-फूलने का अवसर रहता है या नहीं? यदि राजनैतिक, आर्थिक सामाजिक परिवर्तन किसी उपाय से हो गये, पर साथ ही हमारी वे परम्परायें चली गईं जिन पर कि मानव जाति का भविष्य निर्भर है तो फिर वह सुधार भी अन्ततः बिगाड़ के समान ही दुखदायी होगा। आदर्शभ्रष्ट होकर हम कुछ उपार्जन या सुधार भी कर सके तो पथ से भटके हुये लोग देर तक उसका लाभ न उठा सकेंगे। दूसरे कारणों को लेकर परस्पर टकरावेंगे और जो कुछ कमाया था उसे गँवाने में देर न लगेगी।

इसलिये ध्यान में रखने की बात यह है कि उत्थान के लिये हम जो भी प्रयत्न करें उनमें वैदिक परम्पराओं का ही आधार रहे। नीति, धर्म और सदाचार के आधार पर ही सच्ची प्रगति संभव हो सकती है। जीवन में सत्य की प्रतिष्ठा को उचित स्थान देकर ही मनुष्य चिरस्थायी उन्नति कर सकता है। सात्विकता को अवलम्बन कर प्रगति के पथ पर चलते हुये सफलता प्राप्त करने में भले ही कुछ विलम्ब हो, पर विद्वेष, घृणा और हिंसा पर आधारित नाशकारी तूफान द्वारा कुछ प्राप्त कर लेने की अपेक्षा वह मन्द प्रगति अधिक कल्याणकारी सिद्ध होगी।

‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ की युग-निर्माण योजना द्वारा वैदिक परम्पराओं के अनुरूप भारतीय समाज का स्तर ऊँचा उठाने का जो प्रयास हो रहा है उससे हमारी बाह्य जीवन की समस्यायें तथा उलझने तो सुलझेगी ही, साथ ही सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि आध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाने में भी उससे भारी सहायता मिलेगी। सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण लाभ यही है। व्यक्ति का चरित्र ऊँचा उठे, आदर्शों के प्रति उसका अन्तःकरण निष्ठावान बने, धर्म और कर्तव्य को प्रधान मानकर चले तो फिर वे समस्याएँ जो पहाड़ सी विशाल और घटाओं सी भयंकर दीखती हैं बात ही बात में सरल हो सकती हैं।

बाह्य जीवन की समस्त कठिनाइयाँ आन्तरिक स्थिति की छाया ही होती हैं। पाप का फल दुःख और पुण्य का फल सुख के रूप में देखा जाता है। इसलिये यदि व्यक्तिगत या सामूहिक जीवन से दुख दारिद्र को हटाया हो तो उसका एक ही उपाय हो सकता है कि धर्म-बुद्धि के जागरण और धर्म प्रवृत्तियों के प्रोत्साहन के लिये हम सब तत्परतापूर्वक कटिबद्ध होकर काम करें।

अवसाद की स्थिति से ऊँचे उठकर हमें सच्ची चिरस्थायी प्रगति के लिये कार्य करना चाहिये। वह कार्य-पद्धति धर्म, नीति और सदाचार का वैदिक परम्पराओं के अनुरूप ही होनी चाहिये। प्राचीन काल में समय-समय पर ऐसी क्राँतियाँ होती रही हैं और उनने जन-जीवन की अनेक गुत्थियों को सुलझाते हुये धर्ममय सुख-शान्ति का वातावरण उत्पन्न किया था। युग-निर्माण योजना आदर्शवाद, धार्मिकता को लाने का एक दिव्य प्रयत्न है। इससे बाह्य जीवन की अपेक्षा भी आन्तरिक स्तर का उत्कर्ष अधिक होगा। विश्व-शान्ति के लिये ऐसी ही उन्नति और प्रगति अपेक्षित है। मैं इस योजना को एक आध्यात्मिक क्राँति मानता हूँ और इसकी सफलता के लिये परमात्मा से हार्दिक प्रार्थना करता हूँ।


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