सेवा-धर्म की सन्तुलित योजनायें

August 1963

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(श्री जानकीनन्दन शरण गार्ग्य)

गुणों का अभ्यास क्रियाओं के द्वारा किया जाता है। तैरना सीखने के लिये तालाब में उतरना पड़ता है। पहलवानी सीखने वाले अखाड़े का आश्रय लेते हैं। संगीत सीखने वाले बाजों की सहायता लेते हैं। ईश्वर-भक्ति की भावना बढ़ाने के लिये पूजा-उपासना में संलग्न होना पड़ता है। शिक्षार्थी को कापी, पुस्तक, कलम, दवात का उपयोग करने की आवश्यकता होती है। वैज्ञानिकों को अपने अन्वेषण कार्य में अनेक प्रकार के यन्त्रों, रासायनिक द्रव्यों और प्रयोगशालाओं की जरूरत होती है। सद्गुणों का अभ्यास बढ़ाने के लिये सत्कर्मों में लगे रहने का कार्यक्रम बनाना पड़ता है। केवल चाहने या सोचने से सद्गुणों का अभ्यास नहीं हो सकता, लिये जो सद्गुणों की उपयोगिता और महत्व का अनुभव करते हों, उनको अपने भीतर जमा हुआ देखना चाहते हों, उनके लिये आवश्यक है कि अपने दैनिक जीवन में किसी न किसी रूप में सत्कार्यों का व्यवहार अवश्य करते रहें। जो विचार उपयोगी प्रतीत होते हैं उन्हें कार्यान्वित करने के लिये भी तत्पर रहें।

युग-निर्माण योजना एक आध्यात्मिक आन्दोलन है। मनुष्य यदि सच्चे अर्थों में मनुष्य बनना चाहता हो, आध्यात्मिकता को वचन मात्र की वस्तु न रख कर उसे अपने जीवन में उतारना चाहता हो, तो यह नितान्त आवश्यक है कि वह आध्यात्मिक गुणों को अपने स्वभाव का एक अंग बनाने का प्रयत्न करें। इस महान तत्वज्ञान का प्रयोजन यही है कि पूजा, स्वाध्याय, ध्यान, भजन, कथा-कीर्तन, व्रत, उपवास द्वारा अपने स्वभाव को ऐसा बनावे जिससे आध्यात्मिक आदर्शों के अनुकूल गति-विधियाँ स्वाभाविक रूप से अपनाने लगे। सत्कर्मों के पुण्यफल से ही तो सुख शान्ति की प्राप्ति होती है और सत्कर्म तभी होने लगते हैं जब कि मन में सद्गुणों का निवास हो जाय। इसलिये शास्त्रों में सद्विचारों और सद्गुणों को ही समस्त सुख-शान्ति का मूल बतलाया है और उनके निरन्तर अभ्यास तथा वृद्धि पर अत्यधिक जोर दिया है।

सत्कर्मों को अभ्यास में लाते हुए मनुष्य अपने सद्गुणों को बढ़ाये और सद्भावनाओं की दैवी सम्पत्ति को संचित करता हुआ जीवन-लक्ष्य की पूर्ति में सफल हो, यही उद्देश्य युग-निर्माण योजना में सन्निहित है। उसके कार्यक्रमों में इस बात का ध्यान रखा गया है कि मनुष्य अपने स्वार्थ और संकीर्णता को कम करता हुआ परमार्थ समझने लगे। हमारा पतन तभी से आरम्भ हुआ जब से व्यक्तिगत स्वार्थ का भाव बढ़ने लगा। जब हर व्यक्ति अपने मतलब की बात ही सुनना और करना चाहता है तो स्वभावतः नीचे की ओर गिरने लगता है। उसके विचार और कार्य दिन-दिन अधिक घृणित और निकृष्ट होते जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों का समाज सदैव क्लेश और द्वेष की नारकीय भावनाओं में ग्रस्त रहता है और पीड़ा तथा कष्टों से कराहता रहता है। पिछले दिनों हमारा सबसे बड़ा दोष व्यक्तिवाद रहा है। उसी के कारण हम एक हजार वर्ष तक दूसरों के गुलाम बने रहे हैं। अब भी वह हमारे राष्ट्र और समाज की प्रगति में एक बड़ा रोड़ा सिद्ध हो रहा है।

जब तक स्वार्थपरता का दायरा कम नहीं होता तब तक व्यक्ति कितना ही योग्य और कार्यकुशल क्यों न हो वह समाज के लिये अभिशाप एवं संकट बन कर ही रहेगा। किसी समाज की उन्नति और सुख-शान्ति इसी बात पर निर्भर है कि उसके सदस्य-व्यक्तिगत लाभ को कम और समूहगत लाभ को अधिक महत्व दें। आध्यात्मिकता का लक्ष्य भी यही है। पर इस लक्ष्य के अनुसार लोगों को व्यवहार न करते देखकर साम्यवादी सिद्धान्त के अनुयाइयों ने बलपूर्वक मनुष्य को परमार्थी और संयमी बनने के लिये विवश किया है। रास्ता एक ही है, चाहे उसे आध्यात्मिक मार्ग पर चलते हुए आत्म सन्तोष, पुण्य एवं आन्तरिक लाभ उठाते हुए पूरा किया जाय अथवा डंडे के बल पर साम्यवादी व्यवस्था द्वारा रोते कलपते स्वीकार किया जाय। करना यही पड़ेगा। मनुष्य को स्वार्थ की संकीर्णता से ऊँचा उठकर परमार्थ की श्रेष्ठता को ही स्वीकार करना होगा। इस परिवर्तन के बिना एक भी उलझन सुलझेगी नहीं। इसलिये हमको यही प्रयत्न करना चाहिये कि मनुष्य का अन्तःकरण तृष्णा वासना की गन्दी कीचड़ से बाहर निकले और पुण्य-परमार्थ की मलय मारुत का रसास्वादन करते हुए अपने को धन्य बनावे।

युग-निर्माण योजना का निर्माण इन्हीं तथ्यों को दृष्टिगोचर रखकर किया गया है। उसमें प्रयत्न यह किया गया है कि मनुष्य (1) उपासना (2) आत्मशोधन और (3) परमार्थ के त्रिविधि कार्यक्रम को अपनाता हुआ आत्मकल्याण का लक्ष्य भी पूरा करे और संसार की सुख-शांति बढ़ाने में योगदान देता हुआ यशस्वी बने। अपनी क्षमता और रुचि के अनुसार हममें से प्रत्येक को निश्चय कर लेना चाहिये और उसे पूर्ण करते हुये तथा अपने सद्गुणों को बढ़ाते हुए प्रगति-मार्ग पर बढ़ना चाहिये। लोक कल्याण तो इस प्रकार होता ही रहेगा।

अपने से छोटों को भी ‘तू’ न कहकर तुम या आप कहा जाय तो उसकी प्रतिक्रिया स्वभावतः होगी ही। दूसरे भी वैसा ही कहने लगेंगे। बड़ों के चरण स्पर्श करने की पद्धति चल पड़े तो अनुशासनहीनता की भावना मिटकर गुरुजनों के प्रति श्रद्धा भावना स्वभावतः पनपेगी। एक व्यक्ति दूसरों का सम्मान करे तो उसे भी दूसरे व्यक्तियों से सम्मान प्राप्त होगा। परस्पर शिष्टाचार, सम्मान, सद्भाव और श्रद्धा को बढ़ाने का अभ्यास करते हुए हम सज्जनता और सौजन्य की ही वृद्धि करेंगे। इससे हमारा आन्तरिक स्तर ऊँचा उठेगा और संसार में सद्भावना की एक श्रेष्ठ परम्परा का विकास होगा।

परिवार-निर्माण का कार्यक्रम अपनाकर यदि हम रोज अपने घर वालों को सभ्यता और सज्जनता की शिक्षा देंगे तो स्वभावतः हमें भी वैसा ही बनना पड़ेगा। बाहर वालों के आगे लम्बी-चौड़ी बातें हाँकी जा सकती हैं, पर घर वालों को तो अपनी सारी बातें मालूम होती हैं, इसलिये उन्हें जो कुछ सिखाना हो उसे अपने जीवन में भी ढालना पड़ता है। अन्यथा उपहास ही होगा। परिवार के लोग अपनी दैनिक विचार गोष्ठी से लाभ न भी उठावें या उन पर थोड़ा-सा ही प्रभाव पड़े पर हमको तो उनके सामने अपना वैसा सुधरा हुआ रूप रखना ही पड़ेगा, जो एक शिक्षक के उपयुक्त हो। ऐसी दशा में अपना सुधार तो होगा ही।

दीवारों पर शिक्षाप्रद वाक्य लिखने से जहाँ अपनी कृति पर संतोष होता है वहाँ वे विचार मन में गूँजते भी रहते हैं। उन विचारों के प्रति अपना आकर्षण और झुकाव बढ़ता है और फलस्वरूप एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव हमें वैसा ही बनने या ढलने के लिये विवश करने लगता है।

‘एक से दस योजना’ के अनुसार जिन दस व्यक्तियों तक युग-निर्माण योजना की उत्कृष्ट विचारधारा पहुँचाने का उत्तरदायित्व हम अपने ऊपर लेंगे उनकी दृष्टि में अपना स्वरूप निश्चय ही एक परमार्थी और लोकसेवक का होगा। जो परामर्श बार-बार उन्हें देते रहेंगे उस पर स्वयं भी अमल करना होगा। इस प्रकार एक प्रकार की लोक-लाज के बंधन बँधेंगे और विवश होकर अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिये वैसा ही बनना पड़ेगा जैसा कि दूसरों से बार-बार कहते हैं। किसी से सम्बन्ध न रखने वाला कुछ भी करता रह सकता है, पर धर्म-प्रचारक का रूप, चाहे 10 व्यक्तियों तक ही सीमित क्यों न हो, जब बन गया तो एक ऐसी लोक-लाज सम्मुख आ जाती है जो कुमार्ग पर जाने से बलपूर्वक रोके रखती है और दूसरों की अपेक्षा अपने को अधिक आदर्शवादी रहने की प्रेरणा करती है। संजीवन-विद्या की शिक्षा दूसरों को देने का साहस करने वाला व्यक्ति क्या उन आदर्शों से अपने आपको अछूता रख सकता है? मेंहदी पीसने वाले के हाथ जिस प्रकार अपने आप ही लाल हो जाते हैं उसी प्रकार सद्ज्ञान प्रचार का थोड़ा-सा भी कार्य अपने हाथ में लेने से उसका लाभ अपने को तो मिलेगा ही।

अपनी निश्चित आजीविका में से एक निश्चित अंश ज्ञान-दान के लिये लगाते रहने से उस पैसे से समीपवर्ती क्षेत्र में पाठशालाएं, पुस्तकालय, नवयुग केन्द्र, प्रचार-सामग्री वितरण, शिविर-सम्मेलन आदि की व्यवस्था में उसे लगाया जाय तो दूसरे लोग सच्चे अध्यात्म का-जीवन विद्या का-प्रकाश प्राप्त कर सकेंगे और उसका पुण्यफल भी हमको प्राप्त होगा। दान के माध्यम से सेवा और सेवा कार्यों में दान का उपयोग नित्य ही होते रहने से यह स्वर्ण-सुयोग अपनी आत्मा को निरन्तर परोपकारी बनाये रखने में सहायक होगा। ऐसे कार्यों में धन और समय दोनों का सम्मिलित प्रयोग होता रहे, तो मनुष्य की परमार्थ भावनाएँ धीरे-धीरे अवश्य विकसित होंगी। जिन व्यक्तियों के परिवार की जिम्मेदारी उनके पुत्र और अन्य घर के लोग उठाने लग गये हैं वे वानप्रस्थ के समान घर से अवकाश लेकर उपासना और सेवा कार्यों में अधिकाधिक समय लगाते हुये गृहस्थ में रहकर भी संन्यास का सा सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।

सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन में जो अविवेकी जनता से टक्कर लेनी पड़ती है उससे अपना आत्मबल और साहस बढ़ता है। अनीति और अविवेक का प्रतिकार करने में जो कष्ट उठाना पड़ता है-उपहास, तिरस्कार, विरोध, आक्रमण, प्रतिशोध सहना पड़ता है उससे सत्यनिष्ठ व्यक्ति का धैर्य, शौर्य, तेज, ओज और आत्मबल निरंतर बढ़ता है।

दहेज, मृत्युभोज, पशु-बलि, बाल-विवाह, अनमेल विवाह, कन्या विक्रय, नशेबाजी, माँसाहार, भिक्षा-व्यवसाय, छूतछात, पर्दा, जेवरों में धन की बरबादी, भूत-पलीत की पूजा, अन्न की जूठन छोड़ना, अश्लीलता, जुआ, सट्टा आदि अनेकों सामाजिक कुरीतियाँ हमारे यहाँ प्रचलित हैं, उनको हटाकर स्वस्थ परम्परायें स्थापित करने में रूढ़िवादियों के साथ पग-पग पर टकराना पड़ सकता है। यह भी संभव है कि इस टकराव में अपने को क्षति उठानी पड़े। धर्म के लिये कष्ट उठाने का अवसर आने से मनुष्य के शौर्य और साहस की परीक्षा होती है, और उसका चरित्र उज्ज्वल बनता है।

वृक्ष, वनस्पति, शाक-भाजी, फल-फूल, जड़ी-बूटी की हरियाली लगाने से नेत्रों की शीलता और रोशनी बढ़ती है। ऑक्सीजन अधिक उत्पन्न होने से आरोग्य लाभ होता है। सात्विक खाद्य द्वारा सात्विक बुद्धि भी उत्पन्न होती है। सुगंध से मस्तिष्क को बल मिलता है। देश में अन्न की जो कमी पड़ रही है उसकी कुछ पूर्ति शाकों के उत्पादन से हो सकती है। जड़ी-बूटियों की कृषि होने लगे तो आयुर्वेद का खोया हुआ गौरव पुनः स्थापित होने लगे। आज कल जो सड़ी, गली, नकली, जड़ी-बूटियाँ बाजार में मिलती हैं उनका प्रभाव भी वैसा ही नाम मात्र का होता है। तुलसी का उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगे और घर-घर में उसकी पूजा करने का नियम हो जाय तो भी आरोग्य और सात्विकता की बहुत वृद्धि हो। जहाँ वृक्ष अधिक होते हैं वहाँ वर्षा भी अधिक होने का प्रतिपादन वैज्ञानिकों ने किया है। पशु पालन के लिये भी हरियाली की वृद्धि आवश्यक है। भवन निर्माण, जलावन, फर्नीचर आदि सभी कार्यों में लकड़ी चाहिये। पशुओं की भाँति वृक्ष भी हमारा बहुत उपकार करते हैं, इसलिये उनका उत्पादन और वृद्धि करने के लिये भी युग-निर्माण योजना में विशेष रूप से बल दिया गया है। इस कार्यक्रम को अपनाने की जिनकी स्थिति हो वे सचमुच पुण्य प्राप्ति के साथ-साथ समाज की बड़ी सेवा भी कर सकते हैं। जिनके पास कृषि योग्य भूमि है उन्हें तो इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिये। गाँवों में शाक-भाजी की भारी कमी देखी जाती है उसका कारण हमारी उपेक्षा बुद्धि हो है। भारत भूमि को हरी-भरी शस्य-श्यामला बनाने के लिये हमें इस पुण्य कार्य के लिये अवश्य अपनी स्थिति के अनुसार प्रयत्न करना चाहिये।

गौ, भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिये मेरुदण्ड के समान है। गोबर की खाद और बैल की शक्ति के बिना इस गरीब देश का काम ट्रैक्टरों और रासायनिक खाद से पूरा नहीं हो सकता। दूध के आवश्यक गुण गौ-दुग्ध में ही होते हैं। संसार भर में इसे ही उपयोगी माना गया है और हर जगह दूध के लिये गाय ही पाली जाती है। भैंस के दूध में घी भले ही ज्यादा हो पर गुण की दृष्टि से वह बहुत ही गया-बीता है। धर्म कार्यों में भी गौघृत का ही विधान है। हमारा दुर्भाग्य है कि गौ-वंश का स्तर भी गिरता जा रहा है और उसकी हत्या भी तीव्र गति से हो रही है। हमें गौ-पालन और गौ-संरक्षण के लिये ठोस कदम उठाने चाहिये, जिससे कृषि और दूध की समस्या का हल निकल सके। गाय में जो आध्यात्मिक सूक्ष्म विशेषताएँ हैं वे हमारे भावना स्तर एवं अन्तःकरण को सन्मार्ग पर प्रेरित करने में बड़ी सहायक होती हैं। भगवान कृष्ण ने गोपाल बनकर, गोवर्द्धन का कार्यक्रम ऊँचा उठाकर संसार का भारी उपकार किया था। इस उपकारी कार्यक्रम में हमें भी शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिये।

मनुष्य के सोलह संस्कार यदि ठीक प्रकार मनाये जा सकें तो उसके अन्तःकरण में श्रेष्ठता की ओर अग्रसर करने वाली छाप पड़ेगी। पर्व-त्यौहारों को मिल-जुलकर मनाया जा सके तो उससे सामाजिक जीवन को श्रेष्ठ बनाने की प्रेरणा मिलेगी। जन्मदिन मनाने से मनुष्य गौरव और सम्मान का अनुभव करता है और शेष जीवन का सदुपयोग करने की प्रेरणा मिलती है। इन समारोहों को धार्मिक कर्मकाण्ड के साथ किया जाय और साथ ही सद्-विचार, प्रेरणा, जीवन-विद्या, धर्म, नीति आदि को भी माध्यम बनाया जाय तो सर्व साधारण में श्रेष्ठ भावनाओं की वृद्धि करने में काफी सहायता मिल सकती हैं।

मंदिर, मठों का सदुपयोग होने लगे तो वे साँस्कृतिक पुनरुत्थान, युग-परिवर्तन और समाज की नव रचना के महत्वपूर्ण केन्द्र बन सकते हैं। गायत्री-मंत्र लेखन संग्रह करके नये युग-निर्माण-मन्दिर स्थापित किये जा सकते हैं। जहाँ अपनी विचारधारा के दस-पाँच व्यक्ति भी हों, वहाँ वे मिल-जुलकर ‘युग-निर्माण मित्र-मण्डल’ चला सकते हैं और उसके द्वारा उस क्षेत्र में प्रेरणा और प्रकाश प्रदान करने का बहुत काम हो सकता है। नव रात्रि में 8 दिन के शिक्षण शिविर चलाये जा सकते हैं। उनमें व्यवहारिक जीवन को आध्यात्मवादी बनाने का प्रशिक्षण दिया जाया करे तो बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति के लिये पृष्ठभूमि तैयार हो सकती है।

साहित्यकार नवयुग के अनुरूप धर्म और व्यवहार का समन्वय सिखाने वाला साहित्य लिखें। प्रकाशक इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये छापने और बेचने की व्यवस्था करे, चित्रकार ऐसे ही सद्प्रेरणाप्रद चित्र बनावे, कवि और गायक अपनी कला द्वारा जन साधारण में आदर्शवाद और कर्तव्य-परायणता की उमंगे उठावे, अभिनेता ऐसे श्रेष्ठ और मनोरंजक साधन प्रस्तुत करें जो जन-मानस को ऊँचा उठावे। इसी प्रकार व्यापारी अपना व्यापार ऐसी सच्चाई और जन हित की भावना से करें कि उससे जनता का स्तर ऊँचा हो सके। ऐसे प्रेस हर शहर में होने चाहिये जो युग-निर्माण कार्यक्रम के केन्द्र रहें और इसी विषय का साहित्य प्रकाशित करते रहें। सदियों की गुलामी के बाद जगी हुई भारतीय जनता की बौद्धिक भूख को बुझाने के लिये ज्ञान-उपकरणों की बड़ी मात्रा में आवश्यकता है। विज्ञ जनों को इसकी पूर्ति के लिये तत्पर होना चाहिये।

अध्यापक और चिकित्सक इस सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं। उनके पास जो रोगी आते हैं उन्हें वे औषधि के साथ-साथ पथ्य-रूप में उपासना, आत्म शोधन और सेवा कार्य करते रहने की भी शिक्षा दे सकते हैं। यह उनके पूर्व कर्मों का निराकरण करने वाला एक प्रायश्चित होगा, जिससे आगामी जीवन सुखी बन सकेगा। अध्यापक अपने छात्रों को शिक्षा के साथ-साथ चारित्रिक और नैतिक शिक्षा भी दे सकते हैं। बच्चों के अभिभावकों से भी उनका कुछ न कुछ संपर्क और प्रभाव भी रहता है। इस परिचय के आधार पर वे अभिभावकों को भी यह प्रेरणा दे सकते हैं कि बच्चों को सुधारने की दृष्टि वे स्वयं भी अपनी प्रवृत्तियों में सुधार करें। बड़े अधिकारी अपने छोटे मातहतों को, पुरोहित अपने यजमानों को, दुकानदार अपने ग्राहकों को, मालिक मजदूरों को अपने परिचय और प्रभाव का उपयोग करके सुधारने का प्रयत्न करते रहें तो इससे बहुत लाभ हो सकता है। इससे उनके दोष घटेंगे, और सद्गुणों का विकास होगा।

जैसे पीछे बतलाया जा चुका है युग-निर्माण योजना तीन भागों में विभक्त है-उपासना आत्मशोधन और सेवा। इनमें से गायत्री उपासना की शिक्षा आचार्य जी पिछले पन्द्रह वर्षों से देते आ रहे हैं। गत दो वर्षों से उसकी उच्चस्तरीय शिक्षा भी पंचकोशी साधना के रूप में चल रही है। योजना में सर्व साधारण के लिये सामान्य उपासना क्रम बतलाया गया है। इसे कार्यक्रम का एक अनिवार्य अंग मानना चाहिये। विशेष उपासना की विधि ‘गायत्री महा विज्ञान’ में मौजूद है और उसकी शिक्षा भी अधिकार भेद से दी जा रही है। शेष आत्मशोधन और सेवा कार्यों से अधिकाँश कार्यक्रम सम्बन्धित हैं। आत्म-कल्याण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये इन तीनों को ही पूर्ण करना पड़ता है। मुझे जान पड़ता हैं कि समाज की स्थिति को सुधारने और व्यक्ति को अपना जीवन लक्ष्यपूर्ण करने के लिये एक सन्तुलित और समन्वयपूर्ण कार्यक्रम युग-निर्माण-योजना के रूप में जनता के सामने रखा गया है, जिसके लिये निर्माता हमारे धन्यवाद के पात्र हैं।


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