नैतिकता की खरी कसौटी

May 1960

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(लेखक ईश्वरशरण पाण्डेय, एम. ए.)

पाप क्या है? पुण्य क्या है? सत् क्या है? असत् क्या है? उचित क्या है? अनुचित क्या है? शुभ क्या है? अशुभ क्या है? अच्छा क्या है? बुरा क्या है? मानव जाति ने जबसे विचार करना आरम्भ किया तब से ये प्रश्न उसके सामने हैं। ऐसा नहीं है कि इनके सार्वभौम उत्तर प्राप्त करने की कोशिश नहीं की गई। परन्तु प्रयत्न के बावजूद भी कोई ऐसा समाधान कारक उत्तर नहीं मिला है जिसे सब देश और सब काल में सबके लिए उपयुक्त कह सकें। यही कारण है कि परम पुरातन होते हुए भी ये प्रश्न नित्य नवीन बने हुए हैं।

नैतिकता की मान्यताओं को अधिकाँश विचारक देशकाल और पात्र सापेक्ष मानते हैं। इस कारण से एक ही कार्य एक समय, एक स्थान में एक व्यक्ति के लिये अच्छा सिद्ध होता है और वही कार्य दूसरे समय, दूसरे स्थान में दूसरे व्यक्ति के लिये अनैतिक बन जाता है जैसे-युद्ध के समय सामूहिक हत्या उचित मानी गई किन्तु अन्य परिस्थिति में हत्या पाप है, अपराध है। इस अनिश्चयात्मक स्वरूप के कारण ही लगता है नैतिक मान्यताएँ जनसाधारण को अनावश्यक, अनाकर्षक जँचती हैं। उन्हें लगता है कि अच्छा-बुरा का विचार करना समय की बरबादी और निरी मूर्खता है। आज भी संसार में ऐसे लोगों का अभाव नहीं है जो सुकरात को मूर्खराज की उपाधि से निःसंकोच विभूषित करते हैं।

सामान्यजन प्रत्येक प्रश्न पर व्यापारी दृष्टि से विचार करते हैं। वे प्रत्येक कार्य को लाभ-हानि की तुला पर तोलते हैं। नैतिक मान्यताएँ इस तुला से हानिकारक जँचती है और इस स्वार्थी निष्कर्ष को नैतिक मान्यताओं के स्वरूप की अनिश्चयात्मकता का बल मिल जाता है। फिर क्या गिलोय और नीम चढ़ी। जनसामान्य में नैतिकता की ऐसी शोचनीय अवस्था होते हुए भी ऐसा कह सकना सम्भव नहीं है कि वे नैतिक मान्यताओं की पूर्ण उपेक्षा कर सकते हैं। वे जाने-अनजाने कहते ही रहते हैं कि अमुक ने अच्छा नहीं किया, अमुक अन्यायी है, पापी है, दुराचारी है इत्यादि। उनके ये कथन सिद्ध करते हैं कि कोई व्यक्ति भले ही अपने लिये नैतिक आचरण को अनावश्यक कहे पर जहाँ दूसरे के आचरण का प्रश्न आता है, उसको आवश्यक मानता है। जिस व्यक्ति से हमारा कोई सरोकार नहीं, हानि-लाभ की आशा नहीं उसके आचरण की भी हम आलोचना करते ही हैं, अच्छा-बुरा का निर्णय करते हैं। इससे स्पष्ट है कि नैतिकता की कसौटी हमारी हानि लाभ वाली तुला नहीं हो सकती। वह उससे सर्वथा पृथक है।

हम दूसरे व्यक्ति को उसके बाह्य आचरण से अच्छा या बुरा ठहराते हैं। हमारे पास इसके अतिरिक्त दूसरा साधन भी नहीं हैं। पर बाह्य आचार के आधार पर किया गया नैतिक निर्णय हमेशा ठीक ही होगा, ऐसा नहीं कह सकते। दो व्यक्तियों का बाहरी व्यवहार एकसार होते हुए भी एक नीति युक्त और दूसरा अनैतिक हो सकता है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति ने दया से द्रवित होकर एक भिखारी को एक रुपया दिया और दूसरे ने उसे अपनी आँखों के सामने से हटाने के लिए एक रुपया दिया। कहने का मतलब यह है कि एक ने पसीज कर और दूसरे खीझकर रुपया दिया। जहाँ तक देने का संबंध है इस उदाहरण में दोनों ने दिये हैं, समान दिये हैं पर दान के पीछे जो भावना है उनमें जमीन-आसमान का अन्तर है। भावना के कारण एक का वही कार्य नैतिक है तो दूसरे का वही कार्य अनैतिक है। काम अच्छा हो इतना ही बस नहीं है बल्कि अच्छी भावना से भी किया गया होना चाहिए।

जो अच्छा काम अच्छी भावना से किया गया हो, उसका परिणाम हमेशा शुभ ही हो, यह आवश्यक नहीं है। कार्य के परिणाम को उसकी नैतिकता की माप मानना ठीक नहीं। उदाहरणार्थ मुझे एक घड़ी प्राप्त करनी है अब मैं इस लक्ष्य को कई तरीकों से सिद्ध कर सकता हूँ-यथा खरीदकर माँगकर, चोरी करके। साधन के अनुसार मेरी लक्ष्य-प्राप्ति का स्वरूप भी नैतिक से अनैतिक बनते जाता है। यही कारण है कि महात्मा गाँधी लक्ष्य का ही शुद्ध होना आवश्यक नहीं बल्कि साधन का भी शुद्ध होना आवश्यक है, कहते थे। उनके अनुसार शुद्ध साधन से ही शुद्ध लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। साम्यवादी नैतिक भूमिका और गाँधीवादी नैतिक भूमिका में यह बुनियादी फर्क है।

अच्छे काम का, अच्छी भावना से शुद्ध साधनों के द्वारा किया जाना, उसके नैतिक होने के लिये अपरिहार्य शर्तें हैं। साथ ही वह काम आत्म स्फूर्त भी हो। जो कार्य दबाव या भय से किया जावेगा, वह दबाव या भय के कारण दूर होते ही लुप्त हो जावेगा। यदि कोई विनोबा जी के साथ पद यात्रा में सुबह शाम होने वाली प्रार्थना में उनके नैतिक भय या नियम के दबाव से शामिल होकर प्रार्थना करता है तो उसका वह कार्य नैतिक नहीं कहा जा सकता। ऊपर से लादा हुआ कार्य नैतिक नहीं हो सकता है। यहाँ तक नैतिकता की मान्यता पर विषय गत दृष्टि से विचार किया गया। लेकिन यह प्रश्न तो रह ही जाता है कि हम कैसे जाने कि कौन काम शुभ है? कौन अशुभ है? कौन सत है और कौन असत कार्य है? इसके लिये सर्वमान्य एक मापदण्ड न हो सकने पर भी वैसे मापदण्ड का सर्वथा अभाव नहीं है। संसार से जितने नीतिशास्त्र के आचारवान विचारक संत महात्मा हो गए हैं एक स्वर से घोषित करते हैं कि आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाँ न समाचरेत्। सारे संसार के नीतिशास्त्र का सार संक्षेप है। रूसी ऋषि टॉलस्टाय कहते थे जो व्यक्ति जितना कम लेता है और जितना ज्यादा वापस देता है उसी अनुपात में वह उतना ही नैतिक है। महात्मा गाँधी की अहिंसा क्या है-सर्वभूतों से आत्मवत् प्रेम ही तो है।

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाँ न समाचरेत् इस पाँच शब्दों के लघु वाक्य में समस्त नीतिशास्त्र का निचोड़ सम्मिलित है-यह सहसा विश्वास नहीं होता है। सत्य की सरलता ही उसे पहिचानने में कठिनाई उपस्थित करती है समस्त नैतिक सिद्धान्त क्या बताते हैं? यही न कि हमारे सारे व्यवहार दूसरों के प्रति इस प्रकार हों जिससे हम अपना सर्वतोमुखी विकास करते हुए दूसरों के उसी प्रकार के विकास में सर्व भावेन सहयोग कर सकें। इस प्रकार का व्यवहार नहीं हो सकता है जो ऊपर के पाँच शब्दों में प्रकट किया गया है। इसी वाक्य का अविकल अनुवाद सा करते हुए संत कन्फ्यूशियस ने कहा “जो व्यवहार तुम अपने प्रति नहीं पसन्द करते, वह दूसरों के प्रति न करो।” साक्षात् धर्म के लक्षण बताते हुए मनु ने कहा-स्वस्थ न प्रियमात्मनः धर्म का एक प्रबल लक्षण अपनी आत्मा को जो प्रिय लगे, वह करना है। अब कोई कह सकता है कि हमारी आत्मा को तो चोरी करना प्रिय है। जो उसका धर्म वही है परन्तु आपको चोरी करना प्रिय नहीं है क्योंकि जिसे जो काम प्रिय है, उसे यदि और लोग करें तो उसे खुश होना चाहिये। कोई चोर नहीं चाहेगा कि सब चोर हों क्योंकि वैसी हालत में उसका काम नहीं बनेगा। अतः हम जिस कार्य को अपने प्रति नहीं चाहते कि कोई करे उसका आचरण हम दूसरों के प्रति करें-एक सच्ची कसौटी है। हम नहीं चाहते कि कोई हमारे साथ झूठा व्यवहार करे अतः हमें चाहिए कि हम सबके साथ सत्य व्यवहार करें। हम नहीं चाहते कि कोई हमारा जी दुखाए, अतः हमें चाहिए कि हम अपने आचरणों से किसी को कष्ट न दे। हम अपनी जान की रक्षा करते हैं, हमें अपनी जान प्यारी है। इसी से यह अपरिहार्य व्यवहार निश्चित हो जाता है कि हम दूसरे की जान की रक्षा करें। सत्य, अहिंसा के सिद्धान्त का मूल यही विचार है। इसी प्रकार अस्तेय, अपरिग्रह आदि अन्य सार्वभौम नैतिक सिद्धान्तों के विषय में आप अपने अन्तःकरण से स्वयं जान सकते हैं।

उपर्युक्त नीति वाक्य के अनुसार अपने आचरण की जाँच करने के लिये जितनी सद्विवेक बुद्धि की जरूरत है उतनी प्रत्येक सामान्य व्यक्ति को प्रकृति से प्राप्त है। हमारी समस्या नीति की अज्ञानता उतनी नहीं है जितना नीति का आचरण है। अर्जुन के समान हम सबकी स्थिति है- “जा नाभि धर्न्य न धमे प्रवृतिः जानन्यः धर्न्य न चम निवृत्तिः।” धर्माधर्म का ज्ञान इन सबको रहता है तदनुकूल आचरण के अभाव से सारी समस्या खड़ी होती है। यदि हम वसुधैव कुटुम्बकम, का आदर्श अपनाकर अपने व्यवहारिक जीवन में आत्मनः प्रतिकूलानिपरेषाँ न समाचरेत् का आचरण करें तो हम धर्म और नीति की रक्षा करते हुए सच्चे अर्थों में स्व, पर कल्याण कर सकते हैं।


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