गाँधी दर्शन पर आधारित एकादश व्रत

May 1960

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(लेखक-श्री सच्चिदानन्द जी )

असंग्रह के पश्चात् शरीरश्रम का नम्बर आता है। धीरे-धीरे सूक्ष्मता से स्थूलता की ओर आ रहे हैं। शरीर श्रम को मध्यायु में तुच्छता की दृष्टि से समृद्ध लोगों ने देखना प्रारम्भ कर दिया था। जिसका परिणाम भी सामने आया। राष्ट्र के गुलाम हो जाने के साथ-साथ साँस्कृतिक सत्परंपराएं आदि ही नहीं यहाँ का सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो गया था और देश पर बिना किसी परिश्रम के नीतिज्ञ श्रमनिष्ठों का अधिकार हो गया था।

शरीर श्रम को अपने एकादश व्रतों में स्थान देकर गाँधीजी ने श्रम की आवश्यकता का ही नहीं, इसकी महानता का भी समर्थन किया। व्रत रूप में स्वीकार कर लेने से यह सिद्ध हो गया कि शरीर श्रम अहिंसा, सत्य आदि ईश्वरीय बातों की तुलना में किसी बात में छोटा नहीं है। हम बहुत कुछ शरीर श्रम इसलिये नहीं करते हैं कि हम इसे गिरी हुई नजर से देखने के आदी हो गये हैं। लेकिन गाँधीजी के रास्ते से जिन्दगी का काफिला ले जाने वाले शरीरश्रम को अपना परम धर्म मानते हैं। प्राचीन काल में शरीरश्रम पर ही वर्ण व्यवस्था खड़ी की गई थी। हमारे देश के प्राचीन ऋषि लोग भगवान से यह प्रार्थना किया करते थे कि हे भगवन् हम कर्म करते हुए एक सौ वर्ष तक जीवित रहें। अर्थात् कर्महीन बनकर इस पृथ्वी का बोझ न बनें। गान्धी-शरीरश्रम व्रत के अनुसार जब तक मनुष्य के घट में श्वाँस है तब तक उन्हें श्रमनिष्ठ रहना चाहिए और यह तभी सम्भव है जबकि जीवन के उषाकाल से ही हम श्रम के अभ्यासी बन जायं। जवानी से ही श्रम व्रत का पालन करने वाला जीवन की शाम आ जाने पर भी काम में लगा रहता है। और व्रत की कुछ भी परवाह न करने वाला प्राणी गीदड़ की तरह मोटा होने पर भी गद्दे पर पड़ा रहता है। अतः श्रम अभ्यास डालने के लिये भारतीय नौजवानों को क्षणमात्र भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। इन्हें राष्ट्र को समृद्धिशील बनाना है।

प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार भी शरीरश्रम मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है। समृद्ध हो जाना अच्छी बात है किन्तु समृद्धि मनुष्य के अंगों की शक्ति नहीं छीन ले आज अगर समृद्ध भारतीय नागरिकों के मन से तपस्विता और कर्मनिष्ठता की भावना जाग उठे तो राष्ट्र की काया पलट जाय। एक बेजोड़ क्रान्ति हो जावे। क्योंकि समृद्ध जनों के कर्म मार्ग से गतिरोध आने की सम्भावना बहुत कम होती है।

शरीरश्रम का केवल लौकिक महत्व नहीं है इसमें दार्शनिक सत्य भी भरा हुआ है। जो लोक और परलोक सर्वत्र पूजित है। शरीर श्रम से अन्तःकरण की शुद्धता सम्बन्धित होती है।

शरीरश्रम करने के बाद प्राणी अपने आश्रम को लौटता है। थकान और प्यास के मिटने पर भोजन की इच्छा तेज होती है। ठीक इसी तरह एकादश व्रतों में भी एक क्रम है। इसके क्रम भंग से गूढ़ार्थों की तारतम्यता नष्ट हो जाती है उसी तरह शरीरश्रम व्रत के पश्चात् अस्वाद व्रत की व्यवस्था दी गई है। अस्वाद व्रत गान्धीजी का अपना व्रत है। वह भी किसी अन्य व्रत से कम वजन नहीं रखता। प्रायः आज के दिन में हम शरीर धर्म के निर्वाह के लिये भोजन नहीं करते। स्वाद के आनंद के लिए भोजन करते हैं। विदेशों में भोजन को सड़ाकर तथा शुष्क रूप देकर खाने का प्रचलन हो चला है तो भारत में भोज्य सामग्रियों को तलकर नष्ट करके खाने की परम्परा का श्रीगणेश हो गया है। मनुष्यता और पशुता में इतना ही अन्तर है कि मनुष्य अपनी समझदारी से काम करता है और पशु में समझदारी नहीं होती। अतः एक व्यक्ति को मनुष्य होने के नाते यह समझ कर भोजन करने बैठना चाहिये कि हम मात्र स्वाद के लिये नहीं बल्कि जीवन के धर्म का पालन तथा शरीर परिपोषण के लिए भोजन करने जा रहे हैं। यही अस्वाद व्रत है। अस्वाद व्रत के पालन का यह अर्थ नहीं है कि आप ऐसी वस्तुओं को खाइये जिसमें कोई स्वाद न हो। वह तो निस्वाद है। और निस्वाद की गणना में मिट्टी आदि आते हैं। मिट्टी आदि खाने से कभी भी शरीर की चैतन्यता कायम नहीं रह सकती। अतः अस्वाद की व्याख्या करते समय महात्माजी ने बताया है कि भोजन को शरीर की आवश्यकता समझना चाहिये न कि उसे स्वाद के भुलावे में पड़कर मुँह में डाल लेना चाहिये।

अस्वाद व्रत के पालन में स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों को लेने की पूर्ण व्यवस्था है किंतु औषधि रूप में जिस तरह रोगी को मात्रा रूप में औषधि दी जाती है उसी तरह इस शरीर को मात्रा और समय से ऐसे स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ दिये जा सकते हैं। जो सड़ाया हुआ, सुखाया हुआ, तला हुआ तथा तामसिक और उत्तेजक न हो। अस्वाद व्रत के स्वरूप को ठीक-ठीक समझ कर उसके पालन करने से मनुष्य कभी भी रोगों के चंगुल में नहीं पड़ सकता। स्वाद रचना की एक अनुभूति है। वास्तविक जीवन से इसका किंचित मात्र सम्बन्ध नहीं है। इसलिये वास्तविक जीवन की भोज्य वस्तुओं को समझ कर उन्हें मात्रा रूप में ग्रहण करना ही अस्वाद व्रत का पालन करना है। स्वादिष्ट भोजन उसी हालत में लेना चाहिये जब कि उससे शरीर के पोषण की आशा हो। अस्वाद व्रत के पालन से प्राणी में ब्रह्मचर्य आदि व्रतों के पालन की शक्ति आ जाती है।

अस्वाद के बाद गान्धीजी का अभय नाम का आठवाँ व्रत आता है। ‘अभय’ मानव हृदय की एक ऐसी अवस्था है जिससे जीवन की सक्रियता कभी बाधित नहीं होती। अभय एक ऐसी वस्तु है जिसके पास रहने से मनुष्य घोर संकटों में भी कभी निराश नहीं होता। निर्भयता एक ऐसा अस्त्र है जिसको साथ रखने पर हर मानव प्राणी कभी भी असत्य, अन्याय, असुरता आदि की शक्ति से पराजित हो अपने जीवन का मार्ग नहीं बदल देता। यही नहीं किसी भी प्रकार के रंगीन व्यक्तित्व से भी बड़े प्रभावित नहीं होता। निर्भयता वस्तुतः प्रत्येक मानव प्राणी के हृदय की आत्म चेतना है। आत्म विद्युत है।

गान्धीजी के अनुसार शारीरिक शक्ति और शौर्य वीरता नहीं है। दुनिया के भयों से मुक्त हो जाना ही वीरता है। मौत का भय, धन दौलत के लुट जाने का भय, कुटुम्ब परिवार विषयक भय, रोग भय, शत्रु, सरकार और समाज भय आदि जितने प्रकार के भय हैं, इन भयों की आँधी में हिमालय की तरह खड़ा ही निर्भयता है। और अभय व्रत का पालन है। मौत के भय का दमन हम अपनी आत्म भावना की शक्ति से कर सकते हैं। अहिंसा, अस्तेय और असंग्रह के व्रतों का पालन करते हुये हम चोर डाकुओं से अपने धन दौलत के लुट जाने के भय से मुक्त हो सकते हैं। वे आदमी कितने आश्चर्य के विषय हैं जो भूखे और नंगे मरते हुये मानव प्राणियों के बीच में निवास करते हुये भी अपनी तिजोरियों में लाख पर लाख रखते जाते हैं। सच पूछिये तो ऐसे मनुष्य कायर हैं, उन्हें अपनी अकर्मण्यता का भय हैं। अभय व्रत का पालन करने वाला गान्धीवादी अपनी कर्मशीलता पर दृढ़ रहता है। अभय व्रत के पालन में मनुष्य को निन्दा स्तुति आदि से भी सत्य और अहिंसा के रास्ते से विचलित नहीं होना चाहिये। कल्पित मान और प्रतिष्ठा की रक्षा में मन न लगाने वाला व्यक्ति ही सच्चा अभयव्रती है। ऐसे भी भय आते हैं जिसमें कुटुम्ब भी खतरे के दायरे में आया हुआ नजर आता है। मनुष्य की जीविका तक के चले जाने के चिन्ह दीखने लगते हैं। लेकिन मिथ्या जगत की समृद्धि की आशा अथवा विनाश के भय में पड़कर सत्य और अहिंसा पर चलने वाला कभी कभी भी दिग्भ्रान्त नहीं होता, वह गान्धी मार्ग पर निरन्तर चलता रहता है। उसके मस्तिष्क में देह भावना के स्थान पर देही की भावना होती है। परिवार के उपरान्त कभी-कभी मनुष्य रोगों के संक्रमित हो जाने के भय से रोगी की सेवा के लिये कटिबद्ध नहीं हो पाता। किंतु सत्य का सच्चा पथिक अभय होकर सेवा का सेनानी बनने के लिये तैयार हो जाता है। अभय हो जाना एक महान मनस्थिता भी है।

यों तो भय मात्र से छूटना बहुत ही कठिन है। अभयव्रत का पूर्ण पालन तो आत्मज्ञ प्राणी ही कर सकता है। किंतु व्यक्ति मात्र अभय व्रत का पालन करते हुये आत्मज्ञता की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। देश की अपनी साँस्कृतिक प्रतिभा जो यहाँ की मिट्टी और जलवायु की उपज है उस पर पाश्चात्य संस्कृति द्वारा होते हुये हिमपात को वीरता और धीरतापूर्वक रोकने का प्रयत्न करते रहना भी सूक्ष्म दृष्टि में अभयव्रत के अंतर्गत ज्ञात होता है। यहाँ पर एक बात स्पष्ट कर देने की आवश्यकता है -भौतिकवादी मानव प्राणी से कदापि अभयव्रत का पालन नहीं हो सकता भले ही उनके हाथों में बड़ी से बड़ी शक्ति क्यों न आ गई हो। अभयव्रत का पालन केवल आध्यात्मिक अतिरिक्त प्राणियों से ही सम्भव है। क्योंकि देह भावना के स्थान पर देही के अमरत्व में उनकी अविचल निष्ठा होती है। गान्धी जी के शब्दों में अभय मोह रहित स्थिति की पराकाष्ठा है।

एकादश व्रत में अस्वाद और सर्वत्र भय वर्जन आध्यात्मपरक अधिक होने के नाते अपना उत्तरदायित्व सर्वधर्म समानत्व व्रत को दे डालता वह गान्धी जी का नवाँ व्रत है। जहाँ सारी इकाइयाँ पूर्ण होकर बाद में अद्वैत रूप धारण कर लेती हैं। मर्य धर्म समानत्व का सरल रूपक वेदान्त की अद्वैत मान्यता है। अद्वैत में सारे दार्शनिक सिद्धान्त एक ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं। एक ब्रह्म की सत्ता को ही सत् रूप में स्वीकृत किया जाता है। इस व्रत में भी यही होता है। विनोबा के जीवनम् सत्य शोधनम् के अनुसार विश्व के सारे धर्मों में मानवता रक्षण, अहिंसा के पालन एवं प्रेम प्रचार की ही बात कही गई है। अतः धर्मों के प्रवर्तक संत एवं ज्ञानियों की भिन्नताओं के बावजूद भी उनकी धुनियों में मानव वर्ग एक ही स्वरूप के अन्तरबिम्ब का दर्शन करता है। यह अन्तरबिम्ब देश जाति और रंग की भिन्नता की भावना की लहरों में भी आँदोलित नहीं हो पाया। इसे शुद्ध अन्तःकरण वाला निरपेक्ष व्यक्ति देख सकता है। सभी धर्मों के सिद्धान्तों एवं संतों को यौगिक अतेन्द्रिक अनुभूतियों में भी सभ्यता की झलक दीख पड़ती है। इस सभ्यता के सिद्धान्त रूपी प्रदीप की रोशनी में अपनी जीवन की रचना करना ही सर्वधर्म समानत्व व्रत का पालन करना है। सारे धर्मों में यह कहा गया है कि ईश्वर है। उसकी संख्या एक है। वह सत्य है। वह प्रेम से प्राप्त होता है। मनुष्य के सद्व्यवहार से प्रसन्न होता है। विश्व के नैतिक आचारों को जीवन में उतार लेने से उसके विश्वगत सापेक्ष सत्यों का आभास होता है आदि। इन संत मात्र के अनुभूति सूत्रों में विश्वास रखकर अन्य धर्म वालो की कट्टरता का प्रेम व्यवहार से परिष्कार करते हुये मानव मात्र में ईश्वर की झाँकी करता हुआ उनके साथ आत्मीयता का प्रयोग करते रहना गान्धी के सर्वधर्म समानत्व व्रत का लक्ष्य है। हम कुछ हैं। इस भावना के निर्बल हो जाने पर सर्वधर्म समानत्व के व्रत का पालन सरल हो जाता है और आदमी धीर-धीरे देवता होने लगता है। गान्धीजी के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हुआ था। वे केवल भारत में गुलामी की जंजीरों को ही तोड़ने के लिये नहीं थे अपितु एक नव कर्म स्फूर्ति आस्तिक समाज की रचना हेतु अवतरित हुये थे। यही कारण था कि अपने व्रतों के साथ उन्होंने स्वदेशी व्रत का आह्वान किया। स्वदेशी व्रत को उन्होंने महाव्रत के नाम से पुकारा था। गान्धीजी के अनुसार स्वदेशी व्रत राष्ट्र का एक महान विस्तृत धर्म है। गान्धी जी ने स्वदेशी शब्द का सम्बन्ध स्वधर्म से जोड़ दिया था जिसके लिये भगवान श्री कृष्ण ने पहले ही कहा है कि “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः” गान्धी जी अपने स्वधर्म स्वरूपी स्वदेशी व्रत का न पालन करना भयावह ही नहीं आत्महत्या से भी अति निकृष्ट समझते थे। उनकी सारी राष्ट्र निर्माण की महत्वाकाँक्षायें इसी एक व्रत में कंजीर्ण थी। उन्होंने स्वदेशी रूपी ग्राम्य-राज्य के रूप में समर्थ गुरु रामदास के रामराज्य का सपना देखा था स्वदेशी व्रत का तात्पर्य अपने देश के वस्त्र विचार और दर्शन के मूलभूत तत्वों एवं तन्तुओं से है। इसमें “जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” की महनीयता भी कूट-कूट कर भी हुई है। इसमें राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं के सार्वभौम एवं सर्वकालिक उत्तर भी मौजूद हैं।

गान्धी जी का अंतिम व्रत स्पर्श भावना का था। स्पर्श के आधार पर व्यक्ति का किसी भी व्यक्ति को ऊंचा अथवा नीचा मानना घोर अज्ञानता है। अगर हमें कोई नीचा समझ कर स्पर्श करने से परहेज रखता तो उसके इस छोटी सी अकल में कभी भी ईश्वर के अविनाशी अंश में अपवित्रता नहीं आ सकती और ना ही वह नीच ही हो सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य को अस्पृश्यता की मनोवृत्ति को समाप्त कर देना चाहिये। इस भावना के रहते हुये कभी भी हम अपने समाज का सर्वोदय नहीं कर सकते। अस्पृश्यता की भावना मनुष्य की सबसे नीच अंतःवृत्ति का धोवन करती हैं। इसे देखकर एक प्रबुद्ध प्राणी को महान आश्चर्य होता है कि मनुष्य के समान बुद्धि प्रधान कुछ जीवों के चरित्र में इतना बड़ा दोष कैसे आ गया? अस्पृश्यता निवारण एक समाज सुधार एवं सर्वोदय समाज की नींव है। इससे विश्व बन्धुत्व की भावना को भी बल मिलता है और परस्पर प्रेम का प्रसार भी होता है जो व्यक्ति और समाज का एक मात्र उद्देश्य है।

गाँधी जी के एकादश व्रत वे दिव्य विमान है जिन पर आरुढ़ होकर मानवता भूतल पर बसे हुये आनन्द निर्मित स्वर्ग की ओर प्रस्थान करती है


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