भगवान् इस संसार में केवल अपने को दान कर रहे हैं, अपने लिए वह कुछ भी नहीं लेते। हमारा आत्मा भी भगवान् के उसी स्वभाव को पाकर सत्य का लाभ करता है। वह भी संसार में भगवान के पास उनके सखा-रूप में खड़े होकर संसार के लिए उत्सर्ग करेगा, अपने भोग के लिए लालायित होकर समस्त अपनी ओर नहीं खींचेगा। इस देने में ही अमृत और लेने में ही मृत्यु। पैसा, कौढ़ी, शक्ति, सामर्थ्य समस्त ही सत्य हैं यदि उन्हें दान कर दें, और समस्त ही मिथ्या है यदि उसका संग्रह करना चाहें। यह बात जब हम भूल जाते हैं तो सब उल्टा पुल्टा हो जाता है, तब शोक, दुःख, भोग, तब ही काम, क्रोध, लोभ। जो वस्तु स्वभावतः देने की संग्रह की चेष्टा करने का यही पुरस्कार होता है। जब यह विचार करते हैं कि हम लेते हैं तो उसे दे देते हैं मृत्यु को एवं उसके साथ शोक, चिन्ता, भय, प्रभृति मृत्यु के अनुचरों को उनकी खुराक-स्वरूप अपने हृदय के रक्त से जीवित रखते हैं।
- टैगोर