(श्री मोहनचंद पारीक)
आत्म कल्याण के लिये परिश्रम तो मनुष्य को स्वयं ही करना पड़ता है, पर सत्संग और सदुपदेश उसके प्रधान अवलम्ब हैं। हमारे कानों को सदुपदेश रूपी सुधा निरन्तर प्राप्त होती ही रहनी चाहिये। मनुष्य का स्वभाव चंचल है। इन्द्रियों की अस्थिरता प्रसिद्ध है। यदि आत्म सुधार में सभी इन्द्रियों को वश में रक्खा जाय तो उचित है। क्योंकि अवसर पाते ही इनकी प्रवृत्ति पतन की ओर होने लगती है। सदुपदेश वह अंकुश है, जो मनुष्य को कर्त्तव्य पथ पर निरन्तर चलते रहने को प्रेरित करता रहता है सत्य से विचलित होते ही कोई शुभ विचार या स्वर्ण-सूत्र पुनः ठीक मार्ग पर ले आता है।
प्रत्येक सदुपदेश एक ठोस प्रेरक विचार है। जैसे कोयले के छोटे से कण में विध्वंशकारी विपुल शक्ति भरी हुई है, उसी प्रकार प्रत्येक सदुपदेश शक्ति का जीता-जागता ज्योति पिंड है। उससे हमको नया प्रकाश और नवीन प्रेरणा प्राप्त होती है। महापुरुषों की अमृतमयी वाणी, कबीर, रहीम, मीरा बाई सूरदास आदि महापुरुषों के प्रवचन, दोहों ओर गीतों में ये महान जीवन सिद्धान्त कूट-कूट कर भरे हुये हैं। जिनका आधार गहरे अनुभव के ऊपर रक्खा गया है। आज ये अमर तत्व-वेत्ता हमारे मध्य नहीं हैं, उनका आर्थिक-शरीर विलुप्त हो गया है पर अपने सदुपदेश के रूप में, वे वह जीवन सार छोड़ गये हैं जो हमारे पथ प्रदर्शन में बड़ा सहायक हो सकता है।
आदमी मर जाता है, उसके साथ उसके साज सामान, महल, दीवारें टूट-फूटकर नष्ट हो जाते हैं, परन्तु उसके जीवन का सार उपदेश और शिक्षायें-वह अमर वस्तु है नव युगों तक जीवित रहती है। इस पृथ्वी पर आज तक न जाने कितने व्यक्ति आये और मृत्यु के प्राप्त हुये, उनका नाम निशान तक शेष नहीं बचा, किन्तु जिन विचारकों, तत्ववेत्ताओं और महापुरुषों ने अपने जीवन के अनुभव रक्खे हैं वे आज भी मशाल की तरह प्रकाश दे रहे हैं।
मनुष्य का अनुभव धीमी गति से धीरे-2 बढ़ता है अब यदि हम केवल अपने ही अनुभवों पर टिके रहें तो, बहुत दिनों में जीवन का सार पा सकेंगे। इस से अच्छा यही है कि हम विद्वानों के अनुभवों को ध्यानपूर्वक पढ़ें और इन्हें अपने अनुभवों से परखें, तोलें और जीवन में ढालें। सदुपदेशों को ग्रहण करना अपने आप को लाभान्वित करने का एक सरल उपाय है। सदुपदेश हमारे लिये जीते जागते प्रकाश स्तम्भ हैं। जैसे समुद्र में जहाजों को उचित मार्ग बताने के लिये “प्रकाश स्तम्भ” बनाये जाते हैं विद्वानों के ये उपदेश ऐसे ही प्रकाश स्तम्भ हैं।
हमको कोई दूसरा अच्छी सलाह दे, उसको सुनना हमारा कर्त्तव्य है, परन्तु आपके पास अंतरात्मा का निर्देश है। आप अपनी आत्मा की सलाह से काम करते रहिये। कभी धोखा नहीं खावेंगे।
जिन्होंने बहुत उपदेश सुने हैं, वे देवता रूप हैं। कारण, जब मनुष्य की प्रवृत्ति अच्छाई की और होती है, तभी वह सदुपदेशों को ग्रहण करता है। तभी सत्संग में बैठता है। तभी मन में और अपने चारों ओर वैसा शुभ सात्विक वातावरण बनाता है। किसी विचार को सुनने का तात्पर्य चुपचाप उसमें रस लेना, उसमें रमण करना भी है। जो जैसा सुनता है, कालान्तर में वैसा ही बन भी जाता है। हम जिन सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनेंगे, कल निश्चय ही वैसे बन भी जावेंगे।
एक विद्वान ने कहा है, जल जैसी जमीन पर बहता है उसका गुण वैसा ही बदल जाता है। मनुष्य का स्वभाव भी अच्छे बुरे विचारों का लोगों की संगति के अनुसार बदल जाता है। इसलिये चतुर मनुष्य बुरे लोगों का साथ करने से डरते हैं, लेकिन मूर्ख व्यक्ति बुरे आदमियों के साथ घुल मिल जाते हैं और उनके संपर्क से अपने आपको भी दुष्ट ही बना लेते हैं। मनुष्य की बुद्धि तो मस्तिष्क में रहती है, किन्तु कीर्ति उस स्थान पर निर्भय रहती है जहाँ वह, उठता बैठता है। आदमी का घर चाहे जहाँ हो पर वास्तव में उसका निवास स्थान वह है जहाँ वह उठता बैठता है और जिन लोगों या विचारों की सोहबत पसन्द है। आत्मा की पवित्रता मनुष्य के कार्यों पर निर्भर है और उसके कार्य संगति पर निर्भर है। बुरे लोगों के साथ रहने वाला अच्छे कर्म करे, यह बहुत ही कठिन है। धर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, किन्तु धर्माचरण करने की बुद्धि सत्संग या सदुपदेशों से ही प्राप्त होती है। स्मरण रखिये कुसंग से बढ़कर कोई हानिकारक वस्तु नहीं हैं सत्संगति से बढ़ कर कोई लाभ नहीं है।
जब हम सदुपदेशों की संगति में रहते हैं, तो गुप्त रूप से अच्छाई में बदलते भी रहते हैं। वह सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक क्रिया स्थूल नेत्रों से दीखती नहीं हैं किन्तु इसका प्रभाव तीव्र होता है। अन्ततः मनुष्य उन्हीं के अनुसार बदल जाता है।
गंगा जल से जिस प्रकार शरीर शुद्ध होता है, सदुपदेश से मन बुद्धि और आत्मा पवित्र होती है। धर्मात्मा पुरुषों की शिक्षा एक सुदृढ़ लाठी के समान है जो गिरे हुये पतितों को सहारा देकर ऊंचा उठती है और बुरे अवसरों पर, गिरने से बचा लेती है। जो शिक्षित हैं, उनके लिये सैकड़ों एक से एक सुन्दर अनुभव पूर्ण ग्रन्थ विद्यमान हैं, कवियों, विचारकों इनका मनन व आचरण करना चाहिए। जो अशिक्षित है वे लोग भी धर्मात्माओं के संग से इतनी शक्ति प्राप्त कर सकते हैं कि जिसमें अपने आपको संभाल सकें और विपत्ति के समय अपने पैरों पर खड़ा हो सकें। स्वयं भगवान गीता में कहते हैं
नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्र मिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसं सिद्धः कालेनात्मनि विन्दति
॥4।38
अर्थात् इस संसार में सद्ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसन्देह कोई भी पदार्थ नहीं है उस ज्ञान को कितने ही काल से कार्य योग के द्वारा सुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है।