गृहस्थ धर्म का पालन आवश्यक है।

May 1960

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(पं. तुलसीरामजी, वृन्दावन)

आचार्य श्च पिता चैव माता भ्राता च पूर्वजः।

नार्त्ते नाप्यव मन्तव्या ब्राह्मणेन विशेषतः॥

(मनु. 2। 225)

आचार्य, पिता, माता और बड़ा भाई-दुखी मनुष्य भी इनका अपमान न करे विशेषकर ब्राह्मण तो कभी अपमान न करे।

यं माता पितरौ कलेशं सहेते संभवे नृणम्।

नतस्य निष्कृतिः शाक्या कर्त्तुं वर्ष शतैरपि॥127॥

मनुष्य की उत्पत्ति में जो दुख पिता माता सहते हैं उसका बदला सौ वर्ष में भी चुकाया नहीं जा सकता।

तयो र्नित्यं प्रियं कुर्या दाचार्यस्य च सर्वदा।

तेष्चेव त्रिषु तुष्टेषुतपः सर्वं समाप्यते॥228॥

नित्य उन दोनों (मात-पिता) का और सदा आचार्य का प्रिय कार्य करें। इन तीनों के प्रसन्न होने पर सब तप पूरा हो जाता है।

तेषाँ त्रयाणाँ शुश्रूषा परमं तप उच्यते।

नतैरभ्यननु ज्ञातो धर्म मन्यं समाचरेत्॥229॥

इन तीनों की (माता पिता आचार्य)सेवा ही बड़ा भारी तप कहा गया है इनकी आज्ञा बिना पुत्र व शिष्य अन्य धर्म को न करे।

सर्वे तस्या हता धर्मा यस्यै ते त्रय आदृताः।

अनाहतास्यु यस्यै ते सर्वास्तस्या फलाः क्रियाः॥234॥

जिसने इन तीनों का आदर किया उसने सब धर्मों का आदर किया और जिसने इनका अनादर किया उसके सब काम व्यर्थ हो जाते हैं।

या वत् त्रयस्ते जी वे युस्तावन्नान्यं समाचरेत्।

तेष्येव नित्यं शुश्रूषाँ कुर्यात् प्रिय हितेरतः॥235॥

जब तक ये तीनों जीयें तब तक दूसरा धर्म न करे। उन्हीं की प्रसन्नता और हित चाहता हुआ नित्य उनकी (माता पिता आचार्य) ही सेवा करे।

लोगों को ऊपर के वचनों पर ध्यान देना चाहिये।

त्रिस्वेते ष्विति कृत्यं हि पुरुष स्य समाप्यते।

एष धर्मः परः साक्षाद्र प धर्मोऽन्य उच्यते॥237॥

इन तीनों की सेवा से पुरुष का सब कर्म सफल होता है इनकी सेवा ही परम धर्म है अन्य सब उपधर्म हैं।

वृद्धौ च माता पितरौ साध्वी भार्या सुतः शिशुः।

अप्य कार्य शतं कृत्वा भत्तव्या मनुश्व्रवीत्॥

(कृत्यकल्पतरु-गार्हिस्थ्यकाण्ड)

वृद्ध माता-पिता, पतिव्रता स्त्री छोटी अवस्था का पुत्र इनका पालन अनुचित कार्य करके भी करना चाहिए।

पुत्र दारम प्रति विधाय प्रव्रजतः पूर्वः साहसदण्डः॥36॥

स्त्रिय च प्रव्रा जयतः॥37॥

लुप्तव्यवायः प्रव्रजेदापुच्छय धर्म स्थान्॥38॥

अन्यथा नियभ्येत॥39॥

(कौटलीय अर्थशास्त्र, अध्यज्ञ प्रचार 2।1)

पुत्र और स्त्रियों के जीवन निर्वाह का प्रबन्ध न करके यदि कोई पुरुष संन्यासी होना चाहे तो उसे प्रथम साहस दण्ड दिया जाय ॥36॥ इसी प्रकार पुरुष अपने साथ स्त्री को भी संन्यासी बन जाने के लिये प्रेरणा करे उसे भी प्रथम साहस दण्ड दिया जावे ॥37॥ जब पुरुष की मैथुन शक्ति सर्वथा नष्ट हो जाए उस समय धर्मस्थ (धर्मशास्त्र के अनुसार व्यवहार पदों का निर्णय करने वाले) अधिकारी पुरुषों की अनुमति लेकर तभी वह संन्यासी होवें ॥38॥ यदि कोई पुरुष इस नियम का उल्लंघन करे तो उसे पकड़कर कारागार में बन्द कर दिया जाय॥39॥

कुछ महानुभाव युवावस्था में अपने नादान बच्चे, जवान स्त्री, निर्धन वृद्ध माता पिता के जीवन निर्वाह का प्रबन्ध न कर संन्यासी हो जाते हैं और उन महानुभावों को भी जो उनको प्रोत्साहन देते हैं उक्त शास्त्राज्ञा पर विचार करना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118