चिन्तन कम ही कीजिए।

May 1960

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(डॉ. रामचरण महेन्द्र एम. ए. पी.एच. डी.)

क्या आप अत्याधिक चिन्तनशील प्रकृति के हैं? सारे दिन अपनी बाबत कुछ न कुछ गंभीरता से सोचा ही करते हैं? कल हमारे व्यापार में हानि होगी या लाभ, बाजार के भाव ऊँचे जायेंगे, या नीचे गिरेंगे। अमुक ने हमारा रुपया उधार ले रखा है, वह वापस करेगा भी या हड़प लेगा? दिनों दिन बाजार में महंगाई उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। कल का खर्च कैसे चलेगा? कन्या बड़ी होती जा रही है। उसके लिये योग्य समृद्ध और शिक्षित वर का कैसे प्रबन्ध होगा? हमारा पुत्र पढ़ता कम है। सारा समय खेलने में व्यतीत करता है। परीक्षा में कैसे उत्तीर्ण होगा? हमारी नौकरी लगी रहेगी, या छूट जायगी? हमारा स्वास्थ्य गिरता जा रहा है, कैसे सुधरेगा? हमें जल्दी ही लम्बी यात्रा पर जाना है। मार्ग की कठिनाइयाँ कैसे हल होंगी? ऐसी ही किसी समस्या को लेकर आप दिन-रात चिन्तन करते रहते हैं।

दीर्घ स्थायी थकान

आप अपने मस्तिष्क को सारे दिन विशेषतः रात में किसी भी चिन्तन की क्रिया में डाल देते हैं। जैसे गाड़ी का पहिया किसी लीक में पड़ कर आगे निरन्तर उसी दिशा में बढ़ता रहता है, उसी प्रकार मस्तिष्क को चिन्तन की किसी भी समस्या में उसको लगा देने से वह उसी में फँसा रहता है। वह खुद रुकता नहीं बल्कि चिन्तन के प्रवाह में आगे बढ़ता रहता है। मस्तिष्क तो चिन्तन का एक यंत्र है। उसका कार्य चिन्तन करना ही है। यदि आप उसे कोई अच्छी या बुरी समस्या दिये रहेंगे, तो निश्चय जानिये, वह उसी समस्या के उखाड़-पछाड़ में संलग्न रहेगा। वह विश्राम की परवाह न कर बौद्धिक चिन्तन ही किए जायगा।

आधुनिक मनोविज्ञान वेत्ताओं की नई खोज यह है कि अधिक बौद्धिक चिन्तन मनुष्य के शरीर के लिए हानिकारक है। जो जितना अधिक मानसिक चिन्तन करता है, उसका शरीर उतना ही क्षीण होता जाता है। भूख नष्ट हो जाती है। भोजन में कोई भी रुचि नहीं रह जाती। रक्तचाप, व्रण, हृदय रोग, सिर दर्द आदि उभर उठते हैं। चिन्तनशील व्यक्ति प्रायः भयभीत से, शंकालु से और भविष्य के लिए चिन्तित रहते हैं। गुप्त मन में बैठा हुआ उनका भय ही उन्हें खाया करता है।

आप बौद्धिक चिन्तन या मानसिक श्रम करने वालों के स्वास्थ्य को देखिए। वे पहले दुबले रहते हैं तो भी शरीर पर माँस नहीं बढ़ता। उनकी हड़ियाँ ही हड्डियाँ चमका करती हैं। मेरे एक मित्र हैं जो लेखन का काम करते हैं। एक दिन मेरे पास आये। बोले रात में नींद नहीं आती। फल यह होता है कि सारे दिन थकान बनी रहती है। हाथ पाँव टूटते से रहते हैं। नेत्रों में नींद छाई रहती है और सर भारी रहता है। डॉक्टर को दिखाया तो न बुखार है, न इन्फ्यूलेन्जा, न और कोई शारीरिक विकार पर थकान बनी रहती है। दिमाग में सारे दिन रात एक अजीब प्रकार का तनाव बना रहता है।

हमने उन्हें बताया कि इस मानसिक व्यग्रता का मुख्य कारण सतत चिन्तन है। अधिक बौद्धिक चिन्तन से स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ता है। उसी की प्रतिक्रिया इनके शरीर पर दिखाई देती है। इन्होंने अपने मस्तिष्क को आराम नहीं दिया वरन् लगातार चिन्तन करते-करते उसे इतना कार्य बोझिल बना दिया कि मानसिक तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई। अधिक सोचने-विचारने से, दिमाग सारे दिन चिन्तन में लगाये रखने से स्नायु पर अतिरिक्त भार पैदा हो गया। इससे शारीरिक क्रियाओं में रुकावट उत्पन्न होने लगी। फलस्वरूप अपने को मानसिक दृष्टि से थका हुआ पाने लगे।

एक परीक्षार्थी की समस्या

इस दिन की परीक्षा देने के उपरान्त एक परीक्षार्थी अस्पताल गया। उसे रक्त चाप, अनिद्रा, थकावट, जीर्ण, सिर दर्द और हृदय रोगों की शिकायत प्रारंभ हो गई थी। डॉक्टर ने उसके शरीर की परीक्षण की, जीभ देखी, फिर कब्ज के कारण यह सब होना समझकर पेट की सफाई की चिकित्सा प्रारम्भ की, लेकिन कोई लाभ न दिखाई दिया। रोगी उसी प्रकार कुम्हलाया और मुरझाया सा रहा। उसके नेत्र कुछ लाल से कुछ चढ़े हुए से दीखते रहे, मुख पर चिन्ता मिश्रित निराशा झलकती रही। अन्त में कोई रोग नहीं है, यह कह कर अस्पताल से विदा किया गया।

फिर वही विद्यार्थी मेरे पास सलाह के लिए आया। मुझसे देह तक अपनी परीक्षा संबंध तैयारी, अधिक पढ़ना लिखना, रात में रोशनी के सामने घण्टों पढ़ते रहना तथा असंख्य तत्वों की जानकारी को मन में स्मरण रखने की कोशिश करने की बाते बताता रहा।

वह बोला, प्रोफेसर साहब, क्या बताऊं वर्ष छह महीने तो मित्रों में मजेदारी, यूनियन के नाम कार्यों, सैर सपाटा में बीत गये। छह माही परीक्षा तैयारी न होने की वजह से बैठे ही नहीं। जैसे परीक्षा पास आई सोचने लगे कि पढ़ाई से कोर्स कैसे तैयार हो। फिर तो सब काम छोड़कर केवल एक मात्र अध्ययन ही में लग गये। दिन रात परीक्षा तथा कोर्स का ही चिन्तन और सब संसार जैसे खो चुका हो। रात में सोते, तो स्वप्न में भी परीक्षा में बैठे-2 पर्चे करते ही अनुभव करते। फल यह हुआ कि सारा मस्तिष्क भारी थकान में बोझिल हो उठा।

बौद्धिक परिश्रम की भी एक सीमा है। आपका मस्तिष्क जितना भार संभाल सकता है, उतना ही चिन्तन, विचार और मनन इत्यादि करना चाहिए। इस सम्बन्ध में कुछ पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों की नई खोजें और बहुमूल्य विचार यहाँ उद्धृत किये जाते हैं। मानस रोगों के सम्बन्धों में डॉक्टर डेविड हैराल्ड फिल्क के विचार क्रान्तिकारी हैं। वे लिखते हैं-

मानसिक रोगों से पीड़ित अधिकाँश व्यक्तियों के रोगों की जड़ आवश्यकता से अधिक चिन्तन करना है बहुत सोच विचार करने से मस्तिष्क थकान से भर जाता है और स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कुछ मानसिक रोगियों का परीक्षण करने से मैंने पाया है कि वे आवश्यकता से अधिक सोच विचार करते हैं। इन लोगों के मस्तिष्क सदैव व्यस्त रहते हैं। वे वास्तविक या काल्पनिक समस्याओं की उधेड़ बुन में सदैव लगे रहते हैं या हम समस्याओं के अभाव में यही कल्पना करते रहते हैं कि अमुक स्थिति के उत्पन्न होने पर हमारी प्रतिक्रिया क्या होगी। इस सतत चिन्तन के फलस्वरूप जो मानसिक तनाव स्वास्थ्य पर तो पड़ता ही है, भावात्मक सम्बन्ध भी अव्यवस्थित हो जाते हैं।

समस्या का निदान

आप पूछेंगे मानसिक तनाव और यह दीर्घ थकान कैसे दूर हो? हमारा क्या दृष्टिकोण होना चाहिये?

डॉक्टर फिल्क का उत्तर, “पूर्ण स्थिर व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है कि आपके विचार और कार्यों में समुचित समन्वय हो।” अर्थात् आप जितना सोचें और चिन्तन करें, उतना ही शारीरिक कार्य करें, हाथ पाँव हिलायें। खूब खेलें कूदें, अपने शरीर से भी परिश्रम करें।

शारीरिक व्यायाम और हाथ पाँव का कार्य करने, मनोरंजन करने, खेल-खेलने से मानसिक रोगियों का तनाव कम हो जाता है। उनका मन चिन्तन से हटकर अन्य कार्यों में लगता है। इससे मस्तिष्क को आराम मिलता है। डॉक्टर फिल्क ने अपने मानस रोगियों को कम से कम एक घन्टे तक कुछ न सोचने की सलाह दी है। ऐसा करने से भावात्मक तनाव कम होता है।

सोचिये कम, कीजिए अधिक-यह नियम मस्तिष्क को विश्राम देता है। कार्य करने से आपका समूचा शरीर काम में आता है, अवयव थकते हैं, अच्छी निद्रा आती है। इन शारीरिक क्रियाओं से कुछ विश्राम मिल जाता है।

आप देखेंगे, पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ मस्तिष्क के थकान से कम ग्रसित होती हैं। ये पुरुष की अपेक्षा दीर्घजीवी होती हैं। इसका कारण यह है कि वे हाथ पाँव का श्रम बौद्धिक चिन्तन की अपेक्षा बहुत करती हैं। उनके मस्तिष्क में अति चिन्तन की आदत नहीं होती। एक कारण यह है कि वे अधिक पढ़ी-लिखी नहीं होती। इस वजह से सतत चिन्तन के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले मानसिक रोग उन्हें नहीं सताते। उनका मानसिक संतुलन पुरुषों की अपेक्षा स्वस्थ होता है।

शरीर का भी पर्याप्त कार्य कीजिए। इस प्रकार मस्तिष्क को विश्राम देकर आप अधिक स्वस्थ और निश्चिंत बन सकेंगे। जब किसी निर्णय की आवश्यकता हो, तो पहले मन को शान्तः संतुलित और तरोताजा बनाने की ओर सचेष्ट रहिये ताजगी की स्थिति में आप जो निर्णय करेंगे, वही सही होगा।


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