विश्व-रचियता ईश्वर

May 1960

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(श्री चूड़ामन मोतीलाल मुन्शी)

इस विचार से अधिक मूर्खता की बात हो क्या सकती है कि सारे ब्रह्माण्ड की रचना एक आकस्मिक घटना है जब कि कला की सारी चतुराई एक सीप बनाने में भी असमर्थ है।

- जर्मी टेलर

आज के इस विज्ञान के चमत्कारिक युग में प्रायः बहुत से लोगों को यह कहते सुना जाता है कि ईश्वर नहीं है, यदि है तो उनकी तर्कशील बुद्धि को कोई ठोस प्रमाण की आवश्यकता है। अन्यथा वे इसे कोरी कल्पना कहने में जरा नहीं हिचकते। यदि हम उपर्युक्त सन्तवाणी के शब्दों पर अपना ध्यान एकाग्र करें तो हमें ईश्वर के आस्तित्व का बहुत कुछ ठोस प्रमाण मिलता है।

इस ब्रह्माण्ड की रचना सचमुच मनुष्य को आश्चर्यचकित कर देती है। आकाश, सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथ्वी, वायु आदि की ओर ध्यान देने से हमारे मन में सहज ही यह विचार उठता है कि यह सब क्या है? इनका रचयिता कौन होगा? परंतु हम इसका ठीक से निर्णय न कर खामोश हो जाते हैं? हम आकाश की ओर ध्यान देते हैं तो उसकी सीमा का अनुमान लगाना हमारी बुद्धि से परे प्रतीत होता है। चन्द्र, सूर्य नित्य अपने कर्तव्यों पर आरुढ़ हैं। वायु भी अपने कर्तव्य पर डटी हुई है। तारागणों में झुँड के झुँड अपनी प्रतिभा से आकाश को सुशोभित करते हैं। वसुँधरा दिन-रात अविराम दौड़ लगा रही है। तात्पर्य यह कि यह सब नियमानुसार प्रतिदिन अपना-अपना कर्तव्य करते चले आ रहे हैं।

उक्त नियम तथा संचालन कार्य को देखकर हमें यह मानने के लिये विवश हो जाना पड़ता है कि इन सब के पीछे कोई महान् अदृश्य शक्ति कार्य कर रही है। इसी अदृश्य शक्ति को हम ईश्वर के नाम से पुकारते हैं। यदि उक्त नियम और संचालन कार्य में तनिक भी त्रुटि हो जाए तो कदाचित ही इस धरा पर किसी जीव का अस्तित्व शेष रहे। यदि हम इसे आकस्मिक घटना कहें तो यह युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि सूर्य, चन्द्र, तारागण, पृथ्वी आदि किसी शक्ति के आश्रय बिना अपने-अपने स्थान पर रहते हुये नियमानुसार कार्य नहीं कर सकते, उन्हें किसी विवेकशील शक्ति का सहारा अपेक्षित है।

उन्हें किसी विवेकशील शक्ति ने अपने अधीन करके उन्हें नियमबद्ध कर रखा है तथा अपने आश्रय से उन्हें अपने-अपने स्थान पर टिका रखा है। यदि ये आश्रयविहीन होते तो कभी का इनका भी आस्तित्व नष्ट हो गया होता। इनमें नियमानुसार कार्य करने की बुद्धि है, जैसा भी आज तक किसी ने प्रमाणित नहीं किया है। अपितु इनमें बुद्धि नहीं है, ये जड़ हैं, ऐसा प्रमाणित हो चुका है। अतः यह मानना उचित है कि उक्त अदृश्य शक्ति के इशारों पर ही यह खेल हो रहा है और भविष्य में कब तक यह खेल होता रहेगा यह मनुष्य की बुद्धि से परे है।

चन्द्र, सूर्य की आकृतियाँ गोल तथा सुन्दर प्रतीत होती हैं, उनमें कहीं भी टेढ़ा या तिरछापन नहीं दिखाई देता। रात्रि में इनका और तारागणों का टिमटिमाता हुआ प्रकाश मन को कितना प्रसन्न करने वाला होता है? क्या इन्हें सुन्दर बनाने में किसी कलाकार का हाथ नहीं? है, अवश्य ही वह अदृश्य शक्ति (ईश्वर) ही इनकी कलाकार है। जैसे हमें एक चित्र को देखकर उसके बनाने वाले चित्रकार का बोध होता है उसी प्रकार इस विश्व की अनूठी रचना और उसके नियमबद्ध कार्य को देखकर उनके रचयिता और नियामक के बोध का महत्व सिद्ध हो जाता है।

मानव सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना जाता है और मानव-शरीर को ईश्वर की कलाकारी का एक सर्वोत्तम नमूना है। उसके अंग प्रत्यंगों की रचना उसके रचयिता की कुशल बुद्धि का परिचय देती है। हमारे शरीर का प्रत्येक अंग कितना उपयोगी है? खाने के लिये मुँह, स्वाद के लिए जिव्हा, देखने को नेत्र, सूँघने को नासिका, श्रवण के लिये कान, चलने के लिये पैर और मल आदि निकलने के लिये मार्ग बना दिये गये हैं। मस्तिष्क की सूक्ष्मातिसूक्ष्म नसें और आन्तरिक अवयवों की रचनाओं पर ध्यान देने से सचमुच उस रचियता की बुद्धि पर अवाक् हो जाना पड़ता है। यदि इस रचना में त्रुटि हो जावे अर्थात् कान के स्थान पर मुँह, मुँह के स्थान पर कान आदि की रचना हो जावे तो मनुष्य का जीवन जीवन न रहे अपितु इस प्रकार के व्यक्ति का जीवित रहना असंभव हो जावे। इस प्रकार की व्यवस्थित रचना करने वाला ईश्वर के अतिरिक्त और कौन हो सकता है?

बालक के गर्भकाल की क्रिया भी हमें आश्चर्यचकित कर देती है। जब बालक माना के गर्भ में रहता है तब उसके अंगों की रचना क्रमशः होती है तथा उसे उसकी खुराक भी प्राप्त होती रहती है। उक्त क्रिया बालक की माता द्वारा संचालित होने पर भी वह उससे अनभिज्ञ रहती है। उसे यह पता नहीं कि वह क्रिया कैसे और किस प्रकार होती है। फिर उस गर्भकाल में होने वाली क्रिया का कर्ता कौन हो सकता है? ईश्वर।

हम एक बल्ब बनाने की मशीन की ओर अपना ध्यान दें तो हमें पता चलेगा कि 25 नंबर के बल्ब बनाने वाली मशीन 25 नंबर के बल्ब ही बना सकेगी। 20 या 30 नंबर के बल्ब वह नहीं बना सकेगी। इसी प्रकार एक ही माता के होने पर भी उसके द्वारा उसकी सन्तान की भिन्न-भिन्न आकृतियाँ क्यों उत्पन्न होती हैं? इससे पता चलता है कि इन आकृतियों को उत्पन्न करने वाली कोई ज्ञानवान् शक्ति है और विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ बनाने में उसी शक्ति का हाथ है।

जब बालक इस संसार में अवतीर्ण होता है तब उसकी आकृति पर जन्म से ही भय, मुस्कुराहट, रुदन आदि के भाव स्पष्टतः दृष्टिगोचर होते हैं। बालक के इन भावों का उत्पन्नकर्ता भी ईश्वर के अतिरिक्त और कौन हो सकता है।

शरीर परिवर्तन की क्रिया भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। शारीरिक बढ़ावा अन्न, जल आदि को बचाने वाली भी तो कोई शक्ति अवश्य होना चाहिये। बिना कर्ता क्रिया कैसे सम्भव है? क्या वह पचाने का कार्य हम करते हैं? नहीं हमारे द्वारा यह कार्य होने पर भी हम उस क्रिया के कर्ता से अनभिज्ञ हैं। अतः वह शक्ति ईश्वर की ही है।

साग-सब्जी फल-फूल, वनस्पति, औषधियाँ और नाना प्रकार के वृक्ष आदि के बीज बोने पर वह कौन सी बुद्धिमत्ति शक्ति है जो बीज के अनुसार पौधा और उपज उत्पन्न करके उन्हें पुष्ट करती और समय-समय पर फल-फूल पैदावार, उपज आदि प्राप्त कराती रहती है? इस का उत्तर ईश्वर ही हो सकता है।

महात्मा गाँधी की निम्नाँकित वाणी में भला किसे अविश्वास हो सकता है? वह कहते हैं-

“मैं धुँधले तौर पर जरूर यह अनुभव करता हूँ कि जब मेरे चारों ओर सब कुछ बदल रहा है, मर रहा है, तब भी इन सब परिवर्तनों के नीचे एक जीवित शक्ति है जो कभी नहीं बदलती, जो सब को एक में गुंथित करके रखती है, जो नयी सृष्टि करती, उसका संचार करती है और फिर नये सिर से पैदा करती है। वही शक्ति ईश्वर है, परमात्मा है। मानता हूँ कि ईश्वर जीवन है, सत्य है, प्रकाश है। वह प्रेम है। परम मंगल है।”

प्रातः स्मरणीय गोस्वामी श्री तुलसीदास जी की वाणी का असत्य कहने का साहस किसमें हो सकता है उन्हीं के शब्दों में सुनिये।

व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी।

सत चेतन धन आनन्दराशी॥

आदि अन्त कोऊ जासु न पावा।

मति अनुमान निगम अस गावा।

बिनु पद चले सुने बिनु काना॥

कर बिनु कर्म करे विधि नाना॥

आनन रहित सकल रस भोगी।

बिनु वाणी वक्ता बड़ योगी॥

तन बिनु परसु नयन बिन देखा।

गहे घ्राण बिनु वास अशेषा।

अस सब भाँति अलौकिक करणी।

महिमा तासु जाई किमि बरणी॥

उपरोक्त लेख का यह सार निकलता है कि इस विश्व की रचना ईश्वर ने की है और सारा चराचर जगत उस ईश्वरीय शक्ति से व्याप्त है तथा उसका विनाश करने में कोई समर्थ है। यह शक्ति अपरिवर्तनशील, सनातन, सर्वशक्तिमान ज्ञानमय आनन्दमय और सर्वज्ञ है।

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तु मर्हति॥

गीता

अतएव इस ब्रह्माण्ड की रचना को घटना मानना सर्वथा अनुचित है। उस चतुर, बुद्धिमान विवेकवान्, सर्वज्ञ सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान्, कलाकार की कलाकारी के समक्ष सचमुच हमारी कला की सारी चतुराई एक सीप बनाने में भी असमर्थ सिद्ध होगी। अस्तु।


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