(महात्मा जेम्स एलन)
कुछ लोगों ने एक को स्त्री पाप करते हुए पकड़ लिया और उसे अपमानित करने के लिए तैयार हो गये कि ईसा मसीह ने उनसे कहा कि जिस व्यक्ति ने कभी पाप न किया हो वही उस पर पहला पत्थर मारे। सभी चुप हो गये। यद्यपि वह स्वयं पूर्ण पवित्र था फिर भी उसने न तो पत्थर उठाया और न कोई कड़े कहे शब्द बल्कि उस स्त्री से अत्यन्त नम्रता से कहा “मैं तुम पर दोषारोपण नहीं करता। जाओ चली जाओ और फिर पाप न करना।” पवित्र हृदय में ऐसा कोई भी स्थान बाकी नहीं रहता जिसमें स्वार्थ और घृणा भरे विचार समा सके क्योंकि ऐसा व्यक्ति तो नम्रता और प्रेम से भरा हुआ होता है। उसको कोई बुराई दीखती ही नहीं। ज्यों-ज्यों मनुष्य दूसरों में बुराई निकालना छोड़ता जाता है, त्यों-त्यों वह स्वयं पाप, दुख और विपत्तियों से छुटकारा पाता जाता है।
वास्तव में जब मनुष्य क्षमाशीलता का पूरा अभ्यास कर लेता है तो बुराई भलाई की वास्तविकता उस पर खुल जाती है और वह भली प्रकार समझ जाता है कि विचार नित्य किस प्रकार से उत्पन्न होते हैं और कैसे बढ़ते-पलते और कार्य रूप में परिणत होते हैं और क्योंकर सामने आते है। जब मनुष्य इस दशा में पहुँच जाता है तो उस का हृदय प्रकाशित हो जाता है और वह शुद्ध, पवित्र और श्रेष्ठ जीवन का आरम्भ करता है क्योंकि अब वह भली प्रकार समझ लेता है कि उसे दूसरों के व्यवहार से न बुरा मानना चाहिए, न शोक करना चाहिए और न ही क्रोध करना चाहिए भले ही उन का व्यवहार और कार्य कैसा ही हो। अब तक वह मूर्खता और नासमझी के कारण ऐसा करता रहा है। यह उस की सरासर भूल थी। अब वह अपने हृदय से प्रश्न करता है कि बार बार बदला क्यों लिया जाय। दूसरों पर हम इतना क्रोध ही क्यों करें कि जिसके लिए आखिर में पछताना पड़े।
क्या आध्यात्मिक उन्नति का यह अर्थ नहीं है कि मैंने अपने क्रोध को जीत लिया है और बदला लेने के विचारों को छोड़ दिया है। यदि बदला लेना और क्रोध करना जरूरी है तो उसके लिये पश्चात्ताप क्यों करें? यदि किसी व्यक्ति ने मेरे साथ बुराई की है तो मेरा उससे घृणा करना क्या बुरा नहीं? क्या एक गलती दूसरी गलती का सुधार कर सकती है? किसी व्यक्ति ने मेरे साथ लड़ाई करके क्या मुझे कुछ हानि पहुंचाई? वास्तविकता यही है कि मेरी ओर से की गई बुराई से दूसरों को तो कुछ हानि नहीं होती बल्कि मेरी अपनी ही हानि होती है। ऐसी दशा में बदला लेने का विचार क्यों मन में लाऊँ? क्रोध क्यों करूं? मन में दूसरों के प्रति विरोधी भावनाओं को क्यों स्थान दूँ? यदि मैं करता हूँ तो इसका कारण यही है कि मैं दम्भी, स्वार्थी और आत्म प्रदर्शन करने वाला हूँ। मेरी अपनी ही मानवता पर कुठाराघात करने वाली भावनाएं मेरे श्रेष्ठ स्वभाव को दबा देती हैं।
अब मैं भली प्रकार देख चुका हूँ कि दंभ, क्रोध और अपने ही नीच विचार मुझे दूसरों के व्यवहार से उत्तेजित कर देते हैं, ऐसी दशा में क्या यह ठीक नहीं कि अपने ही अन्दर देखकर अपनी गलतियों पर विचार करूं बजाय इसके कि दूसरे की गलतियों को देखता फिरूं। जब मैं जान गया हूँ कि दंभ, क्रोध और नीच विचार ही मुझे उत्तेजित करते हैं और उन को जीत लेने के बाद दूसरों का व्यवहार मुझे भड़का न सकेगा तो मैं हमेशा शान्ति से रहूँगा। मन में ऐसे विचार आने पर मनुष्य नम्र, ईर्ष्या व क्रोध रहित हो जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे उस आनन्द की ओर बढ़ता है जिसमें वह दूसरे मनुष्यों में किसी भी दोष को नहीं देख पाता। नीच विचार ही मुझे उत्तेजित करते हैं और उनको जीत लेने के बाद दूसरे मनुष्यों में किसी भी दोष को नहीं देख पाता और सबके लाभ की बात ही सोचता है।
जो मनुष्य वास्तव में नेक व महान होता है वह किसी को भी बुरा नहीं समझता बल्कि सभी को अच्छा समझता है। वह इस मूर्खता से भरे विचार को छोड़ देता है कि दूसरे भी उसके अनुकूल विचार और कार्य करें। वह समझता है कि लोगों के स्वभाव अलग-अलग होते हैं और सभी व्यक्ति आध्यात्मिक विकास के अर्थों में अलग अलग हैं। इसी विकास के अनुसार वह कार्य करता है-घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, आत्म प्रशंसा, स्वार्थ और कलह को छोड़कर वह बुद्धिमान हो जाता है और भली प्रकार समझ जाता है कि नम्रता, दया, प्रेम, सन्तोष और निःस्वार्थ भावना प्रकाश के और क्रोध आदि अन्धकार तथा मूर्खता के चिन्ह हैं। मूर्खता के कारण जो दुख उठाने पड़ते हैं उनसे अधिक शिक्षा देने वाली कोई वस्तु नहीं है। वह अपना मार्ग आप ही बनाता है-ऐसा मार्ग जो दुख और विपत्ति में से निकल कर ही वह महानता व सुख शान्ति प्राप्त करता है।
दोष रहित मनुष्य महान है। यह भी अपना मार्ग स्वयं ही बनाता है। वह अपने मार्ग को महानता के प्रकाश से प्रकाशित कर देता है और मूर्खता, दुख और विपत्तियों की सीमा को पार करके आनन्द को प्राप्त करता है। वास्तव में जब हम स्वार्थ को छोड़कर किसी और को प्रेम दृष्टि से देखते हैं तो हमें दूसरों में कोई भी बुराई दिखाई नहीं देती। इस प्रकार से उन्हें वैसा ही देखते हैं जैसा वे हैं, परन्तु इस उच्च प्रेम के स्थान पर मनुष्य तभी पहुँचता है जब अपने मन में इन विचारों को पक्का कर लेता है। इस प्रकार से मनुष्य दूसरों की बुराइयों को न देखने का रहस्य तभी समझता है जब वह उसके सम्बन्ध में सोचता है और उसमें अपने स्वार्थ की कोई बू नहीं होती। वह उन लोगों को उनके व्यवहार से ही नापता है। उनके कामों को अपने नहीं बल्कि उन्हीं के दृष्टिकोण से देखता है। लोग बुराई और भलाई के बारे में अपने अलग-अलग दृष्टिकोण बनाते हैं और चाहते हैं कि सभी लोग उस ढंग पर चलें। एक दूसरे में दोष देखने का यही कारण है। प्रत्येक मनुष्य की ठीक नाप तोल तभी की जा सकती है जब हम न तो अपने, न ही तुम्हारे और न किसी और के बल्कि उसी के पैमाने से उसे नापें। उस तरह का व्यवहार करने से हम उनकी परीक्षा नहीं लेते वरन् उनके साथ प्रेम करते हैं।
दूसरों के सम्बन्ध में बुरा कहने वाला मैं कौन हूँ? दूसरों पर बुरा होने का पाप मैं कैसे मढ़ सकता हूँ जब मैं स्वयं पाप से दूर नहीं हूँ। ऐ मेरे मन! दूसरों के दोष निकालने से पहिले अपने को मिलनसार और निरभिमानी बना।” दूसरों के दोष और बुराइयों, को देखने से पूर्व अपनी बुराइयों और दोषों को देखो। कबीर ने बहुत सुन्दर कहा है :—
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न देखा कोय!
जो खोजा मन आपना, मुझ सा बुरा न कोय।”
पवित्र हृदय वाला व्यक्ति दूसरों में बुराई देखना छोड़ देता है। दूसरों से घृणा करना अपने आप को धोखा देना है। प्रेम करना स्वयं को प्रकाश में लाना है। कोई भी व्यक्ति अपने आप को व दूसरों को ठीक प्रकार से तब तक नहीं समझ सकता जब तक घृणा को त्याग कर प्रेम न करने लगे। घृणा करना सख्त गलती, मूँढता और अन्धापन है तथा इससे उसे ही हानि पहुँचती है। आम तौर पर हम देखते हैं कि मनुष्य अपने से पृथक मन रखने वालों को बुरा और अपने जैसा मन रखने वालों को अच्छा समझते हैं। जो व्यक्ति अपने ही मन को ग्रहण करने योग्य समझता है वह उन्हीं व्यक्तियों से प्रेम करता है जो उसके विचारों के अनुकूल होते हैं। किन्तु जो उसके विचारों के प्रतिकूल चलते हैं उनसे वह घृणा करते हैं। मसीह ने कहा—”जो तुझसे प्रेम करते हैं, यदि तू उन से प्रेम करे तो तू ने कौन सा अलौकिक काम किया है? अपने शत्रुओं से प्रेम कर और उनके साथ भलाई कर जो तुझ से घृणा करते हैं।”
बुराई की वास्तविकता को समझना और श्रेष्ठ जीवन यापन करने का मतलब है दूसरों में बुराई न देखना। जो दूसरों की बुराइयों को छोड़कर अपने हृदय को पवित्र बनाने की चेष्टा करता है, वह धन्य है। उसे एक दिन वह दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है जिससे वह किसी में बुराई को देख ही नहीं पाता।
बुराई की वास्तविकता को जानकर हमें क्या करना चाहिए? यदि कोई मेरे दोष निकालता है तो मैं उसे बुरा नहीं कहूँगा। यदि कोई मुझे गाली दे तो मैं उस के साथ भलाई करने प्रयत्न करूंगा। अपने दोष निकालने वाले की अच्छाइयों का वर्णन करूंगा, जो मुझ से घृणा करता है उस के लिए मैं प्रेम की आवश्यकता समझूँगा। शोकातुर व्यक्तियों से मैं सहानुभूति दिखाऊंगा। लोभी के साथ मैं उदारता का व्यवहार करूंगा। झगड़ालू के साथ नम्रता का बरताव करूंगा। जब मुझे बुराई दिखाई ही न पड़ेगी तो मैं किस से घृणा और किससे शत्रुता कमाऊंगा?
बहनों और भाइयों! अगर लोग तुम्हें दुख देना चाहते हैं या तुमसे शत्रुता, ईर्ष्या रखते हैं तो मुझे बहुत अफसोस होता है। मेरे साथ तो कोई भी ईर्ष्या नहीं करता, शत्रुता नहीं रखता। सभी नम्रता का बरताव करते हैं। मुझे रोना आता ही नहीं। मुझे रोने से क्या मतलब?
जैसे एक ही माता-पिता की संतान, एक ही परिवार के रहने वाले बहन भाई दुख-सुख में मिलकर प्रेम से रहते हैं, एक दूसरे की गलतियों को नहीं देखते बल्कि उन पर पर्दा डालते रहते हैं और प्रेम सूत्र में बन्धे रहते हैं, वैसे ही एक श्रेष्ठ पुरुष सभी लोगों को अपने ही घर का सदस्य मानते हुए, एक ही माता-पिता की सन्तान, एक ही आत्मा से बने हुए और एक ही लक्ष्य रखने वाले मनुष्य समझता है। वह सबको अपना बहन-भाई मान कर किसी को भी भिन्न नहीं मानता। उस के लिए गोरे काले, जाति-पाति आदि का कोई भेदभाव नहीं रह जाता। वह किसी की बुराई को नहीं देखता। सबके साथ सुख शान्ति से रहता है। इस आनन्द के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को धन्य है।
वास्तव में आगे बढ़ने की कला को उसी ने समझा है जिसने अपने हृदय को इस प्रकार से मोड़ लिया है कि वह किसी में भी बुराई को न देख सके।