अन्त समय की तैयारी

May 1960

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(श्री भँवरलाल दुबे)

“अन्त काले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्वत्र संशयः॥

अर्थात् अन्त समय में परमेश्वर का स्मरण करने वाला मनुष्य परमेश्वर भाव को प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।”

देह छोड़ते समय का कर्तव्य उक्त श्लोक द्वारा कितने अर्थ का “गागर में सागर” वत् है परन्तु जिस समय सारा शरीर इन्द्रियों सहित विवश की भाँति अयोग्य सा हो जाता है मन, बुद्धि, चित्त आदि क्षीण प्रायः हुए होते हैं, कहीं तो शरीर बेसुध, रोगग्रस्त व्यथित होकर स्मृति भ्रान्त हो जाती है ऐसे अन्त समय में परमेश्वर का स्मरण कितना कठिन है? यह स्वाभाविक प्रश्न है।

यों मरने के समय मनुष्य कितना ही पस्त पीड़ित या बेसुध हो पर मौन-अमौन रूप से अपने पुत्र-कलत्र व भौतिक ममता युक्त पदार्थों को तो अवश्य ही स्मरण कर लेता है। जब ऐसे विषम समय पर स्मृति के उपयोग से साँसारिक साधनों की प्राप्ति कर सकता है तो परमेश्वर का स्मरण भी अवश्य ही किया जा सकता है। पर ऐसा होता कहाँ है।

इसका कारण यह है कि जब से मनुष्य कुछ समझने लगा है तब से लगाकर मृत्युकाल पर्यन्त रात दिन साँसारिक बातों का ही ध्यान स्मृति में समाये रहता है अतः यथेष्ट अभ्यास वश वही प्रसंग प्रबल रूप से अभावशील रहने से अन्त समय में सहज ही स्मरण हो उठता है।

किसी बगीचे में देखने पर विदित होता है कि वनस्पतियों पर तथा फल-फूलों पर विभिन्न रंगों के जीवधारी रहते हैं। वे सब एक ही रंग के क्यों नहीं हो सकते? ऐसा इसलिये कि ये जीव जिस-जिस रंग का ध्यान करते हैं, तदनुकूल ही उनकी रंगाई सूक्ष्म रूप से होती रही है। लोहे को या लकड़ी को अग्नि में रखने से कुछ ही समय में वह अग्नि भाव से युक्त होकर अग्नि रूप हो जाता है और अग्नि के ही गुण धर्म उसमें आ जाते हैँ। इससे सिद्ध है कि पुरुष भी परमात्म भाव धारण करके नर से नारायण बन सकता है। अपने मन और बुद्धि को ईश्वर में अर्पण कर सतत अभ्यास द्वारा परमात्म भाव से प्रभावित रहना चाहिये। इस सतत जाग्रत रहने का नाम ही “अभ्यास” है। इस अभ्यास को रात दिन अन्तःकरण में प्रज्वलित रखने को “अभ्यास योग“ कहा है।

मन का स्वभाव ही ऐसा है कि जिस विषय पर इसकी क्रिया जितनी बार होगी उसी विषय का प्रभाव उतनी ही प्रबलता से इस पर जमता जायगा। अतः आरम्भ से ही सत्संग, शास्त्र ज्ञान, गुरु कृपा आदि के माध्यम से मनोभूमि पर परमात्मा भाव का ऐसा परम बीजारोपण कर अभ्यास योग के स्वाद-पानी से पोषण देने पर अन्त समय में सहज ही ईश्वर का स्मरण फलित होगा।

अन्त समय मृत्यु काल देहान्त आदि ऐसा बार-बार कहा गया है अतः इसका तात्पर्य क्या है? इसका प्रचलित अर्थ मृत्यु को समझा जाता है। परन्तु यह मृत्यु भी किस श्रेणी की समझनी चाहिये? क्योंकि क्षणिक मृत्यु, दैनिक मृत्यु, (निद्रा) अवस्थान्तर की मृत्यु (सपनयन, द्विज संस्कारादि) देहान्तर को मृत्यु (महामृत्यु), आदि अनेक मृत्यु हैं। इनमें से यहाँ कौन−सी मृत्यु अपेक्षित है? वस्तुतः सब ही मृत्यु (अन्त) यहाँ विचारणीय हैं।

हर प्रकार के अन्त के समय परमात्मा का स्मरण करना चाहिये, यदि कोई इसका यह आशय समझेगा तो इसका यही तात्पर्य होगा कि प्रतिक्षण परमात्मा का स्मरण करना चाहिये क्योंकि मनुष्य की मृत्यु प्रतिक्षण हो रही है। यदि देह त्याग ही मृत्यु है तो इस देह का कुछ न कुछ भाग प्रतिक्षण त्यागा ही जा रहा है। शरीर शास्त्री मानते हैं कि प्रत्येक शरीर सात वर्षों में पूर्णतया नवीन हो जाता है अर्थात् पहले के अणु बिगड़ कर उनका स्थान नये अणु लेते रहते हैं। यह परिवर्तन शनैः शनैः प्रतिक्षण होता रहता है। यदि किसी शरीर का भार दो मन है तो सप्त वर्षीय परिवर्तन के अनुसार प्रतिदिन ढाई तोले शरीराणु नष्ट होकर उतने ही नये आ जाने चाहिये। इस तरह इतने परमाणुओं की मृत्यु मानव शरीर में प्रतिदिन होती रहती है। उपवास के समय यह परिवर्तन शीघ्रता से होता है। प्रथम आयु में परमाणुओं की मृत्यु की अपेक्षा संवर्धन अधिक होता है अतः शरीर बढ़ता है और उत्तर आयु में मरने वाले परमाणुओं की संख्या अधिक होने से शारीरिक क्षीणता स्पष्ट ही है।

प्रतिदिन ढाई तोले परमाणुओं की मृत्यु होती है तो प्रतिक्षण कितनी मृत्यु होती है इसका अनुभव स्पष्ट है। यह क्षणिक मृत्यु ही दैनिक मृत्यु है। देह को इतना त्याग प्रतिफल प्रतिदिन करना पड़ता है। गीताकार ने जिस अन्त समय में परमात्मा का स्मरण सुझाया है उसका यही रहस्य है कि जीवन का प्रतिफल ही देह त्याग का अन्त समय है अतः किसी विशेष समय की प्रतीक्षा न करके श्वास-प्रश्वास के साथ भगवान के नाम जप का सहज अभ्यास कर शरीर समाप्ति वाले अन्त समय में नाम स्मरण हो जावे और गीता में कही हुई सद्गति प्राप्त होने के लिए निश्चिंत हो जाना चाहिए।


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