(देवी भागवत पुराण से)
एक समय की बात है कि पृथ्वी पर घोर अकाल पड़ा। अनावृष्टि के कारण सब ओर सूखा ही सूखा दिखाई पड़ने लगा। बड़े-बड़े सरोवर भी सूख गए। पशु-पक्षी सभी जल के लिए भटकने लगे। घरों में मनुष्यों की लाशें सड़ने लगी। नीचे से पृथ्वी का रस सूखा और ऊपर से सूर्य का ताप इतना बढ़ा कि अग्नि-वर्षा सी होने लगी।
यह बात सभी जानते थे कि महर्षि गौतम की तप-शक्ति बहुत बढ़ी-चढ़ी थी। गौतम जी गायत्री के उपासक थे। संयम और दुर्भिक्ष होते हुए भी उनके आश्रम की भूमि में सुभिक्ष था। वहाँ जल की और अन्न की कोई कमी नहीं थी।
इस स्थिति में बहुत से ब्राह्मण एकत्र होकर महर्षि के आश्रम पर पहुँचे और कुशल-प्रश्न के अनन्तर उन्होंने अपना कष्ट कह सुनाया महर्षि ने उन्हें हर प्रकार सान्त्वना दी और उनसे वहीं रहने का अनुरोध किया।
गौतम महर्षि ने भगवती गायत्री से प्रार्थना की अम्बे मैं तुम्हें बारम्बार नमस्कार करता हूँ। तुम प्राणियों की विपत्तियों को दूर करने में समर्थ हो। इस घोर दुर्भिक्ष के समय में मैं भी प्राणियों की सेवा कर सकूँ, ऐसा बल दो। हे जगज्जननी, तुम ही इस घोर संकट से उद्धार करने वाली हो।
माता गायत्री ने कहा - महर्षि मैं तुम्हें यह अक्षय पात्र देती हूँ। वृक्ष के समान यह पात्र तुम्हारी इच्छित वस्तुओं से सदापूर्ण रहेगा।
वही हुआ। अक्षय पात्र के द्वारा अन्न, वस्त्र, आभूषण, धन-धान्य सभी के ढेर लग गए। ब्राह्मणों की पत्नियाँ श्रेष्ठ वस्त्रालंकार में देवांगनाएं जैसी लगने लगीं। महर्षि जब जिस वस्तु की इच्छा करते, तभी उस वस्तु को अक्षय पात्र पूर्ण कर देता। उस समय वह आश्रम चारों ओर सौ-सौ योजन बढ़ गया था और वहाँ की शोभा इन्द्रपुरी की शोभा से भी बढ़ी चढ़ी थी।
उस गौतम-नगरी में यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म विधिवत होते थे। देवगण भी यज्ञ भाग पाते हुए प्रसन्न थे। गौतम का यश सर्वत्र छा गया था। देवराज इन्द्र ने भी अपनी सभा में इनकी अत्यंत प्रशंसा की। भगवती गायत्री के अनुग्रह से वे बारह वर्षों तक सब परिवारों का भरण-पोषण करते रहे।
महर्षि गौतम की प्रशंसा सर्वत्र फैल गई। उन्होंने प्राणी-मात्र के कल्याण करने की जो प्रार्थना भगवती गायत्री से की थी, उसके फल-स्वरूप जल सृष्टि और धन-धान्यादि की उत्पत्ति होने लगी। सूर्य का ताप अपनी विकरालता छोड़कर पूर्व मान पर आ गया। इससे उत्पन्न हुए उत्कर्ष को कुछ ईर्ष्यालु व्यक्ति सहन न कर सके। उन्होंने माया की एक गौ निर्मित की, जिसका देह जीर्ण-शीर्ण था। उनकी प्रेरणा से वह गौ महर्षि के आश्रम के सामने जाकर मर गई। तब उन दुष्टों ने उसकी हत्या का आरोप महर्षि पर लगाने की चेष्टा की।
महर्षि को इस कार्य से अत्यंत क्षोभ हुआ। वे नेत्र मूँद कर समाधि में लीन हो गए। तब उन्हें इस चाल का पता लग गया। समाधि भंग होने पर महर्षि ने उन्हें शाप दिया- ‘मूर्खों! तुम अपने कर्म का फल भोगो और वेदादि कर्मों से विमुख, अधम गति प्राप्त करो।’
शाप के कारण उन ईर्ष्यालु व्यक्तियों का सभी ज्ञान लुप्त हो गया, उन्होंने जो कुछ अध्ययन आदि किया था, उस सबको ही वे भूल गए, उनका सम्मान नष्ट हो गया। समाज में उनकी पूछ न रही। सभी मनुष्य उनसे घृणा करने लगे।
अब उन्हें अपने दुष्कर्म पर पश्चाताप होने लगा। वे उस स्थिति से मुक्त होने का उपाय सोचने लगे। जब कोई यत्न न सूझा तब वे झिझकते हुए, सिर झुकाए हुए महर्षि के पास पहुँचे और उनके चरण पकड़कर क्षमा याचना करने लगे। उन्होंने कहा- ‘महर्षि! हमसे भीषण अपराध बन पड़ा है। परंतु आज उदार मन वाले हैं, हमारे दुष्कर्म को क्षमा कर दीजिए। हे ऋषि श्रेष्ठ! हम पर प्रसन्न हो जाइये। हमारे अपराध को भूल जाइये।’
उनका रुदन सुनकर गौतम का हृदय भी भर उठा। वे बोले ‘भगवती गायत्री की उपासना से तुम्हारा कल्याण संभव है। अतः एकाग्र मन से उन्हीं का जप करो।’
उन्हें विदा करने के पश्चात् महर्षि ने सोचा- ‘इन बेचारों का कोई दोष नहीं था। यह सब प्रारब्ध का ही खेल है। भगवती गायत्री इनका कल्याण करे।’ यह कहकर वे पुनः भगवती की उपासना में लग गए।
भक्ति विभोर गौतम को पुनः भगवती के दर्शन हुए। उन्होंने माता की स्तुति की और निवेदन किया कि - ‘हे अम्बे! संसार में पुनः समृद्धि छा गई है। सभी प्राणी आपकी कृपा से सुखी हैं। सर्वत्र सुभिक्ष और महान ऐश्वर्य दृष्टिगोचर हो रहा है। सभी पीड़ित जन अपने-अपने घरों को जा चुके हैं। अब आपका यह अक्षय-पात्र मेरे किस काम आवेगा?’
माता ने गौतम के शिर पर स्नेह पूर्वक हाथ फेरा और बोली ‘गौतम! मेरी दी हुई सिद्धि तुम्हारे पास रहे। यह कभी न कभी तुम्हारे काम आवेगी।’
गौतम बोले- ‘मातेश्वरी! तुम्हारी यह सिद्धि अब मुझे नहीं चाहिए। जब तक यह परमार्थ में लगी रही, तब तक तो उपयोगी थी, परंतु अब मुझे यह भार रूप लग रही है। इसके कारण मेरी बुद्धि कुँठित होने लगी है। इसके पास रहने से प्रमाद और ईर्ष्या की उत्पत्ति संभव है।’
माता ने महर्षि का हृदयगत भाव समझ लिया। वे बोली- ‘जैसी तुम्हारी इच्छा है, वही होगा।’
यह कहकर माता गायत्री अंतर्ध्यान हो गई। महर्षि की इच्छानुसार अक्षयपात्र की शक्ति समाप्त हो गई। जिस आश्रम में इन्द्रपुरी जैसी शोभा विराजमान थी, वह आश्रम अब नीरव और निताँत शान्त हो गया था।
अब महर्षि का मन भी शान्त था। वे पुनः भगवती की उपासना में लीन हो गए।