महान अतीत को वापिस लाने का पुण्य-प्रयत्न

August 1963

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(श्री सोमाभाई डाह्याभाई पंड्या)

तवर्षडडडडडड की सबसे विशेषता और महत्ता उसका आध्यात्मवादी दृष्टिकोण है। अतीत काल से अब तक हमारे देश का गौरव इसी आधार पर प्रकाशवान रहा है। एक समय था जब यहाँ के निवासी तैंतीस कोटि देवताओं के नाम से पुकारे जाते थे, ज्ञान और विज्ञान की दृष्टि से उन्हें जगद्गुरु की पदवी प्राप्त हुई थी। व्यवस्था दूरदर्शिता और प्रतिभा का स्तर अत्यन्त ऊँचा होने के कारण चक्रवर्ती शासन का गुरुतर भार उन्हीं के कंधों पर डाला जाता था। धन, विद्या, चरित्र सब दृष्टियों से यह देश नररत्नों की खान माना जाता था। इस सब का कारण यहाँ की आध्यात्मिक विशेषता ही थी।

अध्यात्म-तत्वज्ञान को पारस माना गया है, क्योंकि उसका स्पर्श होते ही लोहे के समान तुच्छ श्रेणी के व्यक्तित्व भी सोने के समान बहुमूल्य और आकर्षक बन जाते हैं। अध्यात्म को कल्पवृक्ष कहा गया है क्योंकि उस दृष्टिकोण के प्राप्त होते ही मनुष्य आप्तकाम बन जाता है। अनावश्यक तृष्णाओं को वह मस्तिष्क में से कूड़े-कचरे की तरह बुहार कर बाहर फेंक देता है और जो कामनाएं आवश्यक होती हैं उन्हें तत्परता, पुरुषार्थ और लगन के साथ पूरा करने में जुट जाता है। इस प्रकार कार्य-संलग्न हुये व्यक्ति के लिये असफलता नाम की कोई वस्तु बाकी नहीं रहती। आलस्य और प्रमाद ही असफलता के जनक हैं, इन दो शत्रुओं को परास्त कर देने के बाद मनुष्य को आप्त-काम होने में देर नहीं लगती। उसकी कोई कामना अधूरी नहीं रहती।

अध्यात्म का आधार संयम है और संयमी मनुष्य के लिये शारीरिक अस्वास्थ्य का प्रश्न ही नहीं उठता। अध्यात्म का मूल मंत्र प्रेम है। जो दूसरों के साथ आत्मीयता, उदारता, सेवा, सहिष्णुता और मधुरता का व्यवहार करेगा उसके लिये दूसरों का सहयोग, सद्भाव एवं सौजन्य मिलेगा ही। सर्वत्र उसे स्नेही और सज्जन ही भरे हुये मिलेंगे। अध्यात्म तत्वज्ञान आत्म-शोधन पर अवलम्बित है। जो अपने दोष और त्रुटियों को समझ लेगा और उन्हें सुधारने के लिये सचेष्ट रहेगा उस व्यक्ति के सामने न तो कोई समस्या रहेगी और न उलझन। जब मनुष्य अपने ही दोष, दुर्गुण, कुविचार, कुसंस्कारों को रंगीन चश्मे की तरह आँख पर धारण किये रहता है तो सर्वत्र उसे नरक दिखाई पड़ता है। पर जब वह अपने को सुधारने और बदलने के लिये प्रयत्नशील होता है तो बाहरी समस्याएँ और परिस्थितियाँ अपने आप ही सरल हो जाती हैं। इस प्रकार आध्यात्मिक विचारधारा मनुष्य को स्वर्गीय जीवन की आनन्दमय अनुभूति कराती रहती है और अंततः आत्मा-परमात्मा को प्राप्त करने का लक्ष्य भी उसी मार्ग पर चलते हुये प्राप्त हो जाता है।

जीवन का प्रत्येक क्षेत्र जिसके प्रकाश से दिव्य हो उठता है, उसे अध्यात्म की शिक्षा प्राप्त करने के लिये संसार के कोने-कोने से जिज्ञासु लोग यहाँ आते थे। नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा-दीक्षा के महान केन्द्र बने हुये थे। वहाँ प्रत्येक लौकिक विषय का शिक्षण होता था, पर दीक्षा का आधार अध्यात्म ही रहता था। उनमें शिक्षा प्राप्त करके निकलने वाले प्रत्येक छात्र का जीवन अध्यात्मवादी दृष्टिकोण में ढला रहता था। वे छात्र जहाँ कहीं भी जाते थे अपने उज्ज्वल चरित्र और सफल जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करके अध्यात्म की विजय पताका फहराते थे। जब तक वह परम्परा यथावत चलती रही तब तक भारत संसार का प्रत्येक क्षेत्र में नेतृत्व भी करता रहा और सुख-शान्ति की अजस्र धारा यहाँ निर्बाध गति से बहती रही।

भारत की महान आध्यात्मिक सम्पदा आज भी शास्त्रों और ग्रन्थों में ज्यों की त्यों मौजूद है। वैसे हम आज भी अध्यात्मवादी कहलाते हैं पर असलियत कुछ और ही हो गई है। जिस प्रकार असली के स्थान पर हर चीज नकली चल पड़ी है, वही दशा अध्यात्म की भी हुई है। जो तत्वज्ञान मनुष्य की आन्तरिक दुर्बलताओं को हटाने और महानताओं को जागृत करने का प्रधान साधन था, वही अब लोगों को आलसी, कर्तव्यशून्य और दीन-दुर्बल बनाने का निमित्त बना हुआ है। स्वार्थी लोगों ने भोली जनता को अज्ञान में फंसाये रखने और ठगते रहने का जो कुचक्र चलाया आज उसी को अध्यात्म समझा जाता है। गुरु लोग उसी के आधार पर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं और भोले भाले अविवेकी लोग उसी टंट-घंट को सब कुछ मानकर स्वर्ग और मुक्ति के सपने देखते रहते हैं।

वर्तमान समय में प्रचलित आध्यात्मिक सिद्धान्त बड़े विचित्र हैं। उनके अनुसार ‘संसार मिथ्या है, इसके लिये किसी से मोह-माया न रख कर केवल भजन करते रहना चाहिये।’ ‘जो भाग्य में लिखा है वही होगा, मनुष्य उसे बदल नहीं सकता। इसलिये ज्यादा हाथ पैर पीटना व्यर्थ है।”देवताओं की प्रसन्नता अप्रसन्नता या सिद्ध महात्माओं के आशीर्वाद से उन्नति होती है, मनुष्य स्वयं कुछ नहीं कर सकता। लौकिक समस्याओं पर विचार करना माया में पड़ना है, जो कुछ हो रहा है सब भगवान की इच्छा है, उसकी इच्छा में हम क्यों बाधक बनें। अपनी मुक्ति की बात ही हमें सोचनी चाहिए, दुनिया से हमें क्या मतलब।’ ऐसी विचारधारा में फँसा हुआ व्यक्ति दिन पर दिन स्वार्थी और निराशा बनता जाता है। कर्तव्यों के प्रति उपेक्षा दिखलाता रहता है। ऐसे व्यक्ति हर क्षेत्र में असफल होते हैं।

देखा जाता है कि अध्यात्म की चर्चा करने वाले व्यक्तियों में से अधिकाँश को बहुत कुछ पूजा-पाठ करने पर भी-जीवन के हर क्षेत्र में असफलता मिलती है। कारण यही है कि ऐसे लोग अध्यात्म के सबसे प्रधान अंग जीवन-विकास की उपेक्षा किया करते हैं और केवल जप या पाठ को ही सब कुछ मान लेते हैं। ऐसा एकाँगी तत्वदर्शन किया एक व्यक्ति को कुछ शाँति या संतोष भले ही कर सके पर समस्त समाज को वह किसी भी रूप में स्पर्श नहीं कर सकता, और जब तक समाज का उत्थान न हो तब तक किसी एक व्यक्ति का स्थायी कल्याण हो सकना कैसे संभव हो सकता है? जिसमें गुण, कर्म स्वभाव के विकास का, जीवन की समस्याओं का ठीक प्रकार समाधान करने का विधान न पाया जाय वह तत्वज्ञान न उपयोगी सिद्ध हो सकता है और न प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है। प्राचीन काल में हमारी आध्यात्मिक विचारधारा मानव जीवन के हर पहलू को विकसित करने की क्षमता रखती थी, इसी से उसे अपनाने वाले भरपूर लाभान्वित हुये और जहाँ कहीं वे गये वहीं उनकी प्रशंसा और प्रतिष्ठा हुई।

पूजा, उपासना का आध्यात्मवाद में प्रमुख स्थान है, पर इसके साथ ही यह भी साधना का अनिवार्य अंग माना जाता है कि मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव को उत्कृष्ट और आदर्श बनावे। जीवन के हर क्षेत्र में आध्यात्मवाद का समावेश करे ऐसी जिन्दगी जिये जैसे कि मानव शरीर-धारी को जीनी चाहिए। पूजा को औषधि और जीवन विकास की परम्पराओं को पथ्य, परिचर्या माना गया है। औषधि तभी लाभ करेगी जब परहेज भी ठीक रखा जाय। चिकित्सक के बतलाये सारे नियमों का उल्लंघन करते रहने पर भी यदि कोई आशा करे कि औषधि सेवन मात्र से बीमारी दूर हो जाय तो यह उसकी गलती ही मानी जायगी। इसी प्रकार जीवन - विकास, समाज-कल्याण के सारे प्रयत्नों की उपेक्षा करके जो भजन मात्र से लक्ष्य की प्राप्ति चाहता है उसे भूला-भटका ही माना जायेगा। किसी धर्म ग्रंथ में यदि पूजा, भजन का वर्णन बढ़ा-चढ़ाकर अलंकारिक भाषा में लिख दिया गया है कि अमुक पूजा से सब कुछ प्राप्त हो जाता है, तो उसे मनुष्यों की श्रद्धा बढ़ाने के उद्देश्य से अलंकारिक उक्ति ही मानना चाहिये। सच्चे भक्त-जनों में भक्ति-भावना के साथ-साथ कर्तव्यपरायणता, परोपकार, उदारता आदि की प्रवृत्तियां भी पूर्ण मात्रा में होती हैं और इन्हीं के आधार पर उनको दैवी शक्तियाँ और जीवन की चरम सफलता प्राप्त होती है।

सच्चरित्रता, सदाचार, संयम, परमार्थ आदि गुणों पर आधार रखने वाला अध्यात्म ही सच्चा अध्यात्म कहा जा सकता है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव का शोधन और जीवन विकास के उच्च गुणों का अभ्यास करना ही साधना है। भगवान को घट-घटवासी और न्यायकारी मान कर पापों से हर घड़ी बचते रहना ही सच्ची भक्ति है। प्राणी मात्र के हित की दृष्टि से उदारता, सेवा सहानुभूति, मधुरता का व्यवहार करना ही परमार्थ का सार है। सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता, सौजन्य आदि गुणों के बिना कोई मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता। जो अपने समय, धन, श्रम, बुद्धि को अन्य लोगों की सेवा में जितना अधिक लगाता है वस्तुतः वह उतना ही बड़ा महात्मा माना जा सकता है। सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से जिसका जीवन जितना ओत-प्रोत है उसे उतना ही ईश्वर के निकट समझना चाहिए। सन्मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को स्वयमेव जो आत्मबल प्राप्त होता है वह किसी योगाभ्यासी की कठिन साधना से कम महत्वपूर्ण नहीं होता। वास्तविक अध्यात्म का स्वरूप यही है और इसी को जीवन में धारण करने वाला व्यक्ति अपना कल्याण करने के साथ दूसरे अनेकों को प्रकाश प्रदान करके उन्हें भी ऊंचा उठाने में सहायक बनता है।

इस समय इस बात की सबसे अधिक आवश्यकता है कि देशवासियों को अध्यात्म का सच्चा स्वरूप बतलाया जाय। उसका महत्व समझाया जाय और लोगों की विचार धारा को उस तरफ मोड़ा जाय। इस महान तत्व को केवल कथावार्ता का विषय न समझ कर जन-जीवन में व्यवहारिक रूप से उसका समावेश होना परमावश्यक है। मनुष्य का अन्तःकरण बदलते ही उसकी दुनिया भी बदल जाती है। जब संसार की परिस्थितियाँ जैसी विकृत हो उठी हैं उनका परिवर्तन होना अनिवार्य है अन्यथा हम दिन प्रति दिन पतन और कष्ट के खड्डे में ही गिरते जायेंगे। यह परिवर्तन बाहरी हेरफेर से संभव नहीं हो सकता वरन् उसके लिये मनुष्य की अन्तः चेतना को ही प्रभावित किया जाना चाहिये। इस प्रकार के बदलाव से ही हम सब रोग, शोक, क्लेश, कलह पाप-ताप, आधिव्याधि से छुटकारा पाने में समर्थ हो सकेंगे। इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय ऐसा नहीं है जिससे संसार भर में फैली अशान्ति मिटकर लोगों को सुख शान्ति का दर्शन हो सके।

युग-निर्माण योजना को मैंने अच्छी तरह पढ़ा और समझा है। उसकी पृष्ठ भूमि में जो रहस्यमय शक्तियाँ काम कर रही हैं उनका भी कुछ परिचय मुझे प्राप्त हो चुका है। इसलिये मुझे इस बात से बड़ी प्रसन्नता होती है कि जनता को सच्चे अर्थों में अध्यात्मवादी बनाने का एक ठोस प्रयत्न किया जा रहा है। इसके द्वारा मनुष्यों के अनेक कष्ट, संताप तो मिट ही सकेंगे, पर सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि भारत की महान निधि ‘अध्यात्म’ का सच्चा स्वरूप समझने और उसे अपने व्यवहारिक जीवन में स्थान देने का अलभ्य अवसर सर्व साधारण को प्राप्त हो सकेगा।

भारतवर्ष यदि अपनी समस्त कठिनाइयों को हल करके संसार का मार्गदर्शक बनना चाहे तो उसका एक मात्र आधार अध्यात्म ही है। इसी के द्वारा हमारा भूत काल महान बन सका था और इसी से भविष्य के उज्ज्वल बनने की आशा भी की जा सकती है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम व्यवहारिक अध्यात्म का स्वरूप सर्व साधारण को समझ सकें और उसके प्रत्यक्ष लाभों से लोगों को अवगत करा दें।

अशान्ति के दावानल में जलता हुआ समस्त संसार आज अध्यात्म के अमृत के लिये तरस रहा है। हमें आगे बढ़कर इसी महान तत्व ज्ञान का सच्चा स्वरूप प्रकट करने में अपनी शक्ति को लगाना है। युग-निर्माण योजना अध्यात्मवाद को जन-जन के जीवन में प्रविष्ट करने की व्यवहारिक विधि है। जितनी गहराई तक इसकी संभावनाओं पर विचार किया जाता है उतनी ही अधिक आशा बँधती है और लगता है कि यदि हम इस मार्ग पर दृढ़तापूर्वक चल सकें तो प्राचीन काल की तरह भारत पुनः ‘स्वर्ग’ कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकेगा और संसार के अन्य भागों के निवासी यहाँ से सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा प्राप्त करके इसे पुनः जगद्गुरु का सम्मान प्रदान करेंगे। खोये हुये अतीत को पुनः वापिस लाने का यह आध्यात्मिक प्रयत्न हमारे लिये आशा की किरण बनकर आया है और उसका हमें सादर अभिनन्दन करना चाहिये।


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