प्रार्थना की अदृश्य सामर्थ्य

May 1960

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(श्री रामजी द्विवेदी, बी. ए. ऑनर्स)

जिस समय हमें चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखायी पड़ता है, बुद्धि बेकाम हो जाती है उस समय प्रार्थना ही एकमात्र अचूक रक्षा-कवच है।

-महात्मा गान्धी

प्रारब्ध की चूक या वर्तमान जीवन के कुकृत्यों के फलस्वरूप जीवन में संकट की उपस्थिति होती है। उस समय आधार-भूमि खिसकती नजर आती है, हितैषी और बन्धु-बान्धव किनारा काट लेते हैं, भविष्य तिमिराच्छन्न हो जाता है और अक्ल पर पत्थर पड़ जाता है, उस विकट क्षण में प्रार्थना ही एक ऐसा प्रकाश-स्तम्भ है जहाँ पीड़ित और भ्रान्त प्राणी त्राण पा सकता है। संकट में तो नास्तिक को भी आस्तिक बन जाना पड़ता है। महान संकट से अपने आप या राष्ट्र को आच्छन्न पाकर नास्तिक हिंसक और क्रूरकर्मा नायकों को भी रक्षा हेतु प्रार्थना का अंचल पकड़ना पड़ा है। अमेरिका पर संकट की छाया पड़ने पर रुजवेल्ट और ट्रूमैन ने, जर्मनी पर आफत आने पर हिटलर ने, ब्रिटेन पर विनाश बादल मँडराते देख चर्चिल ने, मास्को को संहार के मुख में देख स्टालिन ने स्वधर्मानुसार प्रार्थना करने के लिए देशवासियों से अपील की थी।

पाश्चात्य ढाँचे और साँचे में ढले बाबू लोग प्रार्थना को अकर्मण्यता का पोषक और मिथ्या मन मोदक कहकर भले ही इसकी खिल्ली उड़ावे पर आज के घोर भौतिकवादी देशों में भी ऐसे लोग मिलेंगे जो प्रार्थना की अपरिमेयता के कायल हैं। प्रार्थना से संकट नाश एक अविश्वास नहीं, वरन् वैज्ञानिक मंथन का प्रतिफल है। विचार-शक्ति और शब्द की अमरता-सभी वैज्ञानिकों को मान्य है। प्रार्थना के समय सूक्ष्म वायु बदले में निहित बलप्रद प्रेरक विचार प्रार्थी को अतुल शक्ति नव चेतना और अभिनव बल प्रदान करते हैं। विचार अपने अनुकूल विचारों के आकर्षण द्वारा तदनुकूल परिपुष्ट, परिपक्व और उत्तरोत्तर उन्नत हो प्रार्थी के मनोभिलाषा की तत्क्षण पूर्ति करते हैं।

प्रार्थना से तात्पर्य है- परमात्मा से बातचीत करना उनसे संपर्क और आत्मीयता स्थापित करना। और फिर, उस जनम-मरण के साथी को खुले हृदय में प्रतिष्ठित होना ही पड़ता है। ईश्वर शक्ति का अकूत भंडार, बल, उत्साह, प्रेरणा, स्फुरणा का ‘पावर हाउस’ है प्रार्थना में हम उससे शक्ति प्राप्त करते हैं और संकट से हमारा पिण्ड छूट जाता है।

प्रार्थना की शक्ति में संकट-निवारिणी ताकत में विश्वास बुद्धि की चेष्टा से या तर्क की तीक्ष्ण दृष्टि से सम्भव नहीं, उसके लिए तो आत्मा का अनुभव ही वाँछनीय है। अति दीनता युक्त आर्त्तभाव की सच्ची प्रार्थना संकट को टालती ही नहीं समूल नष्ट भी कर देती है। प्रार्थना के द्वारा संकट के नाम से अभिहित साँसारिक घटनाओं का स्वरूप से नाश तो सम्भव है ही, साथ ही अज्ञान नष्ट हो जाने से दुनिया की स्थूल दृष्टि में सुख-दुख प्राप्त होते हुए भी प्रार्थी ने ‘दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते’ की स्थिति में पहुँच संकट से अलिप्त ही रहता है।

प्रार्थना के द्वारा योग-क्षेम वहन का गुरु भार भगवान के कन्धों पर आ जाता है। फिर तो सारी प्रतिकूल परिस्थितियाँ अनुकूल होने लगती हैं। उनमें मन लगाने वालों के लिए तो उनका कहना है-”मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादाप्तरिष्यसि।” (गीता 18। 58) अर्थात् मुझमें मन लगा लो, फिर मेरी कृपा से सारी कठिनाइयों से पार हो जाओगे। सभी संकटों से मुक्त होने के लिए प्रार्थना एक अमोघ साधन है। सभी संकटों में विपत्तियों में मम पन सरनागत भयहारी के वक्ता भगवान को पुकारो, वे ‘तेषामंह समुद्धर्मा’ की उद्घोषणा के अनुसार तुम्हारा संकट नष्ट कर देंगे।

सनातन काल से ही प्रार्थना द्वारा असंख्य विपद् ग्रस्त प्राणियों ने संकट नाश किया। सूरदास ने ललित ढंग से प्रार्थना द्वारा राज और द्रौपदी के संकट शमन का चित्र खींचा है-

जब लग गज बल अपनो बरत्यो,

नेक सर्यों नहिं नाम।

निर्बल ह्वै बल राम पुकार्यो,

आए आधे नाम॥

द्रुपद-सुता निर्बल भइता दिन,

तजि आए निज धाम।

दुःशासन की भुजा थकित भए,

बसन रूप भये स्याम॥

इतिहास भी हुमायूँ के प्राण-रक्षण के लिए की गयी बाबर की फलवती प्रार्थना को स्वीकार करता है। आधुनिक युग के महापुरुष परम भाग गाँधीजी ने प्रार्थना को वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक रूप प्रदान कर अपने व्यक्तिगत और समष्टि रूप जीवन में इसका सफल प्रयोग किया। प्रार्थना से सैकड़ों मरणासन्न रोगियों को जीवन लाभ हुआ है। कितने सन्त जेल में थे-पर प्रार्थना के बल पर दरवाजे खुल गए, बेड़ियाँ टूट गयी और वे मुक्त हो गए। आज हजारों ऐसे व्यक्ति हैं जिनका सारा दारोमदार प्रार्थना पर ही निर्भर है।

संकट और आपातकाल में प्रार्थना द्वारा अदृश्य और अलभ्य सहायता अवश्य प्राप्त करो। यदि सब तरह से निराश हताश हो गए हो, तो इस परीक्षित, अनुभूत योग का प्रयोग अवश्य करो। तुम्हारे संकट टिक न सकेंगे। प्रार्थना में अतुल शक्ति है, अमोघ और आशु प्रभाव है। प्रार्थनामय जीवन होने के बाद तो संकट जीवन में आने ही नहीं, न कोई कामना ही शेष रहती है-रही कुछ न हसरत न कुछ आरजू है।

सद्बुद्धि ही सर्वकल्याण और संकट हरण के मूल में होने से प्रार्थना की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति गायत्री मन्त्र में हुयी है। वेदों ने गायत्री को सर्वोच्च आसन देकर प्रार्थना का महत्व ही की स्वीकार किया है। क्योंकि गायत्री और कुछ नहीं -प्रार्थना ही है। गायत्री की शरण से करोड़ों ने संकट का मूलोच्छेद किया है।

हम संकट आने पर अधीर न हों, अपने प्रभु के इस नवीन यश का स्वागत करें। कुन्ती की तरह संकट को प्यार करें। संकट में ही तो वे स्मृति पट पर ठीक से आते हैं। भगवान् हमारे अति समीप हैं। हमारी प्रत्येक स्थिति उन्हें ज्ञात है। यदि उन्हें विश्वास पूर्वक पुकारा जाय तो वे उस पुकार को सुनकर स्थिर नहीं रह सकते। शीघ्र दुःख और संकट से तारेंगे। प्रभु परम दयालु परम सुखद हैं। हम उन्हें भूल गए हैं वे हमें नहीं भूले हैं। हाँ, भव-भय-भंजन विरद पर अटूट आस्था रख कर एक बार श्रद्धा और विश्वासपूर्ण वाणी से उस हेतु रहित जुग-जुग उपकारी को पुकारकर देखें तो सही हमारे संकट जीवित रह नहीं सकते। उस परम प्रभु की शरण में जाकर हम सब तरह से निर्भय हो सकते हैं।

दुख और सुख में भगवान को अपना साझीदार बनाकर हम अपने अहंकार और कष्ट को हलका कर सकते हैं। उपासना और प्रार्थना के द्वारा हम उस परम प्रभु के निकट तक जा पहुँचते हैं जिसकी कृपा की एक किरण से ही हमारी सारी उलझी हुई गुत्थियां सुलझ सकती हैं। ऐसे अमूल्य साधन को यदि हम आलस्य एवं उपेक्षा के कारण तिरष्कृत करते हैं तो वह हमारी भारी भूल ही कही जा सकती है। ऊंचे अफसरों और महापुरुषों का परिचय अनुग्रह और सान्निध्य प्राप्त करने के लिए हमें कितना धन और समय खर्चे करते हुए प्रसन्न करते हैं, पर परमात्मा की मित्रता प्राप्त करने के लिए उपासना में कुछ भी समय लगाते हुए झिझकते हैं। इसे बुद्धिमत्ता नहीं कहा जा सकता।


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