मानव जीवन की सफलता का मार्ग

May 1960

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मनुष्य की अभिरुचि में यह विशेषता है कि वह जिस ओर मुड़ जाती है उसी ओर उसकी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियाँ पूरी तत्परता के साथ जुट जाती हैं। कोई व्यक्ति पहलवान बनना चाहता है, अखाड़े में जाता है और उस ओर उसकी पूरी अभिरुचि है तो उसका मन निरन्तर यही सोचता रहेगा कि किस प्रकार जल्दी से जल्दी बड़े से बड़ा पहलवान बना जाय? कौन-कौन सी कसरत की जाय? क्या-क्या दाव पेंच सीखे जायं? क्या-क्या खाया जाय आदि। इस सोचने का परिणाम यह होगा कि वह उसी प्रकार के साधन ढूंढ़ने और जुटाने लगेगा। जो कठिनाइयाँ रास्ते में आयेंगी उन्हें पार करेगा। घर के लोग उसकी इस अभिरुचि को ना पसन्द करेंगे, खर्चीली बतावेंगे तो भी वह उनसे लड़-झगड़ कर अपनी बात मनवाने का आग्रह करेगा। और किसी न किसी प्रकार अपना मनोरथ पूरा करने के लिए आवश्यक परिस्थिति पैदा कर लेगा। अभिरुचि की तीव्रता में यह शक्ति और सम्भावना छिपी रहती है कि वह कठिन और विपरीत परिस्थितियों से भी टक्कर लेती हुई अपना रास्ता बना लेती है। मूलतः यह अभिरुचि जीवन की दो प्रमुख दिशाओं में से एक दिशा में मुड़ती है (1) भौतिक (2) आध्यात्मिक। जिस प्रकार पृथ्वी के दो छोर हैं उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव, उसी प्रकार जीव की भी दो धारायें हैं। एक स्थूल दूसरी सूक्ष्म। स्थूल भौतिक जीवनधारा वह है जिसमें शरीर सुख का लक्ष रहता है और इन्द्रिय भोग, मान बड़ाई, वासना, तृष्णा, संग्रह, स्वामित्व एवं विलासिता की प्रधानता रहती है। आमतौर से लोग इसी धारा में बहते हैं। उनकी अभिरुचि इन्हीं बातों को पसन्द करती है। तदनुसार शरीर और मस्तिष्क की शक्तियाँ इन्हीं उपकरणों को जुटाने में लग जाती है। बहुत काल तक इस एक ही दिशा में संलग्न रहने से जीव का ढाँचा ही इस प्रकार का ढल जाता है कि यही सब साधन एकत्रित करने का अपना स्वभाव अकस्मात हो जाता है। बिना प्रयत्न के भी मन और शरीर अपने आप इस भौतिक साधन संग्रह में लगा रहता है और शरीर को सुख देने वाली वस्तुएं जुटाने और उनका उपयोग तथा संग्रह करने का ताना-बाना बुनता रहता है।

इस भौतिकवादी जीवन की दिशा एक ही होती है पसन्दगी के भेद से इनकी कार्य प्रणाली में थोड़ा अन्तर होता रहता है। जिस प्रकार स्वादिष्ट भोजन करने के इच्छुकों में भी थोड़ी रुचि भिन्नता पाई जाती है, कोई अमुक तरत व्यंजन पसन्द करता है तो किसी को अमुक प्रकार की मिठाइयाँ और साग तरकारियों में प्रसन्नता होती है उसी प्रकार आजीविका उपार्जन, व्यवसाय, मनोरंजन के साधन रहन-सहन, आहार-व्यवहार में थोड़ा अन्तर होते हुए भी भौतिक-स्थूल-अभिरुचि के लोगों की गति विधियाँ प्रायः एक ही दिशा में अग्रसर होती हैं।

दूसरी जीवन दिशा है आध्यात्मिक जिसे सूक्ष्म कहते हैं, इस ओर अभिरुचि रखने वाला व्यक्ति सदा यह सोचता रहता है कि मेरी आत्मा का कल्याण किस प्रकार हो? सुरदुर्लभ मानव शरीर का जो स्वर्ण सुयोग मिला है उसका सदुपयोग कैसे हो? जीवन का रूप प्राप्त कैसे हो? इस अभिरुचि में लोग ज्ञान साधना, आत्म संयम, सद्गुरु संग्रह, परोपकार, सदाचार एवं ईश्वर उपासना को प्रधानता देते हैं। स्वाध्याय और सत्संग के द्वारा अपने ज्ञान नेत्रों को खोलकर अन्धकार से प्रकाश की ओर चलने का प्रयत्न करते हैं।

दोनों दिशाओं का अन्तर स्पष्ट है। एक में शरीर सुख अधीन हैं, दूसरी में आत्म कल्याण की प्रमुखता है। जिस ओर मन का झुकाव होगा उस ओर चित्त अधिक लगेगा उसी प्रकार के साधन जुटाने की तैयारी रहेगी और उसी दिशा में प्रगति होने से संतोष मिलेगा। यों उत्तर ध्रुव और दक्षिण ध्रुव की तरह वह दोनों धारायें जीवन रूपी पृथ्वी के दो छोर हैं आपस में जुड़े हुए हैं, अविच्छिन्न हैं फिर भी प्रधानता जिसकी रहेगी उसके विपरीत दूसरे की उपेक्षा स्वभावतः होने लगेगी।

कर्मयोग के सत्व ज्ञान में दोनों का समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है। शरीर सुख के आवश्यक साधनों को समुचित मात्रा में उपलब्ध करके उनका सदुपयोग किया जाय और मन को परमार्थ साधन में लगाये रहा जाय। यह तरीका इस लिए भी ठीक है कि शरीर और आत्मा दोनों के सम्मिश्रण से ही जीवन की गतिविधि चल रही है। रथ के दोनों ही घोड़े हैं, दोनों के ही चारे दाने का प्रबंध करना पड़ेगा। इसलिए दोनों ओर ध्यान देने, दोनों को समन्वय करने, इन्हें आपस में टकराने से बचाकर सहयोग और समन्वय करने की नीति व्यवहारिक और बुद्धिमानी पूर्ण है। यही सरल और सुगम भी है।

इतना होते हुए भी इन दोनों दिशाओं की भिन्नता और प्रतिकूलता को स्वीकार करना पड़ता है गीताकार ने इसे स्वीकार किया है कहा है-

या निशा सर्व भूतानाँ तस्याँ जाग्रति संयमी।

यस्याँ जाग्रति भूतानि निसापश्यतो मुनेः॥

गीता 2। 69

सब प्राणियों के लिए जो रात्रि है उसमें योगी लोग जागते रहते हैं और जिसमें प्राणी जागते हैं उसे योगी लोग रात्रि समझते हैं

रात्रि और दिन तो योगी अयोगी सबके लिए एक ही समय पर होते हैं और सोने जागने का समय भी दोनों का एक ही है, पर इस श्लोक में आलंकारिक रूप से यह बताया गया है कि योगी और अयोगियों की अभिरुचि में रात्रि और दिन जितनी भिन्नता होती है। जिन विषयों में एक की अभिरुचि होती है उसी में दूसरे को उतनी ही अरुचि होती है जो अन्तर सोने और जागने की स्थिति में होता है वही योगी और अयोगी की मनोदशा में होता है।

यहाँ योगी और अयोगी का तात्पर्य भौतिक और आध्यात्मिक अभिरुचि के लोगों से है। उन लक्ष्यों और उद्देश्यों में दिन और रात जितनी परस्पर विरोधी भिन्नता रहती है। इस लक्ष्य भिन्नता के कारण उनके जीवन की गतिविधियों में एक अलग अन्तर भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है।

भौतिकवादी दृष्टिकोण के व्यक्ति शरीर सुख को प्रधानता देते हैं। और उसी के सुख साधन जुटाने में तन्मय रहते हैं। यह तन्मयता बहुधा इतनी हो जाती है कि आध्यात्मिक स्वार्थों की उपेक्षा एवं अवहेलना की जाने लगती है। देखा गया है कि लोग वासना और तृष्णा की पूर्ति के लिए ऐसे जघन्य कार्य करने लगते हैं जिनसे परलोक बिगड़ता है, पाप लगता है और आत्म पतन होता है। चोरी, ठगी, लूट, हत्या, शोषण, अपहरण आक्रमण की घटनाएं भौतिक स्वार्थों की अहंकार की एवं अमीरी की प्राप्ति के लिए घटित होती है। दुष्टों की दुष्टता का यही आधार है।

सत्कार्यों में अरुचि होना उनके लिए अवकाश न मिलना भी भौतिकवादी अभिरुचि की प्रधानता के कारण ही होता है। परोपकार का कोई अवसर आने पर लोग कन्नी काटने लगते हैं, मुँह छिपाते हैं और बच निकलने का बहाना ढूंढ़ते हैं। ईश्वर उपासना के लिए दस-पाँच मिनट की भी फुरसत नहीं मिलती। स्वाध्याय और सत्संग के लिए कभी इच्छा नहीं होती। किसी दीन दुखी की सहायता या दान पुण्य की आवश्यकता दिखाई दे तो भी कंजूसी करता है। इसके विपरीत शरीर से संबंधित लाभों में सारा समय लगाने, अधिक से अधिक धन खर्च करने में तनिक भी संकोच नहीं होता। शान शौकत बढ़ाने वाले प्रीतिभोज, विवाह-शादी आदि प्रयोजनों में लोग ढेरों पैसा फूँकते रहते हैं, इससे उन्हें तनिक भी झिझक नहीं होती, पर जब आत्मकल्याण से संबंधित कोई परमार्थिक कार्य ऐसा सामने आता है जिसमें कुछ खर्च करना पड़े तो सारी कंजूसी इकट्ठी हो जाती है और लोग अपनी गरीबी तथा आर्थिक कठिनाई का रोना-रोने लगते हैं। सिनेमा, मनोरंजन, गपशप, तफरी, आलस्य-प्रमाद आदि में ढेरों समय बर्बाद चला जाता है, पर आत्मकल्याणकारी सत्कार्यों के लिए समय की भारी कमी बताई जाती है।

शरीर सुखों के लिए समय, इच्छा और खर्च का इतना बाहुल्य और आत्मकल्याण के लिए इन सबकी इतनी कमी होना इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य जीवन में अभिरुचि ही सबसे बड़ी शक्ति है। यह जिधर भी झुक जाती है उधर ही उसकी मानसिक, शारीरिक एवं साँसारिक शक्तियाँ लग पड़ती हैं उन्हीं में उसे रस आता है उधर ही सफलता मिलती है और वहीं मन लग जाता है।

यदि यह अभिरुचि अभ्यास मार्ग में लगे तो मनुष्य सत्कार्यों के लिए, मानसिक और आत्मिक उन्नति के लिए, साधना उपासना के लिए पर्याप्त समय प्राप्त कर लेता है, मन भी उन कार्यों में लगता है और आवश्यक साधन भी उपलब्ध हो जाते हैं संसार में जितने धर्मात्मा, लोकसेवी, परोपकारी, विद्वान, ईश्वर भक्त एवं महापुरुष हुए हैं, उन्हें आरंभ से ही इसके लिए कोई बनी बनाई पृष्ठभूमि नहीं मिली थी। वरन् उनकी अभिरुचि की तीव्रता ने विपरीत परिस्थितियों में भी मार्ग निकाला, साधन जुटाये और सफलता प्राप्त की। मनुष्य अपनी अभिरुचि को भौतिक आकर्षणों से बचाकर अध्यात्मिक दूरदर्शिता के मार्ग पर लगा दे, तो निश्चय ही वह इस सुरदुर्लभ मानव जीवन की प्राप्ति का पूरा लाभ उठा सकता है। भव बन्धनों से मुक्त होकर शाश्वत शक्ति का भागी बन सकता है। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि हम जीवन का क्या उपयोग करें। शरीर सुख के लिए साधन जुटाने-अहंकार तृष्णा और वासना को पूरा करने में लगा दें या आत्मकल्याण एवं परमार्थ का साधन बनाने में प्रयुक्त करें। दोनों ही मार्ग स्पष्ट हैं। दोनों के परिणाम भी स्पष्ट हैं। भौतिकवादी जीवन में शरीर सुख की सम्भावना तो रहती है, पर वह लक्ष एक प्रकार से तिरोहित हो ही जाता है जिसके लिए ईश्वरीय वरदान स्वरूप यह दिव्य जन्म प्राप्त हुआ है। इन्द्रिय सुखों में और वासनाओं की पूर्ति में कुछ ऐसा आकर्षण है कि दुर्बल स्वभाव का प्राणी अनायास उधर ही झुक जाता है। तकाजा यही है कि इतनी छोटी कीमत में, 84 लाख योनियाँ के बाद लाखों-करोड़ों वर्षों की प्रतिक्षा के पश्चात् प्राप्त हुए इस मानव जन्म को नष्ट न होने दें। इन्द्रिय सुख तो कीट-पतंग एवं पशु-पक्षी भी अपनी-अपनी योनियों में प्राप्त कर लेते हैं यदि उतनी सी ही वस्तु इस शरीर में भी प्राप्त हुई फिर इसकी श्रेष्ठता क्या रह जाती है?

आत्मकल्याण, संसार की सेवा का परमार्थ एवं अनुकरणीय उदाहरण छोड़ जाने का उज्ज्वल यश यह तीनों बहुमूल्य वस्तुएं इन्द्रिय भोगों आदि तृष्णा साधनों की अपेक्षा कहीं अधिक मूल्यवान हैं। फिर मूल्यवान वस्तु की उपेक्षा करके घटिया चीज पर क्यों फिसला जाय? मनुष्य को जो असाधारण बुद्धिबल मिला हुआ है उसकी सफलता इसी में है कि जीवनयापन जैसे महत्वपूर्ण प्रश्न पर दूरदर्शिता पूर्ण निश्चय किया जाय और स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म को, भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता को अधिक महत्व दिया जाय।


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