शिक्षा-प्रसार का महत्वपूर्ण आन्दोलन

August 1963

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(श्री गौरीशंकर वाजपेयी)

शिक्षा को मनुष्य का ज्ञान-नेत्र कहा गया है। इन दो चर्म-नेत्रों से हम अपने आस-पास की वस्तुओं को देखते हैं, पर शिक्षा के माध्यम से समस्त संसार को देख और समझ सकते हैं। ज्ञान और विज्ञान का अक्षय भंडार पुस्तकों में भरा पड़ा है। महापुरुषों ने अपनी विद्या का सार निकाल कर पुस्तकों में सुरक्षित रख दिया है। शिक्षित व्यक्ति वह सब जानकारी आसानी से घर बैठे प्राप्त कर सकते हैं। संसार भर की गति-विधियों, रीति-नीतियों, विचार-धाराओं, ऐतिहासिक अनुभवों की जानकारी प्राप्त करने के लिये बहुमूल्य सामग्री पुस्तकों में मौजूद है। मानव जीवन की महत्ता, स्थिति उद्देश्य, समस्या और ठीक तरह जी सकने की कला सीखने के लिये भी हमें सत्साहित्य का सहारा लेना पड़ता हैं। जो शिक्षित नहीं उसके लिये ये सारे द्वार बन्द ही समझने चाहिये।

अशिक्षित को एक प्रकार से अंधा ही माना गया है, क्योंकि वह पशु-पक्षियों की तरह आँखों के आगे आने वाले पदार्थों को ही देख सकता है। अनुभूतियों और संवेदनाओं का रसास्वादन करने वाली कोमल वृत्तियाँ जो संगीत, साहित्य, कला के माध्यम से विकसित होती हैं, उस बेचारे के लिये दुर्लभ ही बनी रहती हैं। संसार के इतिहास को समझने और उसकी घटनाओं से शिक्षा ग्रहण करने में वह व्यक्ति कैसे समर्थ हो सकता है जो पढ़ना ही नहीं जानता? जहाँ वह रहता है वहाँ की स्थिति और समस्याएँ ही उसे सारी दुनिया प्रतीत होती हैं। उसे क्या पता कि हमारी स्थिति से सर्वथा भिन्न रीति-नीति अपनाये हुये व्यक्ति भी इस संसार में रहते हैं। तुलनात्मक अध्ययन किये बिना कोई कैसे जान सकता है कि हमारी गति विधियाँ ठीक हैं या उनमें सुधार की आवश्यकता है?

जो व्यक्ति कभी समाचार पत्रों को हाथ नहीं लगाता, उसे क्या मालूम कि दुनिया कितनी बड़ी है और उसमें प्रतिदिन कैसी-कैसी घटनायें हो रही हैं? संसार में उथल-पुथल मचा देने वाली और मौजूदा परिस्थिति में घोर उलट फेर करने वाली प्रचंड विचारधाराओं का रहस्य अशिक्षित व्यक्ति को कैसे विदित हो सकता है? चाहे इन्हीं क्रान्तिकारी परिवर्तनों के कारण उसका जीवन-क्रम सर्वथा बदल रहा हो तो भी वह उनके स्वरूप और परिणाम से अनजान ही बना रहता है। सभ्यतापूर्वक बैठना-उठना, पहनना-ओढ़ना, बोलना-चालना भी अब शिक्षा पर ही निर्भर हैं। आजीविका कमाने में अब शिक्षा भी पूँजी की ही तरह आवश्यक बन गई है। हिसाब रखने पत्र व्यवहार करने, सरकारी टैक्सों का उचित भुगतान करने आदि में शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। जो लोग नौकरी से गुजारा करते हैं उनके लिये तो शिक्षा एक प्रकार से अनिवार्य ही है। बिना पढ़े व्यक्ति को कठिन शारीरिक श्रम करने पर भी बहुत थोड़े पैसे मिलते हैं जब कि शिक्षित व्यक्ति कम समय में और कम श्रम में अधिक कमा सकता है।

यों शिक्षा की आवश्यकता सदा से रही है, पर अब तो उसके बिना काम चल सकना ही कठिन हो गया है। अपनी गिनती सभ्य लोगों में कराने के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य शिक्षा प्राप्त करे। अशिक्षा को मनुष्यता का कलंक और राष्ट्र का दुर्भाग्य ही कहना चाहिये। जो देश शिक्षा की दृष्टि से जितना पिछड़ा हुआ होगा वह उतना ही गिरा हुआ माना जायगा। इसलिये समझदार नेता और दूरदर्शी समाज-संचालक इस बात के लिये प्राणपण से चेष्टा करते रहते हैं कि उनका राष्ट्र जितना जल्दी संभव हो सके अशिक्षा रूप अभिशाप के पंजे से छुटकारा पा जाय। इस कार्य में जितनी देर लगती है प्रगति के कार्य में उतनी ही बाधा पड़ती रहती है।

संसार के सभी उन्नतिशील देशों ने सब से अधिक ध्यान और सबसे अधिक महत्व अपनी शिक्षा समस्या को दिया है और उसको हल करने में उन्होंने हर संभव उपाय से काम लिया है। प्रगति पथ तभी प्रशस्त हुआ है जब कि शिक्षा का विकास किया गया है। छोटे बच्चों का शिक्षण स्कूलों में हो सकता है पर जब तक वे पढ़ लिखकर योग्य बनेंगे और देश के रचनात्मक कार्यों में सहयोग देने लायक हो सकेंगे तब तक राष्ट्र के विकास कार्यों को स्थगित नहीं रखा जा सकता। इसलिये जिस देश में अशिक्षितों की संख्या अधिक हो वहाँ प्रौढ़ शिक्षा पर सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता होती है। हमारी सरकार ने इस दिशा में जो प्रयत्न किया है उसे अपर्याप्त और असंतोषजनक ही कहा जा सकता है। उत्तर-प्रदेश में बच्चों को स्कूलों में जगह मिल सकना ही एक समस्या बना हुआ है। जब उन्हीं के लिये पूरी व्यवस्था नहीं है तो बेचारे प्रौढ़ों की खबर कौन लें? आर्थिक तंगी, विभागीय कर्मचारियों का प्रमाद, जनता की उपेक्षा आदि कितनी ही बाधायें ऐसी हैं, जिनके कारण प्रौढ़-शिक्षा का प्रबन्ध किया जा सकना संभव नहीं हो रहा है। सरकार कुछ सोचती और करती भी है तो उसका उचित परिणाम निकलने में अनेकों बाधायें उपस्थित हो जाती हैं।

हमारे देश में शिक्षित व्यक्तियों की संख्या 23 प्रतिशत बताई गई है। सौ में से 77 व्यक्ति निरक्षर ही हैं। यदि हमको अपने देश को शीघ्र प्रगति करनी हो तो उसके लिये प्रौढ़-शिक्षा की समस्या का शीघ्र हल करना भी अनिवार्य है। वयस्क स्त्री-पुरुषों को साक्षर बनाने के लिये एक व्यापक आन्दोलन चलाया जाना आवश्यक है और जब तक यह समस्या हल न हो तब तक निरन्तर प्रयत्न करते रहना हम सबका परम कर्तव्य है।

क्यूबा में प्रौढ़ शिक्षा की समस्या को इस प्रकार हल किया गया था कि वहाँ प्रत्येक शिक्षित को देशभक्ति का प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिये कहा गया और उसके लिये यह शर्त रखी गई कि वह सेवा भावना से कम से कम 5 प्रतिशत व्यक्तियों को शिक्षित बना कर दिखावे। जिनके पास इस प्रकार देशभक्ति के प्रमाणपत्र नहीं होते थे उनको राष्ट्रीय हित के प्रति उपेक्षा करने वाला समझा जाता था और सरकार से मिलने वाली सुविधाओं से उनको वंचित रहना पड़ता था। चुनाव में खड़े होने वालों को ऐसे प्रमाणपत्र आवश्यक रूप से प्रस्तुत करने पड़ते हैं। इसी प्रकार सरकारी ऋण, अनुदान या विशेष प्रोत्साहन प्राप्त करने के लिये इन प्रमाणपत्रों को प्राथमिकता दी जाती है। इन लाभों के कारण वहाँ कि शिक्षितों ने उत्साहपूर्वक शिक्षा-प्रसार के कार्य को अपनाया और 4-5 वर्ष के भीतर अशिक्षा का पूरी तरह उन्मूलन हो गया। उपयुक्त आयु का एक भी व्यक्ति निरक्षर न बचा। हमारी सरकार भी इस प्रकार का कोई कदम उठा कर इस समस्या को बहुत कुछ हल कर सकती है।

सरकार क्या करेगी और कब करेगी, इसकी प्रतीक्षा न करके यदि सेवाभावी संस्थाएँ और व्यक्ति भी इस समस्या को हल करने के लिये उठ खड़े हों तो बहुत काम हो सकता है। हमारे देश में धर्म के नाम पर धन और समय पर्याप्त मात्रा में व्यय किया जाता है। कथा, ब्रह्मभोज, तीर्थ यात्रा, देवाराधन के लिये अरबों रुपया खर्च होता रहता है। 56 लाख व्यक्ति तो साधुओं के रूप में धर्म-कार्य के व्रतधारी माने ही जाते हैं। फिर ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो अपनी आजीविका कमाने के साथ-साथ धर्म-कार्यों में काफी समय लगाते हैं। यदि इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों को एक करोड़ भी मान लिया जाय और उनमें से एक चौथाई भी ऐसे निकल सकें जो साक्षरता प्रचार का कार्य करने योग्य हों तो 25-30 लाख व्यक्ति तो इस कार्य के लिये धार्मिक क्षेत्र में से ही मिल सकते हैं। यदि ये लोग इस बात का अनुभव कर सकें कि विद्या-दान भी धर्म का एक बहुत बड़ा अंग है और उसके लिये नियमित रूप से समय देने लग जाये तो यह एक बहुत बड़ा काम हो सकता है। यदि प्रत्येक व्यक्ति एक वर्ष में दस व्यक्तियों को साक्षर बनाने की प्रतिज्ञा ले तो 25 लाख व्यक्ति प्रति वर्ष ढाई करोड़ व्यक्तियों को साक्षर बना सकते हैं।

यह तो केवल धर्म-क्षेत्र के व्यक्तियों की बात हुई। अब सरकारी कार्यों में, शिक्षा संस्थाओं में सामाजिक सेवा कार्यों में लगे हुये व्यक्ति भी यदि इस ओर ध्यान देने लगे तो करीब इतने ही व्यक्ति और भी निकल सकते हैं और इस प्रकार प्रति वर्ष पाँच करोड़ व्यक्तियों को साक्षर बनाने का कार्य हो सकता है। इस गति से चलते हुये 5-6 वर्षों में निरक्षरता उन्मूलन का लक्ष्य पूरी तरह सहज में ही प्राप्त किया जा सकता है।

यों देखने में यह कार्य बहुत बड़ा मालूम पड़ता और कठिन भी। पर वास्तव में बात ऐसी नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कुछ न कुछ त्याग, उदारता, पुण्य, परमार्थ के भाव रहते ही है। जब उनको जागृत कर दिया जाता है तो मनुष्य बड़े से बड़े त्याग और बलिदान का परिचय देने में नहीं चूकता। यदि जन-मानस की कोमल भावनाओं को जागृत करने के लिये व्यापक ज्ञान-यज्ञ आरम्भ किया जाय तो विश्वास है कि वह प्रयत्न निरर्थक नहीं जायगा। आचार्यजी ने सन् 1958 में एक हजार कुण्डों का गायत्री महायज्ञ मथुरा में किया था। उसमें प्रायः 5 लाख व्यक्ति भारत के कोने-कोने से पहुँचे थे। इनमें से प्रत्येक व्यक्ति के किराये-भाड़े तथा काम हर्ज करके यात्रा करने में औसत हिसाब से 40-50 रुपया अवश्य खर्च हुआ होगा। भावनाओं के जागृति करने से ही इतना समय और धन खर्च कर सकना लोगों के लिये सम्भव हुआ। यदि वे भावनाएं शिक्षा-प्रसार की दशा में जागृत कर हो जायँ और आचार्य जी के यज्ञ में आने वाले वे लाख व्यक्ति ही प्रौढ़ शिक्षा में लग पड़े तो इतना बड़ा काम हो सकता है कि लोग आश्चर्य चकित वह जावें और अन्य संस्थायें भी इसी का अनुकरण करने लगें।

जून की ‘अखण्ड-’ में जो योजना सम्बन्धी कार्यक्रम छपा है उसे मैंने ध्यानपूर्वक पढ़ा है। वैसे ही उसमें जितने कार्यक्रम बतलाये गये हैं सभी महत्वपूर्ण हैं पर मुझे सबसे अधिक सामयिक और उपयोगी प्रौढ़ शिक्षा वाला आन्दोलन ही जान पड़ा। प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति अपना ‘ज्ञान-ऋण’ चुकाने के लिये कुछ समय और कुछ धन नियमित रूप से खर्च करने लगे तो घर-घर में, मुहल्ले-मुहल्ले प्रौढ़-पाठशालाएं चल सकती हैं। पुरुष, पुरुषों को पढ़ायें और महिला, महिलाओं को। इस प्रकार हट शिक्षित के लिये एक धर्मभावना युक्त श्रेष्ठ पुण्य परमार्थ और देशभक्ति से पूर्ण मनोरंजक कार्यक्रम मिल सकता हैं। जो शिक्षित स्वयं न करना चाहें, वे ज्ञान-ऋण चुकाने के लिये कुछ धन हर महीने देने लगें तो ऐसे कुछ व्यक्तियों के सम्मिलित रुपयों से अध्यापकों को नौकर रखकर भी यह कार्य किया जा सकता है। अन्य कार्यों में लगे रहने वाले व्यक्तियों की ज्ञान-वृद्धि के लिये ऐसी रात्रि पाठशालाओं की भी भारी आवश्यकता है जिनके माध्यम से लोग अपनी विद्या और योग्यता को निरन्तर बढ़ाते चलें। स्कूलों में बालक जितनी शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं उतनी ही पर्याप्त नहीं समझी नहीं चाहिये। काम से लग जाने के बाद भी शिक्षा का क्रम जारी रह सके, इसके लिये विभिन्न प्रकार का रात्रि पाठशालाएं खोली जाने आवश्यक हैं। जहाँ जैसी आवश्यकता हो वहाँ वैसे प्रयत्न आरम्भ किये जानी चाहिये और शिक्षा का स्तर बढ़ता ही रहना चाहिये। देश जितना सुशिक्षित और सुसंस्कृत होगा उतना ही उसका गौरव बढ़ता जायगा।


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